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उज्जैन की क्षिप्रा नदी में बेइंतहा प्रदूषण के क्या हैं कारण?

उज्जैन की क्षिप्रा नदी में बेइंतहा प्रदूषण के क्या हैं कारण?
उज्जैन की क्षिप्रा नदी में बेइंतहा प्रदूषण के क्या हैं कारण?

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क्षिप्रा मध्यप्रदेश की बहुत ही पावन नदी मानी जाती है जो अपना इतिहास मौर्यकालीन अभिलेखों, और जैन ग्रंथों में पाती है। क्षिप्रा भारतवर्ष की उन चुनिंदा 4 नदियों में से है जिनके तट पर हर 12 वर्ष में कुंभ का मेला लगता है। लेकिन क्षिप्रा की ये सभी पहचानें अब धूमिल होती जा रही हैं, और इन दृश्यों की जगह मैले बदबूदार पानी, और मरी हुई मछलियों ने ले ली है। क्षिप्रा की परिधि में फैले उद्योग, और शहरवासियों के मल बेधड़क क्षिप्रा को मैला कर रहे हैं। आइये संक्षेप में समझते हैं क्षिप्रा और उसकी दुर्दशा की कहानी। 

लगातार बिगड़ती जा रही है क्षिप्रा की स्थिति 

कुल 195 किलोमीटर लंबी क्षिप्रा उज्जैन से 11 किलोमीटर दूर कोकरी-टेकड़ी से उद्गम लेने के बाद 93 किलोमीटर तक उज्जैन में बहती है। इसके बाद क्षिप्रा रतलाम, मंदसौर होते हुए चंबल में मिल जाती है। इसके बाद चंबल मालवा की इन नदियों को अपने साथ लेकर इटावा में मुरादगंज के पास यमुना में मिल जाती है। 

यूं तो क्षिप्रा की कई सहायक नदियां थीं जो कि अब नाले में परिवर्तित हो चुकी हैं। लेकिन कान्ह  और गंभीर क्षिप्रा की प्रमुख सहायक नदियां हैं। इंदौर से 11 किलोमीटर दक्षिण में स्थित उमरिया गांव की पहाड़ी से निकलकर कान्ह नदी क्षिप्रा से उज्जैन में मिलती है। इसके अलावा महू की जानापाव पहाड़ी से निकलकर गंभीर नदी महीदपुर में क्षिप्रा से मिलती है। मध्यप्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के हालिया आंकड़ों के मुताबिक इन तीनों नदियों की स्थिति बेहद चिंताजनक है। 

क्षिप्रा की मुख्य समस्याएं प्रदूषण और उसका संकरा होता जल ग्रहण क्षेत्र है। कुछ दस्तावजों के अनुसार क्षिप्रा की स्थिति 1996 के बाद बिगड़नी शुरू हुई, और ये अभी तक बिगड़ती ही चली आ रही है। बारामासी नदी क्षिप्रा का पानी अब बरसात के 6-8 महीने बाद ही सूख जाता है, और यह नदी तालाब में बदल जाती है। इसका प्रमुख कारण औद्योगिक कचरा, और नगर निगम के द्वारा सीवेज को नदी में छोड़ा जाना है।

निकायों की अक्षमता और क्षिप्रा में मिलता मल 

बीते सालों में सीएजी (CAG) ने क्षिप्रा की लगातार गिरती हालत पर एक ऑडिट किया था। इस ऑडिट में सीएजी ने पाया कि उज्जैन और आलोट का अपना कोई सिटी सैनटाइजेशन प्लान नहीं है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण उज्जैन स्मार्ट सिटी की वेबसाइट से मिल जाता है। इस वेबसाइट में एसटीपी (सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट) के प्लान की जगह ‘परिकल्पना’ मात्र है। 

देवास, आलोट, महिदपुर, और सांवेर के पास मल उपचार के उपयुक्त कार्यक्रम नहीं उपलब्ध था। इस वजह से 2021 तक नालों से बहकर 2,35,861.29 एमएल सीवेज क्षिप्रा में मिला है।

ऑडिट में पाया गया इंदौर के अलावा 5 निकाय (उज्जैन, सांवेर, देवास, महिदपुर, और आलोट) के पास मल और सेप्टेज के प्रबंधन की कोई नीति नहीं है। इन निकायों के पास मल को इकठ्ठा करने, उपचार करने, और इनके निस्तारण के लिए कोई ठोस कार्यक्रम नहीं है।

