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वनाग्नि से जंग लड़, बैतूल के युवा आदिवासी बचा रहे हैं जंगल और आजीविका

वनाग्नि से जंग लड़, बैतूल के युवा आदिवासी बचा रहे हैं जंगल और आजीविका
वनाग्नि से जंग लड़, बैतूल के युवा आदिवासी बचा रहे हैं जंगल और आजीविका

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Read in English | मध्य प्रदेश के बैतूल जिले के पश्चिम वन मंडल के बिद्यवा गांव में रहने वाले आदिवासी लल्लन सेलूकर दो साल पहले वन क्षेत्र में लगी आग की घटना के बारे में याद कर आज भी सिहर जाते हैं 

‘‘मुझे अच्छे से याद है, उस साल अप्रैल माह के दूसरे या तीसरे सप्ताह में जंगल में लगी आग हमारे गांव तक आ गई थी और आग मेरे घर से मात्र 100 मीटर दूर थी। वो तीन दिन इतने भयानक थे, मैं उन्हें कभी नहीं भूल सकता।’’

सेलूकर और उनका परिवार ( मां, पत्नी और दो बच्चे) आमतौर पर जंगलों से लघु वनोपज एकत्र कर अपनी आजीविका चलाते हैं। लेकिन हर साल गर्मी के मौसम में जंगलों में लगने वाली आग से उनके काम के साथ ही उनकी कमाई भी प्रभावित होती है। 

सेलूकर बताते हैं कि उनका गांव जंगल की चिचोली रेंज में आता है, जोकि हर साल गर्म मौसम में बुरी तरह से आग की चपेट में आ जाता है और ग्रामवासी महुआ, तेंदूपत्ता के साथ अन्य गैर-लकड़ी वन उत्पादों ( एनटीएफपी) जैसे आंवला, साज, करवा चिराग, बीज, सफेद मूसली, अशोक छाल, सेमल कपास और शहद आदि का संग्रहण नहीं कर पाते हैं। इससे उन्हें भारी आर्थिक नुकसान होता है।

दरअसल, भारत में क्षेत्रफल के हिसाब से मध्य प्रदेश में सबसे बड़ा जंगल है। इसके साथ ही मध्य प्रदेश देश में सबसे अधिक अनुसूचित जनजातीय आबादी वाला राज्य भी है। 

प्रदेश के वन क्षेत्रों में विविध आदिवासी समुदाय रहते हैं, जिनमें गोंड, बैगा और कोरकू प्रमुख हैं। 

आदिवासी सहकारी विपणन विकास फेडरेशन ऑफ इंडिया (ट्राइफेड) के अनुसार मध्य प्रदेश, ओडिशा और आंध्रप्रदेश में करीब 75 प्रतिशत से ज्यादा आदिवासियों की आजीविका वनोपज पर निर्भर है। 

आजीविका निगलती वनाग्नि

Betul forest fires

भारतीय वन स्थिति रिपोर्ट 2021 के मुताबिक देश के जंगलों में आग लगने की सबसे अधिक घटनाएं ओडिशा में 51,968 दर्ज की गईं, उसके बाद दूसरे नंबर पर मध्य प्रदेश में 47,795 और तीसरे पर छत्तीसगढ़ में 38,106 हैं। 

आग की बढ़ती घटनाओं की वजह से वनवासियों को आजीविका, भोजन, दवा और अपनी आर्थिक गतिविधियों और कच्चे माल की सुरक्षा के लिए चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। रोजगार के अवसरों के खत्म होने से वे जीविका के लिए बाहरी स्रोतों पर निर्भर होने के लिए मजबूर हो जाते हैं। 

हर वर्ष मार्च से अप्रैल माह में महुआ के फूल पेड़ों से गिरते हैं, आदिवासी समुदाय के लोग इस समय अपने परिवार के साथ जंगलों में फूल संग्रहण के लिए जाते हैं। सेलुकर बताते हैं कि 

“हम सूरज निकलने से पहले जंगल चले जाते हैं। ज्यादा से ज्यादा महुआ के फूलों का संग्रहण करने और फूलों को खराब होने से बचाने के लालच में हम पेड़ों के नीचे थोड़ी-थोड़ी आग लगा कर वहां के आसपास की जमीन साफ करते थे, ताकि हम आराम से और ज्यादा संख्या में महुआ बीन सकें।” 

