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बदलती जलवायुः वनोपज पर असर, आदिवासियों की आजीविका पर गहराया संकट

बदलती जलवायुः वनोपज पर असर, आदिवासियों की आजीविका पर गहराया संकट
बदलती जलवायुः वनोपज पर असर, आदिवासियों की आजीविका पर गहराया संकट

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मध्य प्रदेश के जंगलों के समीप निवास करने वाले वनवासी समुदाय के लिए साल का मार्च से मई माह का समय उत्साह से भरा होता है। यही समय होता है जब वनवासी जंगलों से लघु वन उपज जैसे महुआ के फूल, चिरौंजी, तेदुपत्ता आदि का संग्रहण करते हैं, जिससे उन्हें अपने भरण-पोषण में मदद मिलती है। लेकिन इस साल आदिवासी चिंतित नजर आ रहे हैं। 

उमरिया जिले के मानपुर ब्लाॅक में स्थित चिल्हरी गांव के शिवचरण बैगा 45 कहते हैं कि

“मैं हर साल करीब 4.5 से 5 क्विंटल तक महुआ एकत्र करता हूं, लेकिन इस बार ऐसा नहीं कर सका। अनियमित बारिश और ओलावृष्टि से महुआ के फूल खराब हो गए और मैं बमुश्किल से 1.5 से 2 क्विंटल ही फूल एकत्र कर पाया हूं। “

वे अफसोस जताते हुए कहते हैं कि नुकसान सिर्फ महुआ तक ही सीमित नहीं है। अन्य लघु वन उपज में भी गिरावट आई है। खासकर तेंदुपत्ता के साथ भी ऐसा ही है। वे हर साल तेंदुपत्ता की बिक्री से साल में 8 से 9 हजार रू तक कमा लेते थे। लेकिन इस साल बमुश्किल से 2 से 3 हजार रू ही मिलने की उम्मीद हैं।

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महुआ पर मध्य प्रदेश के आदिवासियों की निर्भरता

मध्य प्रदेश, देश की सबसे अधिक अनुसूचित जनजातीय आबादी वाला राज्य हैं। मध्य प्रदेश सहित ओडिशा, छत्तीसगढ़ अैर आंध्रप्रदेश में बहुतायत में पाए जाने वाले महुआ के पेड़ (Madhuca longifolia) महत्वपूर्व लघु वन उपज (एमएफपी) हैं। आदिवासी सहकारी विपणन विकास फेडरेशन ऑफ इंडिया ट्राइफेड के अनुसार मध्य प्रदेश, ओडिशा और आंध्रप्रदेश में करीब 75 प्रतिशत से ज्यादा आदिवासी परिवारों द्वारा महुआ के फूल एकत्र करने का काम किया जाता है। 

मप्र राज्य लघु वनोपज संघ के मुताबिक, पिछले साल मध्य प्रदेश में करीब 32 हजार 356 क्विंटल महुआ पैदा हुआ था। इस कुल उपज का 50 प्रतिशत महुआ धार, अलीराजपुर, झाबुआ, उमरिया, सीधी, सिंगरौली, डिंडौरी, मंडला, शहडोल और बैतूल जिलों में होता हैं, लेकिन इन जिलों के आदिवासियों में इस बार उत्साह का माहौल नजर नहीं आ रहा हैं।  इसकी वजह वनोपज पर पड़ रहा अनियमित मौसम का प्रभाव माना जा रहा है, जिसका प्रभाव वनोपज पर आजीविका के लिए निर्भर वनवासियों पर पड़ रहा है। 

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बदलता मौसम कैसे कर रहा है वनोपज को प्रभावित?

