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क्यों किसान और सरकार एक बार फिर हैं आमने सामने

Production: Himanshu Narware

यह ‘ग्राउंड रिपोर्ट’ के डेली मॉर्निंग पॉडकास्ट का 85वां एपिसोड है। मंगलवार, 9 दिसंबर को देश भर की पर्यावरणीय ख़बरों के साथ पॉडकास्ट में जानिए सीड बिल पर किसानों के विरोध और टीकमगढ़ में हुई किसान किसान की मौत के बारे में।


मुख्य सुर्खियां

जापान में सोमवार को 7.6 तीव्रता का भूकंप महसूस किया गया. जिसके बाद सुनामी का अलर्ट जारी किया गया है।


ट्रंप ने अपने हालिया बयान में भारतीय चावल पर एक्स्ट्रा टैरिफ लगाने की ओर इशारा किया है।


2025 में अंटार्कटिका के ऊपर ओजोन छिद्र एक दिसंबर को बंद हो गया, जो 2019 के बाद सबसे जल्द बंद होने का रिकॉर्ड है।


संसद में बताया गया कि दिल्ली के आनंद विहार में लगे स्मॉग टावर के चलते PM 2.5 और PM10 लेवल में लगभग 20% तक कमी आई है।


सोनम वांगचुक की वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के ज़रिए पेश होने की रिक्वेस्ट का सोमवार को केंद्र सरकार ने विरोध किया। सरकार ने कहा कि वांगचुक के लिए कोई अतिरिक्त छूट नहीं दी जानी चाहिए।


अरावली की नई परिभाषा को लेकर राज्यसभा में अजय माकन ने कहा कि ढाई अरब साल पुरानी पर्वतमाला आज अपने अस्तित्व पर सबसे बड़े खतरे का सामना कर रही है।

विस्तृत चर्चा

सीड बिल को लेकर किसान संगठनों का विरोध

किसान संगठनों ने संकेत दिया है कि वे जल्द ही सरकार के खिलाफ विरोध तेज़ करने वाले हैं, जिसकी वजह है बीजों को लेकर लाया जा रहा नया कानून। प्रस्तावित बिल के तहत बीजों का रजिस्ट्रेशन अनिवार्य होगा, गुणवत्ता और परफॉर्मेंस की वैज्ञानिक रिपोर्टिंग ज़रूरी होगी और नियम तोड़ने वाली सीड कंपनियों को तीन साल तक की सजा का प्रावधान रहेगा। सरकार का दावा है कि इससे नकली बीजों पर लगाम लगेगी और बाजार में सिर्फ भरोसेमंद बीज ही उपलब्ध रहेंगे। लेकिन किसान संगठनों और कई विशेषज्ञों को आशंका है कि इसके साथ ही बीज बाजार में कॉरपोरेट एकाधिकार मजबूत होगा और किसानों के अधिकार सिकुड़ेंगे।

ड्राफ्ट में रजिस्ट्रेशन, डिजिटल सबमिशन, QR कोड और लगातार ट्रैकिंग जैसी प्रक्रियाएँ शामिल हैं, जिन्हें लागू करना बड़ी कंपनियों के लिए आसान है लेकिन छोटे और स्थानीय बीज उत्पादकों के लिए बेहद मुश्किल। किसान अपने खेत में बीज उगा सकते हैं, रख सकते हैं और आपस में बांट सकते हैं — पर जैसे ही वे किसी बीज को ब्रांडिंग कर बेचेंगे, उन्हें उसी कठोर परमिट प्रक्रिया में उतरना पड़ेगा, जो अक्सर छोटे ग्रामीण समूहों की पहुँच से बाहर होती है। इस वजह से किसान समितियाँ और बीज बैंक जैसी पहलें दबाव में आ सकती हैं।

विशेषज्ञ एक और खामी की तरफ़ इशारा कर रहे हैं। बीजों की टेस्टिंग में जिन मापदंडों को प्राथमिकता दी जाती है, वे मुख्यतः हाइब्रिड या कॉरपोरेट बीजों के अनुकूल होते हैं। स्थानीय किस्में, जिनमें विविधता और जलवायु-अनुकूलता होती है, ऐसे परीक्षणों में अक्सर कमजोर पड़ती हैं और धीरे-धीरे औपचारिक बाजार से गायब होने का जोखिम बढ़ जाता है। यह खतरा सिर्फ खेती में नहीं, जैविक विविधता में भी सीधा असर डाल सकता है।

