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सरहद पर लैंडमाईन्स से अपाहिज होते लोगों की आवाज़

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आशक 2011 की उस घटना को याद कर बताते हैं कि वो नदी के पास दोस्तों के साथ खेलने गए थे, वहां चक्की के पास लैंडमाईन (Landmine) बिछी थी। जब वो नदी से नहा कर बाहर निकले तो लैंडमाईन में ब्लास्ट हो गया। उनकी आंखों के सामने अंधेरा छा गया, उसके बाद क्या हुआ उन्हें नहीं याद। लोग बताते हैं कि उनके बचने की उम्मीद नहीं थी। इस घटना में आशक ने अपने दोनों हाथ और एक आंख गंवा दी। मज़दूर परिवार से आने वाले आशिक के परिवार की ज़िंदगी इस घटना के बाद बिल्कुल बदल गई, उनके पास अपने बेटे की जान बचाने के लिए ईलाज के पैसे नहीं थे। जहां तहां से उधार लेकर आशक का ईलाज अमृतसर में करवाया गया। ईलाज पर 8 लाख तक खर्च आया जो एक गरीब मज़दूर परिवार के लिए एक बहुत बड़ी रकम थी।

आशक के दादा उस समय को याद कर रोने लगते हैं, वो बताते हैं कि प्रशासन और आर्मी की तरफ से उन्हें कोई मदद नहीं मिली। ईलाज का सारा खर्च उन्होंने खुद उठाया, अगर खेत नहीं होते तो वो कैसे लोगों का कर्ज़ चुकाते वो नहीं जानते। वो आरोप लगाते हैं कि आर्मी ने बाकि लोगों को 5-5 लाख रुपए दिए लेकिन उन्हें केवल देढ़ लाख तक की ही मदद मिली।

जम्मू कश्मीर के सरहदी जिले पूंछ से 11 किलोमीटर दूर कर्मारा गांव में आशक की तरह और भी कई लोग हैं जो लैंडमाईन ब्लास्ट में घायल हुए हैं, कई तो जान भी गंवा चुके हैं। सरकार प्रशासन या आर्मी के पास लैंडमाईन (Landmine) से घायल या मर जाने वाले आम नागरिकों का कोई आंकड़ा मौजूद नही हैं। द लैंडमाईन एंड क्लस्टर म्यूनिशन मॉनिटर की रिसर्च के मुताबिक, लैंडमाईन (Landmine)ब्लास्ट में घायल-मृत सैनिक और आम जन का कोई आधिकारिक तौर पर आंकड़ा रिकॉर्ड नहीं किया जाता। लेकिन लोकल मीडिया और लोगों से बात कर इस ग्रुप ने कुछ आंकड़ा जुटाया है, जिसके मुताबिक भारत में वर्ष 1999 और 2015 के बीच 3,191 लोग एक्टीवेटेड माईन, आईडी, और एक्सप्लोसिव रिमेनेंट के शिकार हुए। इसमें 1,083 लोगों की जान गई और 2,107 लोग घायल हुए।

लैंडमाईन एक्सीडेंट (Landmine accidents)में सैनिकों की भी बड़ी मात्रा में जानें गई है। बॉर्डर इलाकों में सेना बड़ी मात्रा में लैंडमाईन्स बिछाती है ताकि किसी तरह की घुसपैठ न हो सके। युद्ध के समय में इसकी तादाद बढ़ जाती है।

लैंडमाईन ब्लास्ट (Landmine Blast)में अपनी एक टांग गंवा चुके अब्दुल ग़नी बताते हैं कि पहाड़ी इलाका होने की वजह से बारिश और बर्फबारी के समय लैंडस्लाईड में यह माईन्स और आईईडी सड़कों और खेतों में आ जाते हैं, जिससे कई हादसे होते हैं। उनका खेत बॉर्डर के पास ही, उनके साथ यह हादसा खेत में काम करते वक्त हुआ।

शाहीन अख्तर के साथ हादसा 2002 में हुआ, उनकी एक टांग काटनी पड़ी। वो बताती हैं कि लैंडमाईन कहां है इसकी जानकारी उन्हें नहीं थी। इसको लेकर आर्मी कोई संकेतक नहीं लगाती। अगर कहीं चेतावनी लिखी भी हो तो अंग्रेज़ी या हिंदी में होने की वजह से इसे पढ़ना मुश्किल होता था। अब उर्दू में चेतावनी लिखी जाती है।

लैंडमाईन (Landmine Issue in Jammu and Kashmir) से घायल लोगों के इलाज को लेकर कोई पॉलिसी सरकार की ओर से नहीं बनाई गई है। घायलों को ज्यादातर मामलों में अपना इलाज खर्च खुद ही उठाना होता है। यह आर्मी में अपनी गुडविल में ज़रुर लोगों की मदद करती है। शकील अहमद आर्मी के साथ ही काम करते थे जब उनके साथ यह हादसा हुआ। माईन ब्लास्ट में उनके पैर में चोट लगी। सारा ईलाज का खर्च आर्मी ने उठाया। लेकिन वो शिकायत भी करते हैं कि हादसे के बाद वो काम नहीं कर सकते। सरकार की ओर से 1000 रुपए पेंशन मिलती है, जिससे घर का खर्च चलाना मुमकिन नहीं होता।

करमारा तो एक गांव है, सरहद से लगे ऐसे कई गांव हैं जहां लैंडमाईन ब्लास्ट की वजह सिविलियन कैज़ुअल्टी हुई है। इसका अगर एक आधिकारिक आंकड़ा रिकॉर्ड किया जाएगा तो एक पॉलिसी के तहत पीड़ितों को फायदा पहुंच सकता है। जिन पीड़ितों के हाथ या पैर में चोट होती है उनका पूरा जीवन दूसरों पर निर्भर हो जाता है। गरीबी में गुज़र बसर कर रहे लोग कमाई को कोई साधन न रहने की वजह से और गरीब होते चले जाते हैं।

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  • Climate journalist and visual storyteller based in Sehore, Madhya Pradesh, India. He reports on critical environmental issues, including renewable energy, just transition, agriculture and biodiversity with a rural perspective.

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