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भारत में Waste to Energy प्लांट्स बंद क्यों हो रहे हैं?

भारत में Waste to Energy प्लांट्स बंद क्यों हो रहे हैं?
भारत में Waste to Energy प्लांट्स बंद क्यों हो रहे हैं?

देश भर में स्वच्छता सर्वेक्षण 2024 के तीसरे फेज का सर्वेक्षण शुरू हो चुका है। इस बार के सर्वेक्षण की थीम RRR  (रिड्यूस, रियूज, रिसाइकल) है। इसमें तात्पर्य कचरे को पुनःचक्रीकृत करके देश के संसाधनों का विकास करने से है। देश में कचरे से खाद, बायोगैस, और बिजली बनाने के संयंत्र लगे है। वहीं देश भर में कचरे से बिजली बनाने के कई संयंत्र बीते सालों में बंद भी हुए हैं। इन सब के बाद भी नीति आयोग और ऊर्जा मंत्रालय की ओर से इन संयंत्रों की स्थापना पर काफी जोर भी दिया जा रहा है। आइये समझते हैं कैसे काम हैं ये संयंत्र, और क्या हैं इसके नफे और नुकसान। 

क्यों दे रही है सरकार वेस्ट-टू-एनर्जी पर जोर 

पूरी दुनिया में ठोस कचरे के मद्देनजर भारत सातवें पायदान पर आता है। एक आंकड़े के मुताबिक शहरी भारत दिन भर में 55 मिलियन टन कचरा निकालता है। लेकिन इस बड़ी मात्रा का केवल 25 फीसदी हिस्सा ही पुनर्चक्रण की प्रक्रिया से गुजर पाता है। बाकी का बचा 75 फीसदी हिस्सा या तो जला दिया जाता है या कचरे के ढेर में पड़ा रहता है।

अब ऐसी उम्मीद जताई जा रही है कि भारत 2025 तक 165, और 2030 तक 436 मिलियन टन कचरे का उत्पादन करेगा। ऐसे में सरकार कचरे को संसाधन के तौर पर एक मजबूत विकल्प के तौर पर देख रही है। 

इस बार के स्वच्छता सर्वेक्षण में मल प्रबंधन के लिए 1750 अंक निर्धारित किये गए हैं। इसमें गीले और सूखे कचरे की प्रोसेसिंग के लिए  280-280 अंक, यानी कुल 560 अंक निर्धारित किये गए हैं। इसके साथ ही स्वछतापूर्वक लैंडफिल के उपयोग के लिए 160 अंक निर्धारित किये गए हैं। वहीं इस पूरी प्रक्रिया में सबसे जरूरी कार्य, स्रोत से ही कचरे के पृथक्करण के लिए कुल 300 अंक निर्धारित किया गए हैं। 

हालांकि पिछले सर्वेक्षण के आंकड़ों और कचरे से ऊर्जा निर्मित करने की प्रक्रिया में तार्किक विसंगतियां हैं। उदहारण के तौर पर भारत में कचरे का पहले पायदान से पृथक न होना ऊर्जा उत्पादन में बड़ी समस्या माना जा रहा है। वहीं दूसरी ओर स्वच्छता सर्वेक्षण 2023 के परिणामों के अनुसार भारत में कचरे का स्रोत पृथक्करण 90 फीसदी है।

Waste to Energy:कैसे कचरे से बनती है ऊर्जा

कचरे से ऊर्जा प्राप्त करने की प्रक्रिया में सबसे पहले कचरे को इकठ्ठा करके इसकी छंटनी की जाती है। इसमें सबसे पहले बायोडिग्रेडेबल कचरे को अलग कर उससे खाद बनाई जाती है। इस प्रक्रिया को तकनीकी शब्दावली में बायोलॉजिकल ट्रीटमेंट टेक्नॉलॉजी कहते हैं। 

इसके बाद बचे हुए कचरे से पत्थर, कांच जैसे अनुपयोगी तत्व को छांट कर अलग कर लिया जाता है। अलग कचरे को छोटे आकार में तोड़ा जाता है ताकि उसे जलाने में आसानी हो। इसके बाद कचरे को उच्च तापमान में भट्टी में जलाया जाता है। 

इस कचरे के दहन के बाद भारी मात्रा में ऊष्मा उत्पन्न होती है। इस ऊष्मा से बनी भाप टरबाइन को घुमाती है, और इसी के साथ ऊर्जा उत्पन्न होती है। इसके बाद उत्पन्न बिजली को जनरेटर के माध्यम से ग्रिड में भेजा जाता है। 

 

