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वो ‘मिल’ जिसके कपड़े की दुनिया दीवानी थी, सरकार ने उसे‘सेल्फी क़ब्रिस्तान’ बना डाला !

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वो ‘मिल’ जिसके कपड़े की दुनिया दीवानी थी, सरकार ने  उसे‘सेल्फी  क़ब्रिस्तान’ बना डाला !
वो ‘मिल’ जिसके कपड़े की दुनिया दीवानी थी, सरकार ने उसे‘सेल्फी क़ब्रिस्तान’ बना डाला !

तेज़ आवाज़ में सायरन बजता है। एक ऐसा सायरन जिसकी आवाज़ शहर में कई किलोमीटर दूर तक जाती है। यह सायरन ‘मैनचेस्टर ऑफ ईस्ट’ का ख़िताब हासिल चुके शहर कानपुर में कपड़ा बनाने वाली मिल ‘लाल इमली’ का था। दिन में दो बार इस सायरन की आवाज़ लोगों के कानों में गूंजती थी। हज़ारों लोग जब अपना काम ख़त्म करके मिल के दरवाज़ों से लाइन लगाकर बाहर निकलते थे, तब ऐसा लगता था मानों पूरा शहर ही मिल में काम करने आता हो।

20वीं शताब्दी के मध्य में इस लाल इमली मिल में बन रहा कपड़ा दुनियाभर में अपनी छाप छोड़ रहा था। मिल अपनी कामयाबी की असीम उंचाइयों को छू रही थी। देश में गोरो का क़ब्ज़ा था। प्रशासनिक शक्तियों से लेकर सभी आर्थिक गतिविधियों को अंग्रेज़ अपने मन मुताबिक़ चला रहे थे। मिल की कामयाबी और यहां बन रहा कपड़ा दुनियाभर के कई देशों में मशहूर हो चुका था। कानपुर शहर में यूं तो उस समय कई मिल्स चल रही थीं, लेकिन जो शोहरत-ओ-बुलंदी लाल इमली को मिली वो किसी दूसरी मिल को नहीं मिली।

चलिए थोड़ा इतिहास के पन्नों को पलटते हैं और जानते हैं कि आख़िर कैसे दुनियाभर में मशहूर और कभी पैसा उगलने वाले इस मिल को आज किसी एक म्यूज़ियम में बदल कर सैकड़ों हज़ारों मज़दूरों की सैलरी हड़प ली गई। सालों से यहां कर्मचारी धरना दे रहे हैं। सरकार और प्रशासन से अपनी सैलरी को लेकर दशकों से लड़ रहे हैं। ज़िला प्रशासन ने आज इस मिल को ‘सेल्फी वाला क़ब्रिस्तान’ बना कर छोड़ दिया है। जी हां, सही पढ़ा आपने, सेल्फी वाला क़ब्रिस्तान। ऐसा क्यों कहा ? आगे पढ़ने पर इसका जवाब आपको मिल जाएगा।

लाल इमली मिल कब, किसने और क्यों बनवाया?

एक सदी से भी अधिक समय तक शहर की शान रही लाल इमली मिल को कानपुर की धरती पर साल 1876 में तामीर किया गया था। तब देश अंग्रेज़ों की चंगुल में था। वीई कूपर, गैविन एस जोन्स, जार्ज ऐलन,  डा.कोंडोन और बिवैन पेटमैन आदि ने मिलकर इस शानदार इमारत को बनवाया था।

मिल बनकर जब तैयार हुई तो गोरों ने इसको ब्रिटिश सेना के लिय कंबल बनाने के रूप में शुरू कर दिया। बड़ी संख्या में भारतीय लोगों को काम पर रखना शुरू कर दिया। शुरूआती दौर में इसका नाम कॉनपोरे वुलन मिल्स रखा गया था। फिर इमली के पेड़ों से प्रभावित होकर इसके नाम को लाल इमली रख दिया गया, जिसके बाद विश्वभर में इस नाम से प्रख्यात हो गई।