वे आगे कहते हैं कि “जितना ज्यादा महुआ उतना ही ज्यादा पैसा मिलेगा, लेकिन दुर्भाग्य से मैं इस परंपरा के चलते न सिर्फ अपना नुकसान कर रहा था, बल्कि जंगल की प्राकृतिक वनस्पतियों, पेड़-पौधे और जंगली जानवरों को भी नुकसान पहुंचाने का काम कर रहा था।” 

उनकी बात को आगे बढ़ाते हुए उनकी पत्नी दुर्गावती बाई कहती हैं कि

“जब से हमें पता चला हैं कि आग लगा कर ज़मीन साफ करने की परंपरा से नुकसान हो रहा है तो हमने अब इसका उपयोग करना छोड़ दिया है।”

अब वो  महुआ के फूलों का संग्रहण करने के लिए ग्रीन नेट जाल, चादर आदि चीजों का उपयोग करते हैं। 

Green net for Mahua Collection

उनके ही समीप बच्चे को गोद में लिए बैठी 34 वर्षीय कुलवंती कोरकू बताती है कि अब वो पेड़ों के नीचे जमीन से करीब तीन से चार फीट उपर जाल या चादर को बांध देती हैं और सूरज डूबने से पहले ग्रीन नेट से महुआ के फूल एकत्र का घर लौट आती हैं। 

सावलमेंढा जंगल की निवासी श्‍यामा ताई (34) कहते हैं कि

“पहले महुआ का फूल ज़मीन पर गिरता था तो उसकी पंखुड़ियां टूट जाती थी, अब ग्रीन नेट के उपयोग से फूल खराब होने से बच जाता है और दाम भी अच्छे मिलते हैं।”

बैतूल जिले के मुख्य वन संरक्षक प्रफुल फुलझेले के मुताबिक मप्र वन विभाग ने साल 2020 में प्रदेश के जंगलों में आग की घटनाओं और जैव विविधता के संरक्षण के लिए पारिस्थितिकी तंत्र सेवा सुधार परियोजना बैतूल में शुरू की थी। इस परियोजना के तहत आदिवासियों को फ्री में ग्रीन नेट बांटे गए और उसके माध्यम से महुआ के फूल संग्रहण करने का प्रशिक्षण दिया गया। इस परियोजना से जंगल की आग काफी हद तक कम करने में मदद मिली।

शहद संग्रहण का तरीका भी था जंगल की आग का कारण

इधर, बैतूल जिले के दक्षिण वन मंडल के डीएफओ विजयानन्तम टीआर बताते हैं कि मवेशियों के चारे और शहद के लिए मधुमक्खियों को भगाने के लिए आदिवासियों द्वारा आग लगाने की परंपराएं हैं। इन परंपराओं से छुटकारा हासिल करने के लिए ग्रामीणों को जागरूक करने के साथ भोपाल में शहद निकालने का प्रशिक्षण दिलाया गया और हनी कलेक्‍शन किट मुहैया करवाई। इस किट में सीढ़ी, हेलमेट, दस्ताने, कपड़े, चाकू, बाल्टी, रस्सी शामिल हैं। 

वन मंडल के परसापानी, ग्राम के रामचरण (34) कहते हैं कि

“शहद निकालने का काम मई और जून माह में 25 से 30 दिनों के बीच किया जाता हैं, लेकिन हम मधुमक्खियों से बचने के लिए आग जलाकर उन्हें भगा देते थे। फिर पेड़ पर चढ़कर शहद एकत्र करते थे, ऐसा करने से कई बार हवा के सहारे आग जंगल में फैल जाती थी। इस आग से कितना नुकसान होता है, इसकी जानकारी लगने के बाद से अब आग नहीं लगाते हैं।”

वे आगे कहते हैं कि वो अब वन विभाग से मिली हनी कलेक्शन किट की मदद से ही शहद निकालते हैं और हर साल करीब 40 से 50 हजार रू. की आमदनी हो रही है।