भारतीय मौसम विभाग के मुताबिक बीते दिनों उत्तरी अफगानिस्तान और आसपास के इलाकों में उपजे वेस्टर्न डिस्टर्बेंस के चलते मध्य प्रदेश सहित देश के कई हिस्से अनियमित बारिश और ओलावृष्टि के शिकार हुए हैं। इससे प्रदेश के 15 से ज्यादा जिले ओलावृष्टि और बारिश से बुरी तरह प्रभावित हुए। इन जिलों में चना, सरसों और गेंहू की फसल को 20 से 30 प्रतिशत तक नुकसान पहुंचा हैं, साथ ही  इससे वनोपज के उत्पादन पर भी  प्रभाव पड़ा है। 

मध्य प्रदेश के होशंगाबाद और मंडला जिल के दो वन क्षेत्रों में गैर-लकड़ी वन उत्पादों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव का सर्वेक्षण कर चुकी वैज्ञानिक सीमा यादव कहती हैं कि

‘‘बीते कुछ सालों में जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन के कारण प्रदेश में अनियमित बारिश, ओलावृष्टि के साथ ही अन्य मौसम अनियमित होते जा रहे हैं, ठीक उसी तरह महुआ के साथ अन्य वनोपज की पैदावार में भी बदलाव आ रहा है। अनियमित मौसम की वजह से मानसून सीजन के अलावा भी आसमान में बादल घिर जाते हैं, इससे महुआ के फूल सही से पक नहीं पाते। जोकि सीधे तौर पर महुआ के उत्पादन को प्रभावित करता है।’’

वैज्ञानिक कहते हैं कि बदलती जलवायु से महुआ की फीनोलाॅजी पर असर हो रहा है। इस वजह से जो महुआ का फूल मार्च के मध्य झड़ना शुरू होना था, वो अब मध्य फरवरी में खिलने और झड़ने लगा है। पूर्वी मध्यप्रदेश में जलवायु परिवर्तन के प्रभाव पर हुए शोध के मुताबिक महुआ की फीनोलाॅजी में बदलाव होने से इसके उत्पादन में 25 प्रतिशत की गिरावट आई है।   

वनवासियों पर क्या बीत रही है?

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भावुक होते हुए शिवचरण की पत्नी सुखेरा बाई 37 कहती हैं कि

 “सोचा था इस बार महुआ के फूलों का संग्रहण कर उन्हें अच्छे दामों में बेचकर बिटियां की शादी करेंगे। लेकिन ऐसा नहीं हो सका, क्योंकि इस बार अनियमित मौसम ने सब बर्बाद कर दिया है।”

उमरिया जिले के मानपुर ब्लाॅक में ही आने वाले परासी गांव की रूपाबाई बैगा 38 बताती हैं कि जब वे छोटी थी तब से परिवार के साथ जंगल से महुआ के फूल बीन रही हैं। वो सुबह 5 बजे ही घर से जंगल की तरफ निकल जाती हैं और दोपहर होने तक महुआ बीनती हैं। इसी से उनकी छह माह की आजीविका चलती है। उनके साथ उनकी बेटी, लड़के और पति होते हैं। उनके पति फूलसिंह बैगा 44 बताते हैं कि उन्हें पिता से 40 पेड़ विरासत में मिले थे। तीनों बेटों को 10-10 पेड़ बांट दिए है और 10 पेड़ उनके पास बचे हैं। इन पेड़ों के फूल वो अपनी पत्नी और बेटी के साथ बीनते हैं। उसी से सालभर का खर्च चलता है।

फूलसिंह आगे कहते हैं कि “हमें एक किलो महुआ पर 40 रू. मिलते हैं। हर साल हम 450 से 500 किलो तक महुआ इकट्ठा कर लेते हैं। लेकिन इस बार मौसम ने सब बिगाड़ दिया हैं।  हम सिर्फ 150 किलो तक की महुआ बीन पाए हैं।”

फूलसिंह के मुताबिक तेंदुपत्ता के साथ अन्य वनोपज का भी यहीं हाल है। इससे भी कोई उम्मीद नहीं हैं। सरकार की तरफ से तीन से चार किलो मिलने वाले राशन से गुजरा करना मुश्किल है।

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पिछले साल उमरिया से लंदन भेजा 1000 क्विंटल महुआ

बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व के डिप्टी फील्ड डायरेक्टर पीके वर्मा मानते है कि बदलती जलवायु की वजह से वनोपज पर भी असर पड़ रहा है। इससे बचने के लिए जागरूकता और प्रशिक्षण जरूरी है। उनके मुताबिक महुआ के फूल एकत्र करने के लिए आदिवासी महुआ के पेड़ के नीचे की जमीन को साफ करने के लिए आग का सहारा लेते हैं और मौसम शुष्क होने की वजह से यह आग जंगल में विकराल रूप लेकर फैल जाती है। यह आग जैव विविधता और वन्यप्राणियों को नुकसान पहुंचाने के साथ ही कार्बन उत्सर्जन को बढ़ा देती हैं। इसकी वजह से न सिर्फ जंगल की जैव विविधता को नुकसान हो रहा है बल्कि वनोपज की पैदावार पर भी असर पड़ रहा है। 

वर्मा आगे कहते हैं कि

“हम निरंतर ग्रामीणों को जागरूक करने के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम का आयोजन कर रहे हैं।  ग्रामीणो को ग्रीन नेट का उपयोग कर महुआ संग्रहण के लिए प्रेरित कर रहे हैं। पिछले साल प्रदेश में लंदन के व्यापारियों ने 2000 क्विंटल महुआ खरीदा था और उमरिया जिले से 1000 क्विंटल महुआ भेजा गया था। इस बार मांग दोगुनी होने की संभावना हैं।”

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वहीं उमरिया जिले के आदिवासियों का कहना हैं कि वन विभाग लंदन के व्यापारियों को 110 रुपए प्रति क्विंटल के भाव से महुआ बेच रहा है और हमें 50 रुपए प्रति क्विंटल का भाव ही दे रहा है। 

ग्रामीणों की बात का जवाब देते हुए वर्मा कहते हैं कि

“केंद्रीय जनजातीय मामलों के मंत्रालय के अनुसार महुआ के बीज के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य 45 रू. और महुआ के फूल का लिए 50 रू. प्रति किलोग्राम हैं। सरकार द्वारा निर्धारित दामों पर ही खरीदी कर रहे हैं।” 

ग्रीन नेट से महुआ संग्रहण

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साल 2020 में प्रदेश के जंगलों में आग की घटनाओं पर लगाम लगाने और जैव विविधता के संरक्षण के लिए पारिस्थितिकी तंत्र सेवा सुधार परियोजना की शुरूआत बैतूल जिले से की गई थी। इस परियोजना के तहत ही ग्रीन नेट के माध्यम से महुआ संग्रहण को बढ़ावा दिया जा रहा है। 

ग्रीन नेट को पेड़ के नीचे ज़मीन से दो से तीन फूट ऊपर बांधा जाता है। महुआ के फूल नेट पर गिर जाते हैं, जिन्हें ग्रामीण आसानी से संग्रहित कर सकते हैं। जबकि पहले इन लोगों को ज़मीन से फूल उठाने पड़ते थो जो मौसम खराब होने पर मिट्टी में खराब हो जाते थे। 

वन विभाग के अपर मुख्य सचिव जे एन कंसौटिया कहते हैं कि 

“इस पहल ने जंगल की आग को काफी हद तक कम किया और जैव विविधता के संरक्षण के प्रति ग्रामीणों को जागरूक किया है और इससे महुआ संग्रहण में होने वाले खर्च में भी कमी आई है।” 

कंसौटिया के मुताबिक परियोजना का कार्यक्षेत्र खंडवा, उमरिया, अलीराजपुर, दक्षिण बैतूल और पश्चिम मंडला जिलों तक बढ़ाया गया है। जिला यूनियनों द्वारा 60 लाख रू के ग्रीन नेट, फूड ग्रेड बोरे एवं अन्य वस्तुओं को क्रय कर ग्रामीणों में वितरित किया गया है। इसके साथ ही करीब 4000 से ज्यादा हितग्राहियों को प्रशिक्षित किया गया है।

