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रुढ़ीवादी समाज को चुनौती देती ग्रामीण महिलाएं

रुढ़ीवादी समाज को चुनौती देती ग्रामीण महिलाएं
रुढ़ीवादी समाज को चुनौती देती ग्रामीण महिलाएं

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अनीता मीना कटकड | करौली, राजस्थान | दुनिया की आधी आबादी यानी नारी शक्ति का दो रूप हम देख पा रहे हैं. एक तरफ तो वो चांद को छू रही है, एवरेस्ट फतह कर रही है, वैज्ञानिक, डॉक्टर, इंजीनियर और मुख्यमंत्री तक बन रही हैं तो वहीं दूसरी और हमारे गांव में जहां देश की बड़ी आबादी निवास करती है वहां लड़कियों का बीच में ही स्कूल छुड़वाकर विवाह करा देना और उन्हें मूलभूत सुविधाओं से भी वंचित रखना आम बात है. सरकार के भरसक प्रयासों के बावजूद आज भी देश के सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में बड़ी संख्या में बाल विवाह किए जाते हैं. देश के 10 प्रमुख राज्यों जहां सबसे अधिक बाल विवाह होते हैं, उनमें राजस्थान भी अहम है. इस राज्य में केवल बाल विवाह ही नहीं बल्कि यहां महिलाओं के साथ दोयम दर्जे का भी व्यवहार किया जाता है. उनसे जुड़े फैसले भी पुरुषों द्वारा ही लिए जाते हैं.

राजस्थान में मीणा, गुर्जर, जाट आदि जातियों में गांवों में पंच पटेलों के द्वारा ही सभी प्रकार के विवादों का निपटारा किया जाता है. इसके अंतर्गत फैसले सर्वसम्मति से ग्राम वासियों के होते हैं. फिर चाहे वह फैसले महिलाओं से ही जुड़े क्यों न हों. महिलाओं को पंचायत अथवा महापंचायत से बिल्कुल अलग रखा जाता है. ये महापंचायत 5 जिलों की या उससे अधिक जिलों की पंचायत को मिलाकर होती है. जिनमें पुरुष ही पंच पटेल की भूमिका में अपराध की संगीनता को देखकर निर्णय सुनाते हैं. उक्त पंचायतों में महिलाओं को जाजम (दरी) पर आने का अधिकार नहीं दिया गया है. अलबत्ता वो वादी प्रतिवादी बनकर खड़ी रह सकती हैं, परंतु जाजम पर चढ़ने का अधिकार उन्हें आज तक प्राप्त नहीं हो पाया था.

लेकिन बदलते वक्त के साथ महिलाओं ने सदियों से चली आ रही इस रूढ़िवाद को न सिर्फ तोड़ा बल्कि जाजम पर पुरुषों के साथ बैठकर किसी भी फैसले में अपनी सलाह भी देने लगी हैं. इन्हीं में एक मीणा समाज की अनीता भी हैं. जिन्होंने न केवल इस महापंचायत में शामिल होकर इसमें सुधार की आवश्यकता पर बल दिया बल्कि महिलाओं से जुड़े मामलों के निपटान में भूमिका भी निभाने लगी हैं. अनीता कहती हैं कि वह बचपन से ही इस बात को लेकर परेशान रहती थी कि महिलाओं को पंचायत में समानता का अधिकार क्यों नहीं दिया जाता है? एक महिला गांव की सरपंच बन सकती है, कलेक्टर बन सकती है, नेता बन सकती है तो फिर उसे जाजम पर बैठने का हक़ क्यों नहीं है? 

इसी सोच के साथ 15 अप्रैल 2021 को वह सबसे पहले अपने ससुराल करौली में पांच जिलों धौलपुर, सवाई माधोपुर, दौसा, अलवर और करौली के पंच पटेलों की महापंचायत में पहुंचकर समाज सुधार को लेकर अपने विचार रखे. यह पहला मौका था जब गांव के पंच पटेलों के सामने गांव की बहू के द्वारा जाजम पर समाज सुधार की पहल की गई थी. अनीता बताती हैं कि उनके इस कदम का पुरुषसत्तात्मक समाज में विरोध होने लगा. स्वयं उनके पति ने भी पहले इस कदम का विरोध किया लेकिन अनीता के बुलंद हौसले के आगे सभी को झुकना पड़ा. अनीता ने जाजम पर न केवल महिला उत्पीड़न के मामलों पर महिलाओं की ओर से पक्ष रखना शुरू किया बल्कि मीणा समाज के महापंचायत में महिला स्वास्थ्य, महिला सशक्तिकरण और महिला सुरक्षा से जुड़े मुद्दों पर भी विचार रखे. आज उन्हें क्षेत्र में लोग आयरन लेडी के नाम से पुकारते हैं.