अंधविश्वास और जंगल की आग

Forest Fires in Madhya Pradesh

वहीं पीपल ढाना ग्राम निवासी बेरू बैगा (36) बताते हैं कि

“हम जंगल के पास ही निवास करते हैं और अधिकतर आदिवासी समुदायों में मान्यता हैं कि जंगल को आग के हवाले करने से बिगड़े हुए काम बन जाते हैं, बोला हुआ काम हो जाता है, जबकि कई वनवासी संतान सुख के लिए भी जंंगल को आग के हवाले कर देते हैं, इस वजह से भी कई बार जंगल में आगजनी घटनाएं होती हैं।”

अभी वन विभाग के अधिकारियों और वन समितियों के सदस्यों ने गांव में बैठकें की, इन बैठकों  के दौरान उन्होंने बताया कि जंगल में आग लगने से वन संपदा, वनोपज, वन्य प्राणियों, जीव-जंतुओं के साथ उन्हें कितना नुकसान हो रहा है। इसके बाद  गांव के सभी लोगों ने ऐसी मान्यता को नहीं मानने का फैसला लिया है, जिससे जंगल को किसी भी तरह का नुकसान हो रहा हो। बेरु बैगा कहते हैं कि यह ज़रुरी है क्योंकि

“जंगल ही हमारे लिए सबकुछ हैं, हम इसके बिना कुछ नहीं।”

दो साल से बैतूल जिले के जंगल आग से महफूस

बैतूल जिले के पश्चिम वन मंडल के डीएफओ वरूण यादव के अनुसार जिले के पश्चिम वन मंडल में 5 रेंजों में 133 बीटों में 88 बीटें सेंसिटिव मानी जाती हैं और इनमें साल दर साल जंगलों में आग लगने की घटनाओं में इजाफा हो रहा था। क्योंकि 95 हजार हेक्टेयर क्षेत्रफल वाले इस वन मंडल में 72 प्रतिशत वन क्षेत्र आगजनी के लिए संवेदनशील था। 

उन्होंने जमीनी स्तर पर पहुंचकर आग लगने के कारणों को जानने के लिए जंगल के चरवाहों, वन सुरक्षा समितियों के सदस्यों, बीट गार्ड्स, डिप्टी रेंजरों और रेंजरों से सुझाव मांगें। 

इन सुझावों से सामने आया कि ग्रामीण शिकारी जानवरों को भगाने, शहद के लिए मधुमक्खी को भगाने, खेतों की नरवाई जलाने, तेंदूपत्ता और नई घांस की आवक के लिए अधिकांश आग लगाते हैं, जो हवा के ज़रिए जंगलों तक पहुंच जाती है और विकराल रुप धारण कर लेती है। 

Forest Fires in Betul

इन तथ्यों के आधार पर संयुक्त वन प्रबंधन कार्यक्रम तैयार किए गए और ग्रामीणों को जागरूक करने के लिए जन जागरूकता अभियान चलाया गया। 

डीएफओ वरुण यादव आगे कहते हैं कि

“नुक्कड़ सभाओं, ऑडियो-वीडियो के माध्यमों से आग रोकने के उपायों की जानकारी लोगों को दी गई और आग से जंगलों को होने वाले नुकसान के बारे में बताया गया। पिछले चार माह में ही वन मंडल की 166 वन समितियों और ग्रामीणों ने अग्नि सुरक्षा को लेकर 748 बैठकें की। हर रेंज में स्पेशल फायर फाइटर फोर्स तैयार की और आधुनिक उपकरणों जैसे फायर ब्लोवर, लाइन जलाई, लाइन कटाई, फायर वाचर व वाॅच टावर का उपयोग किया।”

Betul Forest Fire control community work

वे आगे बताते हैं कि संयुक्त वन प्रबंधन के इन्हीं सब प्रयासों की मदद से लगभग 99 प्रतिशत आग की घटनाओं पर काबू पाया गया है। 

Forest fire data yearwise Betul Madhya Pradesh
फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया के फायर एलर्ट डैशबोर्ड के मुताबिक वर्ष 2021 बैतूल में 1299 आग की घटनाएं सामने आई और इससे 478 हेक्टेयर वन भूमि को नुकसान हुआ, वहीं साल 2022 में 765 आगजनी की घटनाओं से करीब 338 हेक्टेयर वनक्षेत्र को नुकसान हुआ था, लेकिन संयुक्त प्रयासों की बदौलत ही साल 2023 में मात्र 55 आग की घटनाएं सामने आई, जिससे 45 हेक्टेयर वनक्षेत्र को नुकसान हुआ, जबकि इस साल 2024 में मात्र 12 जगह की आग लगी, जिसकी वजह से मात्र 9 हेक्टेयर वन भूमि को नुकसान हुआ है। 