क्यों फायदे में नहीं है ये Waste to Energy मॉडल 

सदन में 2022 में जवाब देते हुए तात्कालीन नवीकरणीय ऊर्जा मंत्री आर. के. सिंह ने बताया था कि भारत में 132.1 मेगावाट की क्षमता के 11 प्लांट काम कर रहे हैं, जो की प्रति दिन 11,000 टन कचरा प्रोसेस कर सकते हैं।

भारत में इस तरह का पहला प्लांट दिल्ली के तिमारपुर में 1987 में लगाया गया था, लेकिन यह कुछ ही समय बाद बंद हो गया। इसके बाद देश में 130 मेगावाट से अधिक की क्षमता के 18 अन्य प्लांट खोले गए, जिनमें से 66 मेगावाट के  7 प्लांट अब बंद हो चुके हैं। 

भारत में इन प्लांटों की विफलता के कई कारण हैं। इनमें से प्रमुख कारण भारत में घरों से कचरा इकठ्ठा करते वक्त गीले और सूखे कचरे का अलग न होना है। इस वजह से कचरे का उपचार करने से पहले उसे छांटने में अतिरिक्त प्रयास करने पड़ते हैं। और इसके दहन के लिए भी अतिरिक्त ईंधन का खर्च आता है। 

भारत में इस प्रकार की परियोजनाओं में कचरे की प्रकृति एक बड़ी समस्या है। दरअसल कचरे से बिजली बनाने की आवश्यक शर्त है कि कचरा नॉन-बायोडेग्रेडेबल होना चाहिए। ठोस अपशिष्ट प्रबंधन नियम, 2016 में भी उल्लेख किया गया है कि सिर्फ नॉन-रिसाइक्लेबल और हाई कैलोरिफिक मल ही प्लांट में भेजे जाएं। लेकिन भारत से सालाना निकलने वाले 55 मिलियन टन कचरे में सिर्फ 15 फीसद कचरा ही नॉन-रिसाइक्लेबल होता है। 

इसके अलावा भारत के कचरे में कैलोरिफिक वैल्यू (ऊष्मा जनक मात्रा) सीमित होती है, और नमी अधिक होती है। भारत के कचरों में इसका औसत मान 1,411–2,150 kcal/kg है, जो कि दहन के लिए बेहद कम है। इस वजह से भी ऐसे कचरे से ऊर्जा उत्पादन करना महंगा हो जाता है। भारत से उलट नॉर्वे, और स्वीडन जैसे स्कैंडेनेवियाई देशों में यही कैलोरिफिक वैल्यू 1,900-3800 kcal/kg होती है, जो कि दहन के लिए उपयुक्त है। 

इसके अलावा ये तकनीक ऊर्जा उत्पादन की अन्य तकनीकों से महंगी है। कचरे से बिजली उत्पादित करने में खर्च 7 से 8 रूपये प्रति यूनिट आता है। जबकि कोयला इत्यादि से बिजली के उत्पादन में यही खर्च 3 से 4 प्रति यूनिट का होता है। जिसका सीधा निष्कर्ष है कि ये तरीका किफायती नहीं है।  

कचरे के दहन से पर्यावरण को भी क्षति पहुंचती है। साल 2018 में हरियाणा में इसी प्रकार के एक 15 मेगावाट के संयंत्र की घोषणा की गई थी। बाद में खट्टर सरकार ने इसकी क्षमता बढाकर 25 मेगावाट कर दी थी। इस पूरे घटनाक्रम को लेकर स्थानीय लोगों ने काफी विरोध किया था।

आम तौर पर भारत में कचरे का 40 से 70 फीसदी हिस्सा दरकिनार कर दिया जाता है, क्योंकि यह हिस्सा दहन से ऊर्जा उत्पादन के योग्य नहीं होता है। इस कचरे को पुनः किसी डंपसाइट में फेंक दिया जाता है, जिससे प्रदूषण की संभावना बनी रहती है। इन्हीं वजहों से स्वच्छ पर्यावरण का सफर वापस पहले कदम पर आ जाता है। 

हमारे पास ऐसे कई राष्ट्रों के उदाहरण जिन्होंने न सिर्फ इस मॉडल को सही तरह से क्रियान्वित किया है, बल्कि इस पर निर्भरता भी स्थापित की है। जो संकेत देता है की ये मॉडल भारत में भी एक सफल मॉडल हो सकता है, बशर्ते लोग इसके प्रति जागरूक हों। सूखे और गीले कचरे को अलग डालने को अपनी आदतों में शामिल करें। साथ ही स्थानीय निकाय भी इसे सिर्फ एक टारगेट की तरह न लेकर इसे जिम्मेदारी समझें।  

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  • Journalist, focused on environmental reporting, exploring the intersections of wildlife, ecology, and social justice. Passionate about highlighting the environmental impacts on marginalized communities, including women, tribal groups, the economically vulnerable, and LGBTQ+ individuals.

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