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संविधान दिवस: पर्यावरणीय समस्याओं के बीच संवैधानिक मूल्य

संविधान दिवस: पर्यावरणीय समस्याओं के बीच संवैधानिक मूल्य
संविधान दिवस: पर्यावरणीय समस्याओं के बीच संवैधानिक मूल्य

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हम भारत के लोग आज 75वां संविधान दिवस मना रहे हैं। 26 नवंबर 1949 को हमने संविधान को अंगिकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित किया था, 26 नवंबर 1950 को यह पूरी तरह लागू हो गया। 75 वर्षों की इस यात्रा में संविधान को कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ा।  सबसे बड़ी चुनौती संवैधानिक मूल्यों को व्यक्तिगत और सामाजिक व्यवहार में स्थापित करने को लेकर रही। 

व्यवस्था और समाज के स्वभाव में भी न्याय, बंधुत्व, सहभागिता, स्वतंत्रता और गरिमा के मूल्य पूरी तरह स्थापित हुए हों ऐसा कम ही देखने को मिलता है। देश के सामने पैदा होते आए आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक संकटों के बीच इन मूल्यों का ह्रास देखने को मिलता रहा। सांप्रदायिक दंगों और महामारी के समय हमने मानवीय गरिमा और बंधुत्व को तार-तार होते देखा है। अब जलवायु परिवर्तन की वजह से पैदा हो रही समस्याओं के बीच भी संवैधानिक मूल्यों के ह्रास की संभावनाएँ बढ़ने लगी हैं। 

शहरी और ग्रामीण असमानता

भारत में जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए बनाई जा रही नीतियां भी ज्यादातर शहर केंद्रित नज़र आती हैं।  जबकि देश की 70 फीसदी आबादी जो ग्रामीण इलाकों में रहती है। ये लोग आजीविका के लिए प्रकृति पर सीधे तौर पर निर्भर होने की वजह से जलवायु परिवर्तन के खतरे का सबसे अधिक सामना कर रहे हैं। इसके बावजूद नीतियों में इनकी समस्याएं गायब हैं। 

उदाहरण के तौर पर भारत में केवल महानगरों के पास ही अपना हीटवेव एक्शन प्लान है, छोटे शहरों और ग्रामीण इलाकों के लिए इस तरह के प्लान तैयार करने की कोशिश तक होती नहीं दिखाई देती। 

जब दिल्ली में प्रदूषण का स्तर बढ़ता है तो केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय तुरंत हरकत में आकर दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान में पराली जलाने पर जुर्माना दोगुना कर देता है, जबकि उसी समय मध्य प्रदेश में पंजाब के बाद सबसे अधिक पराली जलाने की घटनाएं दर्ज होती हैं। भोपाल और उसके आसपास के गांवों में प्रदूषण 300 पार दर्ज किया जाता है। लेकिन यहां पर्यावरण मंत्रालय का आदेश लागू नहीं होता। 

भारत में स्वच्छ हवा में सांस लेने का अधिकार हर व्यक्ति को है लेकिन नीतियां सिलेक्टिव तरीके से बनाई या लागू की जा रही हैं। 

कैसे पर्यावर्णीय समस्याएं समतापू्र्ण और गरीमापूर्ण जीवन जीने में रुकावट पैदा कर रही हैं, इसे मैं दो महिलाओं की कहानी के माध्यम से इस लेख में समझाने का प्रयास कर रहा हूं। 

पानी के लिए आज भी दूसरों की दया पर निर्भर पूनम

Water Crisis in Sehore
Image Ground Report, Dobra Village, Sehore

सीहोर जिले की नोनीखेड़ी पंचायत के डोबरा गांव की प्रधानमंत्री ग्राम सड़क जहां से शुरु होती है, वहां एक बोर्ड लगा दिखाई देता है, जिसपर लिखा है “बेटी है तो कल है”। इसी बोर्ड के नज़दीक लगे हैंडपंप पर हमें इस गांव की कई बेटियां सायकिल पर पानी की चार-चार कैन लादकर अपने घर ले जाती दिखाई देती हैं। पूछने पर इनमें से एक लड़की पूनम हमें बताती हैं

“गांव में पानी की बहुत समस्या है, इस हैंडपंप में भी कुछ दिन का ही पानी बचा है। इसके बाद हमें कई किलोमीटर दूर जाकर पानी लाना पड़ेगा।”