इस साल प्रदेश में पश्चिम वन मंडल को वनों को आग की चपेट से बचाने के लिए पहला स्थान मिला और 15 अगस्त को राज्य स्तर पर सम्मानित भी किया गया, जबकि पिछले साल बैतूल जिले के दक्षिण वन मंडल को जंगल की आग से बचाने के लिए पहला स्थान मिला था और इस साल भी दक्षिण वन मंडल के जंगलों में 81 फायर अलर्ट ही प्राप्त हुए हैं। 

अगली पीढ़ी को भी कर रहे तैयार 

Forest Department meeting with tribals to save forest

डीएफओ वरूण यादव बताते हैं कि युवा पीढ़ियों को जंगल से जोड़ने और उसके संरक्षण करने के लिए कई तरह की प्रतियोगिताओं, खेलकूद के कार्यक्रम और वनाग्नि पर काबू करने के लिए प्रशिक्षण दिया जा रहा है। 

घोरपड़ ग्राम के 60 वर्षीय देवीलाल बैगा कहते हैं कि

“जंगल की आग, अनियमित बारिश, गर्मी और सर्दी ने हमें जंगलों से दूर कर दिया है, युवा पीढ़ी इस काम से दूर भागती है।” 

उनकी बात का समर्थन करते हुए सीताराम कहते हैं कि “चार साल पहले जंगल की आग से सब बर्बाद हो गया था, उस साल वनोपज का संग्रहण नाम मात्र का हुआ और उसी साल से अगली पीढ़ी ने जंगलों में दिलचस्पी लेना छोड़ दिया था। लेकिन अब युवाओं को जंगल की आग बुझाने में रुची लेते देख अच्छा लग रहा है।”

डीएफओ यादव आगे कहते हैं कि

“युवा पीढ़ी जंगल के संरक्षण के प्रति सचेत हो रही है और किसी भी प्रकार की घटना होने पर सबसे पहले सूचित भी कर रही है।”

Forest Department Betul

राज्‍य में सबसे अधिक तेंदूपत्‍ता संग्रहण, जबकि महुआ बिक रहा विदेशों में

डीएफओ विजयानन्‍तम टीआर  के अनुसार जंगलों में आग की घटनाओं को पिछले दो साल में आदिवासियों की मदद से कम किया जा चुका है। इसका फायदा आदिवा‍सियों को भी मिलने लगा है। 

इस बार प्रदेश में सबसे अधिक तेंदूपत्‍ता का संग्रहण बैतूल जिले से ही किया गया है। इस साल लघु वनाेपज संघ द्वारा बैतूल जिले के दक्षिण वन मंडल को 9,929 मानक बोरा तेंदूपत्‍ता संग्रहण का लक्ष्‍य निर्धारित किया गया था, जबकि जिला यूनियन ने 11,361 मानक बोरा तेंदूपत्‍ता संग्रहण किया, जोकि निर्धारित लक्ष्‍य का 114 प्र‍तिशत है।

प्रदेश में पिछले दो साल से मप्र लघु वनोपज संघ के माध्‍यम से विदेशी कंपनियों को महुआ बेचा जा रहा है, पिछले साल 2,000 क्विंटल महुआ विदेशी कंपनियों को भेजा गया था, जिसमें बैतूल जिले से भी करीब 500 क्विंटल महुआ भेजा गया था, इस साल भी विदेशी कंपनियों को करीब 4,000 क्विंटल महुआ भेजने की तैयारी संघ ने की है। 

जलवायु परिवर्तन की वजह से बढ़ रहे तापमान ने दुनियाभर में वनाग्नि की घटनाओं में वृद्धी की है। सामुदायिक स्तर पर किये जा रहे प्रयास इन घटनाओं को रोकने और कम करने में काफी कारगर साबित हुए हैं। बैतूल जिले में वन विभाग और स्थानीय समुदाय का यह प्रयास इसी बात का उदाहरण है।

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