साल 1920 में ब्रिटिश इंडिया कॉर्पोरेशन स्थापित किया गया और लाल इमली को एक निदेशक मंडल द्वारा लिमिटेड कंपनी के रूप में पंजीकृत किया गया। वर्ष 1956 में मुद्रा घोटाले के बाद निदेशक मंडल को भंग कर दिया गया। 11 जून 1981 को किए गए राष्ट्रीयकरण में यह मिल भारत सरकार के अधीन हो गई, जहां से इसके पतन की शुरुआत हुई। वर्ष 1992 में यह बीमार यूनिट घोषित कर दी गई।

केंद्र सरकार के अधीन आते ही हो गई बर्बाद

लाल इमली ने शुरू होने के कुछ वर्ष के बाद से ही कामयाबी की राह पकड़ ली थी। यहां बनने वाला कपड़ा अपनी क्वालिटी के चलते बेहद पसंद किया जा रहा था। साल 1920 में ब्रिटिश इंडिया कॉर्पोरेशन स्थापित किया गया और लाल इमली को एक निदेशक मंडल द्वारा लिमिटेड कंपनी के रूप में पंजीकृत कर दिया गया। फिर इसी तरह मिल कामयाबी की नई कहानियां लिखती गई। फिर देश को अंग्रेज़ों के चंगुल से आज़ादी मिल गई। लेकिन मिल वैसी ही चल रही थी जैसी अंग्रेज़ छोड़ कर गए थे।

1920 में ब्रिटिश इंडिया कॉर्पोरेशन की स्थापना के लगभग तीन दशक के बाद इस निदेशक मंडल को पैसों की हेरा-फेरी के बाद हुए घोटाले के चलते 1956 में भंग कर दिया गया। फिर 11 जून 1981 को हुए राष्ट्रीयकरण में लाल इमली मिल भारत सरकार के अधीन हो गई। जैसे ही यह मिल केंद्र सरकार के पास आई, तब से ही इसके पतन की ओर जाना शुरू हो गया। यहां काम करने वाले हज़ारों मज़दूर मिल को बचाने के लिय संघर्ष करने लगे। विरोध प्रदर्शन होने लगे। सरकार ने साल 1992 में इसको बीमार यूनिट घोषित कर दिया।

अंग्रज़ों के समय मिल में 10000 से अधिक श्रमिक तीन शिफ्टों में काम करते थे। आर्थिक तौर पर ये मिल कई लाख परिवार की रोज़ी रोटी का ज़रिया थी। यूरोप से लेकर फ्रांस तक लाल इमली में बना कपड़ा जाता था। कपड़े की क्वालिटी से प्रभावित होकर दुनियाभर से आडर्र आने लगे थे। लेकिन जैसे ही आज़ादी के बाद मिल केंद्र सरकार के हाथ में आई। मिल के पतन की कहानी शुरू हो गई। श्रमिकों की संख्या जो कभी 10 हज़ार से अधिक थी। साल 2013 तक आते-आते मात्र 650 बची थी। फिर सरकार ने 2013 में उत्पादन ही बंद कर दिया।

विश्वभर में लोकप्रिय रहा यहां बनने वाला कपड़ा

कुछ रिपोर्ट्स में लिखा है कि 50 के दशक तक लाल इमली मिल में 65 से 70 हज़ार मीटर कपड़ा उत्पादन करने की क्षमता थी। ‘मेरिनो ऊन’ से बनने वाले गर्म कपड़ों की मांग और लोकप्रियता इस क़दर हो गई थी कि बेस्ट वूलन क्लॉथ के लिए लाल इमली को स्पेन में इंटरनेशनल ग्लोबल अवार्ड मिला था। यहां काम कर चुके कामगार बताते हैं कि जो मशीने यहां मौजूद हैं वैसी मशीने पूरे देश में नहीं हैं। यहां पर ऐसी मशीनें आज भी हैं, जो बेमिसाल हैं और चौबीस घंटे बिना रुके चलाई जा सकती हैं। लेकिन सरकार की नाकामी के चलते वे मशीने अब ज़ंग खा रही हैं।

लाल इमली कर्मचारी संघ के संयोजक आशीष पांडेय बताते हैं, ‘’देश की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी व उनके पुत्र राजीव गांधी लाल इमली मिल के बने कपड़ों के दीवाने थे। वे यहां की बनी टूस लोई व 60 नंबर लोई पहना करते थे। आज इस मिल को सरकार ने एक क़ब्रिस्तान में बदल डाला है। मिल को ऊंचाइयों तक पहुंचाने में यहां के कामगारों का खून-पसीना लगा है।‘’