पूनम सीहोर के स्वामी विवेकानंद कॉलेज में बीएससी की पढ़ाई कर रही हैं। वो बताती हैं कि उनका ज्यादातर समय पानी भरने में ही निकल जाता है। सुबह जल्दी उठकर वो घर की ज़रुरत का पानी भरती हैं, उसके बाद तैयार होकर यहां से 13 किलोमीटर दूर स्थित उनके कॉलेज जाती हैं। ठंड के समय में उनके लिए यह काम और ज्यादा तकलीफदेह हो जाएगा। 

पूनम के साथ ही पानी भर रही गांव की एक महिला बताती हैं कि गांव में पिछले कई वर्षों से पानी की समस्या बनी हुई है। घर के पुरुष इस काम में उनका हाथ नहीं बंटाते, ऐसे में पानी भरना उनकी ही ज़िम्मेदारी है।

डोबरा गांव में न सदियों पहले हर घर में नल का जल था ना आज है, लेकिन यहां के सार्वजनिक कुंओं और नलकूपों में वर्षभर पानी रहता था। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में यहां भू-जल स्तर तेज़ी से गिरा है। इसकी एक वजह कृषि के लिए भूजल का अत्यधिक दोहन, और गांव के कंक्रीटीकरण की वजह से बारिश के जल का ज़मीन में न पहुंच पाना भी है। 

गर्मियों में गांव में मौजूद यह सरकारी हैंडपंप भी सूख जाएगा। तब पूनम को पीने के पानी के लिए गांव के उन लोगों की दया पर निर्भर रहना होगा जिसके निजी बोरवेल में पानी रहेगा। पूनम कहती हैं, 

“अच्छा नहीं लगता किसी से पानी मांगना, सरकारी हैंडपंप से तो हम हक से भर सकते हैं, वहाँ ऐसा लगता है भीख मांग रहे हैं।”

स्वच्छ हवा में सांस लेने का अधिकार

Indira nagar colony sehore
Image by Ground Report, Indira Nagar Colony Sehore

दूसरी कहानी सीहोर के इंदिरानगर कॉलोनी में रहने वाली आशा देवी की है, जो उनके घर से कुछ किलोमीटर दूर स्थित सीहोर शहर की कचरा खंती से उठते धुएं से परेशान हैं।

आशा देवी कहती हैं कि

“लोग तो सुबह सुबह अपने घरों में अगरबत्ती लगाते हैं, लेकिन हमारे यहां सुबह होते ही कचरा खंती से उठता धुआँ खिड़की से अंदर आ जाता है। मेरे बेटे की चार महीने की बेटी है, उसका खांस खांस कर बुरा हाल हो जाता है। समझ नहीं आता कहां जाएं।”

ऐसा ही हाल यहां के अन्य लोगों का भी है, कचरे के ढेर में आग का लगना गर्मियों में आम हो जाता है। सारा धुआं उड़कर लोगों के घरों में जाता है जिससे स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं पैदा होती हैं।

इंदिरानगर और देश की वो सभी बस्तियां जो कचरा खंती के पास बसी हैं वहां के लोगों का जीवन शहर के बाकी लोगों के समान नहीं हो सकता। जबतक इन कचरा खंतियों का संचालन पर्यावणीय नियमों के अनुरुप नहीं होता। न ही यहां के लोग तब तक गरीमापूर्ण जीवन जी पाएंगे। 

जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए हमारा देश जस्ट ट्रांज़िशन के दौर में है। कोयला और जीवाश्म ईंधन इंडस्ट्री से जुड़े लोगों के पुनर्वास के लिए अभी से काम करने की ज़रुरत है, ताकि जब हम एक नए दौर में प्रवेश करें तो यह समुदाय खुद को पिछड़ा न महसूस करे। 

संविधान दिवस के मौके पर हमें यह ध्यान रखना होगा कि जलवायु परिवर्तन हर व्यक्ति को एक समान रुप से प्रभावित ज़रुर करता है लेकिन जो समाज में पहले से हाशिए पर हैं उनके पास इससे उबरने के संसाधन नहीं होते। ऐसे में समाज में पहले से मौजूद असमानता को देखते हुए जलवायु परिवर्तन से निपटने की नीतियां बनाने की ज़रुरत है। 

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  • Climate journalist and visual storyteller based in Sehore, Madhya Pradesh, India. He reports on critical environmental issues, including renewable energy, just transition, agriculture and biodiversity with a rural perspective.

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