अनीता की तरह ही जयपुर स्थित जंवारामगढ तहसील के मानोता गांव की सुमन मीणा भी पुरुषसत्तात्मक समाज को चुनौती दे रही हैं. एक पढ़े लिखे शहरी परिवेश में पली बढ़ी सुमन का सपना आईएएस बनकर देश की सेवा करने का था. परंतु उनकी शादी गांव के एक संयुक्त परिवार में हुई. जहां पूरे दिन घर की महिलाओं के साथ घर के सभी कार्य स्वयं ही करने पड़ते थे. सुमन ने भी इसी परिवेश में स्वयं को ढाल लिया. इसी तरह से पांच साल गुजर गए. एक दिन किसी काम से गांव के विद्यालय गई तो वहां देखा कि स्कूल में मूलभूत सुविधाओं का अभाव है. वहां लड़कियों के लिए शौचालय की सुविधा तक उपलब्ध नहीं थी. इसी कारण लड़कियां पढ़ने नहीं आती थीं. लेकिन गांव की पंचायत में महिलाओं का प्रतिनिधित्व नहीं होने के कारण पंचायत के लिए यह कोई गंभीर मुद्दा नहीं था. यह सब देखकर सुमन को बहुत दुःख हुआ और उन्होंने इस व्यवस्था को सुधारने का निश्चय करते हुए सरपंच का चुनाव लड़ने की ठान ली. वह घर घर जाकर महिलाओं से मिली और उनकी समस्याओं को दूर करने का आश्वासन दिया. 

भारी बहुमत से चुनाव जीतने के बाद उन्होंने गांव में बैठक बुलाई जिसमें बड़े स्तर पर महिलाओं को बुलाया और उन्हें अपनी लड़कियों को विद्यालय भेजने पर राज़ी किया. सुमन ने शिक्षा विभाग के सहयोग से स्कूल में लड़कियों के लिए सभी सुविधाएं उपलब्ध कराई. इसका बहुत ही अच्छा असर देखने को मिला और बड़े स्तर पर बच्चियां विद्यालय आने लगीं. लेकिन मानोता गांव में विद्यालय आठवीं कक्षा तक ही था और उच्चतर विद्यालय गांव से लगभग 10 किमी दूर था. जहां अभिभावक लड़कियों को भेजने के लिए तैयार नहीं थे. यही कारण है कि गांव में आठवीं के बाद बच्चियां आगे नहीं पढ़ पा रही थी. सरपंच चुने जाने के बाद सुमन ने इस संबंध में प्रशासन से बात की और स्थानीय विधायक से विचार विमर्श करके विद्यालय को 12वीं तक अपग्रेड करवाया. इसके अलावा उन्होंने गांव में सार्वजनिक पुस्तकालय भी खुलवाए. उनके इस काम से न केवल गांव बल्कि आसपास के क्षेत्रों की लड़कियों में भी शिक्षा के प्रति जागरूकता आई. इसके बाद सुमन लगातार उस गांव की तीन बार निर्विरोध सरपंच रह चुकी हैं और आसपास के क्षेत्र में आदर्श महिला के तौर पर जानी जाती हैं. 

करौली स्थित हिंडन सिटी की रहने वाली विमलेश जाटव भी रूढ़िवादी समाज के विरुद्ध प्रतीक बन चुकी हैं. चार वर्ष की उम्र में ही उनका बाल विवाह हो गया था. लेकिन कुछ वर्ष बाद ही एक सड़क दुर्घटना में उनके पति की मौत हो गई. 12 वर्ष की उम्र में उन्हें अपनी शादी और पति की मौत के बारे में पता चला. जैसे जैसे वह बड़ी हुई उन्हें महसूस हुआ कि उसके लिए पढ़ना और अपने पैरों पर खड़ा होना क्यों जरूरी है? घर वालों के विरोध के बावजूद उन्होंने पढ़ने का फैसला किया. हालांकि घर की चारदीवारी में रहकर ही उन्हें पढ़ने की इजाज़त मिली. 15 वर्ष की उम्र में उन्होंने पढ़ना शुरू किया और एक साल तक जी तोड़ पढ़ाई करके आठवीं पास कर ली. 18 साल की उम्र में उन्होंने अपनी 12वीं की शिक्षा भी पूरी कर ली. अब घर वालों को भी उनके पढ़ने से कोई दिक्कत नहीं थी. इसके बाद दो साल की कड़ी मेहनत और पढ़ाई करके आखिरकार विमलेश को नर्स की नौकरी मिल गई. अपने पैरों पर खड़े होने के बाद उन्होंने दुबारा शादी की और एक सम्मानजनक तथा खुशहाल जीवन जी रही हैं. 

वास्तव में, ग्रामीण क्षेत्रों की इन महिलाओं के संघर्ष की कहानी मिसाल है. अपने हौसले और आत्मविश्वास से उन्होंने साबित किया कि महिलाएं चाहे शहरी हो या ग्रामीण, रूढ़िवादी बंधनों को तोड़कर आगे निकल चुकी हैं. वह एक ऐसे समाज का निर्माण कर रही हैं जहां सभी को समान अवसर प्राप्त होते हैं. (चरखा फीचर)

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