कीमतों को लेकर आशंकाएँ भी हैं। विरोधियों का कहना है कि जब पूरी प्रक्रिया महंगी होगी, तो बीजों के दाम बढ़ना तय है। हालांकि ड्राफ्ट में संकट की स्थिति में सरकार को दाम नियंत्रित करने का अधिकार दिया गया है। साथ ही एक चिंता यह भी है कि अंतरराष्ट्रीय लैब्स को बीज परीक्षण की अनुमति देने से भारत की दुर्लभ किस्मों की जानकारी बाहर जाने और बायोपाइरेसी का खतरा बढ़ जाएगा।

सबसे गंभीर सवाल मुआवज़े पर है। अगर खराब बीज की वजह से फसल चौपट होती है तो किसान को राहत पाने के लिए कानूनी लड़ाई लड़नी होगी।

फिलहाल यह कानून अभी अंतिम रूप में नहीं पहुंचा है। 11 दिसंबर तक जनता से सुझाव लिए जा रहे हैं, जिनके आधार पर ड्राफ्ट में बदलाव होंगे, फिर कैबिनेट, और उसके बाद संसद की बारी आएगी। प्रक्रिया लंबी है, लेकिन किसान संगठनों ने पहले ही मोर्चा खोल दिया है और 10 दिसंबर को विरोध प्रदर्शन तय कर दिया गया है।


टीकमगढ़ में यूरिया के लिए तीन दिन से लाइन में लगे किसान की मौत

मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ में उर्वरक संकट के बीच लाइन में लगे एक किसान की मौत हो गई। 50 वर्षीय जमुना कुशवाहा तीन दिनों से बड़ोरा घाट कृषि केंद्र पर महज़ दो बोरी यूरिया के लिए लगातार चक्कर लगा रहे थे। सोमवार दोपहर वे लाइन में खड़े-खड़े अचानक बेहोश होकर गिर पड़े। उल्टियाँ होने लगीं तो उन्हें जिला अस्पताल ले जाया गया, जहाँ इलाज के दौरान उनकी मौत हो गई। पोस्टमार्टम में हार्ट अटैक की पुष्टि हुई है। परिवार का कहना है कि खाद न मिलने की टेंशन और लगातार भागदौड़ ने ही उनकी जान ली।

प्रदेश में इन दिनों रबी सीज़न चल रहा है और किसानों को खेतों में खाद की सख़्त ज़रूरत है, बावजूद इसके कई जिलों में यूरिया की भारी किल्लत बनी हुई है। रातभर लाइन में खड़े रहने के बाद भी किसान खाली हाथ लौट रहे हैं। मौत के बाद भीड़ संभालना और वितरण सुधारना प्रशासन की मजबूरी बनता है। यह प्रदेश को पहले भी देखना पड़ा है। हाल ही में गुना जिले में एक महिला किसान तीन दिन तक खाद के लिए लाइन में लगती रही और तबियत बिगड़ने से उसकी भी मौत हो गई थी। उसके बाद वितरण का समय बढ़ाया गया, लेकिन समस्या ज्यों की त्यों बनी हुई है।

स्थिति को और बिगाड़ रहा है डिफॉल्टर किसानों पर रोक। राजगढ़ से आई रिपोर्ट दिखाती है कि 43 हज़ार से ज़्यादा किसान सहकारी सोसाइटी के डिफॉल्टर हैं, इसलिए उन्हें खाद नहीं दी जा रही। ऐसे किसान फिर खुले वितरण केंद्रों पर भीड़ लगाते हैं, जिससे वे किसान भी परेशान हो रहे हैं जो डिफॉल्टर नहीं हैं और नियमों के हिसाब से खाद पाने के हकदार हैं।

सरकार दावा कर रही है कि खाद की पर्याप्त उपलब्धता है और किसानों से लाइनों में न लगने की अपील की जा रही है। लेकिन ज़मीनी असलियत यह है कि हज़ारों छोटे किसान दो बोरी यूरिया के लिए भी ठंड में घंटों खड़े रहने को मजबूर हैं और अब यह संकट सीधा जानलेवा साबित हो रहा है।

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Support Ground Report to keep independent environmental journalism alive in India

We do deep on-ground reports on environmental, and related issues from the margins of India, with a particular focus on Madhya Pradesh, to inspire relevant interventions and solutions. 

We believe climate change should be the basis of current discourse, and our stories attempt to reflect the same.

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