इसके अलावा इंदौर, उज्जैन, और देवास नगर निगम ने शहर के लिए कोई बेहतर सीवरेज नेटवर्क नहीं बनाया है। इन नगर निगमों ने अपने प्रदर्शन को बेहतर दिखाने के लिए एसएलबी (Service Level Benchmark) टारगेट बहुत बड़ा बना लिया, लेकिन ये इसका आधा भी हासिल नहीं कर पाए हैं।   

सीएजी की ऑडिट रिपोर्ट में पाया गया कि, क्षिप्रा के दायरे में 2016 से 2021 के दरमियान कुल 11,65,994 मिलियन लीटर (एमएल) शहरी सीवेज और 36,496.69 एमएल ग्रामीण सीवेज निकला है। 

इसमें से 3,67,451 एमएल सीवेज बिना उपचार के क्षिप्रा नदी और उसकी सहायक नदियों में विलीन हो गया है। यानी कुल 835,039.69 एमएल सीवेज बिना उपचार किये ही क्षिप्रा में छोड़ दिया गया है। ये मात्रा क्षिप्रा पर निर्भर आबादी, और क्षिप्रा में पल रहे जलीय जीवों के स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है। 

साल 2024 में ही कई बार खबरें आ चुकी हैं कि दूषित जल के कारण क्षिप्रा के घाटों में कई मछलियां मरी हुई मिलीं। मई में ही क्षिप्रा के नरसिंह घाट और गऊ घाट में सैकड़ों मछलियां मरी मिलीं थीं। उस दौरान कांग्रेस के लोकसभा प्रत्याशी महेश परमार इस घटना का विरोध जताते हुए डुबकी भी लगाई थी। लेकिन अब भी क्षिप्रा की स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है। पिछले दिनों ही क्षिप्रा से मरी हुई मछलियों की तस्वीरें सामने आईं थी, जो बयान करतीं है कि क्षिप्रा कि स्थिति यथावत है। 

उद्योगों की लापरवाहियां और क्षिप्रा की दुर्दशा 

क्षिप्रा के पूरे क्षेत्र में तकरीबन 2,844 ऐसे उद्योग हैं जो पानी का उपभोग करते हैं। इन उद्योगों से निकलने वाले जहरीले औद्योगिक अपशिष्ट पानी को दूषित करते हैं। यह पानी कई बार बिना उपचार के और सीमित उपचार के ही छोड़ दिया जाता है। सीएजी के ऑडिट में पाया गया है कि उद्योगों द्वारा छोड़ा गया अनुपचारित जल क्षिप्रा और भूजल दोनों की खराबी का जिम्मेदार है। 

2019 में एनजीटी के आदेश के बाद केंद्रीय प्रदूषण कंट्रोल बोर्ड ने सभी राज्य प्रदूषण कंट्रोल बोर्ड को आदेश दिया था कि वे सभी उद्योगों की लगातार निगरानी रखें। लेकिन इसके बाद एमपीपीसीबी द्वारा सिर्फ 34 फीसदी निरिक्षण ही किये गए। 

चवालीस फीसदी उद्योगों ने अपनी जल निकासी की रिपोर्ट एमपीपीसीबी को नहीं दी। इन सभी उद्योगों में से मात्र 5 फीसदी उद्योग ही ऐसे थे जहां वाटर मीटर लगे हुए थे। 

एमपीपीसीबी ने क्षिप्रा के 13 स्टेशनों में मॉनिटरिंग की। इन 13 में से सिर्फ 1 स्टेशन की पानी की गुणवत्ता ‘A’ श्रेणी की थी वो भी सिर्फ एक साल (2020-21) के लिए। इससे इतर बांकी के 12 स्टेशन के पानी की गुणवत्ता ‘C/D/E’ की, जिसका अर्थ है की यह पानी नहाने के लायक भी नहीं है। 