आशीष पांडेय आगे बताते हैं कि सरकार ने कागमारों की लगभग 39 महीने का वेतन नहीं दिया। हमारी संघर्ष आज भी जारी है। हम कई दशकों से सरकार से मज़दूरों के वेतन के लिय लड़ाई लड़ रहे हैं। हमारे कई साथी इस बीच दुनिया से भी चले गए। लेकिन हम आज भी इस लड़ाई के लड़ रहे हैं और आगे भी लड़ते रहेंगे, जब तक बकाया वेतन नहीं मिल जाता।

सरकार ने मिल को ज़िंदा करने की कई कोशिशें की

ऐसा नहीं है कि सरकार ने लाल इमली मिल को दोबारा से खड़ा करने के लिय कोशिश नहीं की। लेकिन परिणाम देखने के बाद सरकार ने भी हाथ पीछे हटा लिए। 2001 में केंद्र सरकार ने 211 करोड़, 2005 में 47.35 करोड़ और 2011 मे 338.04 करोड़ रुपये की पूंजी डालकर मिल को फिर से उबारने की कोशिश की। लेकिन, रिज़ल्ट से सरकार को निराशा हाथ लगी। फिर जाकर नीति आयोग ने 2017 में लाल इमली मिल को बंद करने का सुझाव दिया था।

नीति आयोग ने सुझाव देते हुए कहा कि मिल को बंद कर देना चाहिए। सरकार को मिल से अब वैसे परिणाम हासिल नहीं हो सकते, जैसे कभी पहले मिलते रहे हैं। साथ ही ये भी कहा था कि मिल को बंद करने के बाद ही कर्मचारियों के बकाये और लंबित सैलरी का भुगतान भी कर देना चाहिए। वित्‍त वर्ष 2020-21 में 106 करोड़ रुपये का नुकसान दर्ज किया था। इसके 1,209 कर्मचारियों को अपने भुगतान के सेटेलमेंट का इंतज़ार है। वे आज भी गेट पर धरना देते रहते हैं। उनको आज भी कहना यही है कि सरकार ने मज़दूरों का हक़ मार रखा है। हम अपना हक़ ले कर रहेंगे।

प्रशासन ने मिल को बना दिया सेल्फी वाला क़ब्रिस्तान

145 साल पुरानी इस इमारत को ज़िला प्रशासन ने ब्रिटिश इंडिया कॉर्पोरेशन यानी BIC की इजाज़त लेकर इमारत को 1 करोड़ रूपये की फसाड लाइटिंग से सजा दिया है। अब यहां शाम के समय केवल फोटो खीचने वाली की भीड़ रहती है। हज़ारों मज़दूरों का वेतन न देकर सरकार ने इस सेल्फी वाला क़ब्रिस्तान बना डाला। जिन मज़दूरों ने इस मिल को अपने खून पसीने से खड़ा किया सरकार ने उनका वेतन देकर 1 करोड़ की केवल लाइटें लगवा दीं।

प्रशासन ने पूरी इमारत में फसाड लाइट लगा दी है। ये खास तरह की लाइट होती है। फसाड लाइट जिस जगह पर लगती है, उसी पर फोकस्ड रहती है। यानी इसकी रोशनी इधर-उधर नहीं बिखरती। सालों से अपने वेतन के लिय संघर्ष कर रहे मज़दूर आज भी सरकार से अपने वेतन को लेकर मांग कर रहे हैं। मज़दूरों का कहना है कि सरकार ने 1 करोड़ की लाइट्स लगा दी लेकिन ग़रीब मज़दूर के पैसे नहीं दिए। जब तक हम ज़िंदा हैं, हम अपने हक़ की लड़ाई लड़ते रहेंगे।

ये थी कहानी उस लाल इमली मिल की जिसकी तूती कभी दुनियाभर में बोलती थी। देश के प्रधानमंत्री भी यहां के बने कपड़ों के दीवाने थे। आज ये इमारत अपने अंदर सैकड़ों कहानियां दबाए खड़ी है। साथ ही मज़दूर भी खड़े हैं।

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