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बैतूल जिले के कुपवा गांव के पवन यादव 35 बताते हैं कि उन्हें वर्ष 2020 में वन विभाग ने महुआ संग्रहण करने के लिए ग्रीन नेट उपयोग करने के लिए कहा। इस दौरान वन विभाग के अधिकारियों ने प्रशिक्षण भी दिया था। इस दौरान उन्हें यह समझ आया कि जंगल में आग लगने की घटना से वनस्पतियों को कितना नुकसान हो रहा है

बैतूल जिले के ही खटपुरा गांव के आदिवासी और स्थानीय वैध वासिद खान कहते हैं कि पहले उनका पूरा परिवार भौर से पहले ही जंगल पहुंच जाता था और सारा दिन फूलों को एकत्र करने में बिता देता था। इस वजह से कई बार दिन का भोजन भी छोड़ना पड़ता था। लेकिन ग्रीननेट के उपयोग से कम मेहनत और कम समय में काम हो रहा है।

महिलाओं को भी ग्रीन नेट से सहूलियत हुई है। खटपुरा गांव की फूलनबाई कहती हैं कि

“पहले धूप में झुककर सारा दिन फूल इकट्ठा करती थी, कमर में दर्द हो जाता था। अब मैं घर का काम खत्म कर जंगल जाती हूं और नेट पर गिरे फूल आसानी से बीन लेती हूं।”

बैतूल जिले के डीएफओ, विजयानन्तम टीआर मानते हैं कि ग्रीन नेट की वजह से आदिवासी समुदाय के परिवारों की आमदनी बढ़ी है। इसके साथ ही महुआ के फूलों को चुनने की प्रक्रिया को पर्यावरण के लिहाज से अनुकूल बनाने में भी मदद मिल रही हैं। 

जेएन कंसौटिया बताते हैं कि वन विभाग द्वारा संसाधनों के विकास के लिए साल 2021 में 1889 हेक्टेयर में 14.17 लाख, साल 2020 में 6087 हेक्टेयर में 45.65 लाख और साल 2023 में 3844 हेक्टेयर में 28.83 लाख पौधों का रोपा गया है। इन पौधों में मुख्य रूप से लघु वनोपज प्रजातियां जैसे महुआ, अचार, हर्रा, बहेड़ा, करंज, कुसुम, नींम, कैथा, रीठा, भिलवा, बेल और आंवला आदि शामिल हैं। इसका उद्देश्य जलवायु परिवर्तन से वनाश्रित समुदाय की आजीविका की रक्षा करना ही है।

क्या पौधारोपण से हो जाएगा जलवायु परिवर्तन का सवाल हल?

फल अनुसंधान केंद्र, भोपाल के प्रिंसिपल साइंटिस्ट डाॅ. आरके जायसवाल कहते हैं कि प्रदेश के जंगलों पर क्लाइमेट चेंज का कितना प्रभाव पड़ रहा है, या वनों में पाई जाने वाली वनस्पतियों में से कौन सी वनस्पति पर कितना प्रभाव हो रहा है और किस वनस्पति ने अपने आपको जलवायु परिवर्तन के अनुकूल किया या कोशिश की। यह समझने के लिए हमें एक लंबे शोध की आवश्य़कता हैं। इसके बाद ही इस समस्या का हल निकाला जा सकेगा।

डॉ जयसवाल आगे कहते हैं कि “प्रदेश में कान्हा नेशनल पार्क में करीब 10 हेक्टयर में स्थित परमानेंट रिजर्व माॅनिटरिंग प्लाॅट में मौजूद पेड़, पौधे और वनस्पतियों पर जलवायु परिर्वतन के प्रभाव के आंकलन के लिए शोध की शुरूआत हो चुकी है। लेकिन यह शोध अभी अपने शुरूआती चरणों में है। जब तक इस शोध के परिणाम समाने नहीं आते हमें जंगल में लगने वाली आग को नियंत्रित करने और पौधारोपण जैसे विकल्प पर ही निर्भर रहना होगा।” 

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  • Based in Bhopal, this independent rural journalist traverses India, immersing himself in tribal and rural communities. His reporting spans the intersections of health, climate, agriculture, and gender in rural India, offering authentic perspectives on pressing issues affecting these often-overlooked regions.

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