एनजीटी के आदेश की नाफरमानी 

क्षिप्रा नदी में होने वाले प्रदूषण को लेकर अधिवक्ता सचिन दवे ने एनजीटी में एक याचिका लगाई थी। इस याचिका पर न्यायाधीश शिवकुमार सिंह एवं डॉ. अफरोज अहमद की खंडपीठ ने अक्टूबर 2023 में अपना आदेश दिया था। इस आदेश में निर्देशित किया गया था कि क्षिप्रा नदी के संरक्षण की निगरानी की जिम्मेदारी अधिकारियों पर है। 

नदियों के संरक्षण एवं पुनर्जीवन हेतु औद्योगिक एवं घरेलू कचरे को नदियों के जल में मिलने से रोकने के लिए बड़े कदम उठाने की जरुरत है। इन निर्देशों में औद्योगिक अपशिष्ट के उपचार की मॉनिटरिंग, अपशिष्ट प्रबंधन के लिए जरूरी तकनीक उपलब्ध कराने की बात थी। 

भूमि विकास नियम 2012 के नियम 7 के अनुसार  क्षिप्रा के बाढ़ क्षेत्र के 200 मीटर और कान्ह के बाढ़ क्षेत्र के 30 मीटर के दायरे में किसी भी प्रकार का निर्माण वर्जित है। लेकिन इसके बाद भी कान्ह के क्षेत्र में 15 ऐसे स्थान हैं जहां नदी के बाढ़ क्षेत्र में निर्माण हुआ है। इसके अलावा क्षिप्रा के क्षेत्र में अतिक्रमण के 7 क्लस्टर पाए गए हैं।  

अक्टूबर 2023 के एनजीटी के आदेश में क्षिप्रा के बाढ़ क्षेत्र का अतिक्रमण हटाने के साथ इसका सीमांकन करना शामिल था। लेकिन अब तक इसमें कोई उचित कार्रवाई नहीं की गई है। 

ग्राउंड रिपोर्ट से बात करते हुए अधिवक्ता सचिन दवे ने कहा कि,

किसी नदी की स्थिति को सुधारने के लिए नदी शुरू से अंत तक प्रयास करने की जरूरत होती है। लेकिन क्षिप्रा के विषय में सारे प्रयास उज्जैन के आलोक में किये गए हैं और अल्पकालिक हैं। 

उज्जैन के आखिरी बिंदु केडी पैलेस के पास जाते-जाते क्षिप्रा इतनी दूषित हो चुकी होती है कि इसका पानी लाल रंग का हो जाता है। दूषित जल के दुष्प्रभावों पर बात करते हुए सचिन ने बताया कि,

इस इलाके के लगभग 250 गांव इससे अपनी फसलों की सिंचाई करने को विवश हैं। इससे उनकी फसलें खराब होती हैं। फसलों के अलावा इसे खाने  से यहां के जानवरों, और इंसानों के स्वास्थ्य पर भी बुरा असर पड़ता है। यह एक बड़ा और गंभीर विषय है। 

क्षिप्रा में सुधार के लिए हालिया सरकारी प्रयास 

जून 2024 में ही मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव क्षिप्रा को साफ करने के लिए 598 करोड़ की कान्ह डायवर्जन ओपन डक्ट परियोजना का शुभारंभ किया था। इस परियोजना के द्वारा कान्ह के पानी को डक्ट के माध्यम से गंभीर की ओर डायवर्ट किया जाएगा। 

इस मौके मुख्यमंत्री ने कहा कि कान्ह का दूषित जल किसी भी प्रकार से क्षिप्रा के तटों तक नहीं आएगा। लेकिन इन सब के बाद भी एक मौलिक प्रश्न जस का तस बना हुआ है, की शहर निकलने वाले प्रदूषकों के निपटान की योजना क्या है?

क्षिप्रा का दूषित जल और उसमें मरी हुई मछलियों की तस्वीरें प्रशासन के अब तक के क्षिप्रा सुधार के दावों, और स्वच्छता की रैंकिंगों की बखिया उधेड़ रही हैं। अब आने वाले सिंहस्थ तक क्षिप्रा के लिए हो रहे सरकारी-गैर सरकारी प्रयासों की क्या परिणति होगी यह समय आने पर ही पता चलेगा।

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  • Journalist, focused on environmental reporting, exploring the intersections of wildlife, ecology, and social justice. Passionate about highlighting the environmental impacts on marginalized communities, including women, tribal groups, the economically vulnerable, and LGBTQ+ individuals.

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