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अवनालिका अपरदन: भारत का बढ़ता पर्यावरणीय संकट

अवनालिका अपरदन: भारत का बढ़ता पर्यावरणीय संकट
अवनालिका अपरदन: भारत का बढ़ता पर्यावरणीय संकट

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सीबीएसई बोर्ड की कक्षा 5 की पर्यावरण की किताब बच्चों को बहुत ही आसान और स्पष्ट भाषा में बताती है कि मिट्टी क्या है, मिट्टी का कटना क्या होता है और इसके दुष्परिणाम क्या है। हमारी स्कूली किताबों में यह भी बताया गया था की कैसे नदी जब किसी जंगल के बीच से गुजरती है तो इसका प्रवाह नियंत्रित होता है और यह मिट्टी को नहीं काटती है। हमारी कक्षाएं आगे बढ़ती हैं और मिट्टी के कटाव को नया नाम मिलता है, ‘मृदा अपरदन’। कक्षाओं के बढ़ने के साथ ही मृदा अपरदन के प्रकार भी स्पष्ट होते जाते हैं। 

मृदा अपरदन का ही एक प्रकार है ‘अवनालिका अपरदन‘ (Gully Erosion)। चंबल के क्षेत्र में गली इरोजन की वजह से ही एक विशेष भू आकृति का निर्माण हुआ, जो बाद में इस क्षेत्र का पूरक बन गया, बीहड़। इसी गली इरोजन को लेकर हाल ही में एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई है जिसके नतीजे चिंताजनक हैं। इस रिपोर्ट के मुताबिक देश के 20 राज्य (दिल्ली एनसीआर को मिलाकर) इसके शिकार हैं. मध्य प्रदेश इन राज्यों की सूची में तीसरे स्थान पर है। 

क्या होता है गली इरोजन 

गली इरोजन मृदा अपरदन का एक गंभीर रूप है। इसमें सतह में बहता हुआ जल मिट्टी की ऊपरी परत को हटाते जाता है और गहरी नालियां बना देता है। यह प्रक्रिया मुख्य रूप से खड़ी ढलानों और अपर्याप्त वनस्पति वाले क्षेत्रों में होती है। इस प्रक्रिया से भूमि का महत्वपूर्ण क्षरण होता है, उपजाऊ मिट्टी का नुकसान होता है। साथ ही कटी हुई मिट्टी के कहीं और जमा होने से वहां जल प्रदूषण की समस्याएं भी आतीं हैं। 

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मध्य प्रदेश के 15% जिलों में गंभीर अवनालिका अपरदन को नियंत्रित करने के लिए तत्काल कदम उठाने की आवश्यकता है। Photo credit: Ground Report

गली इरोजन के कई चरण होते हैं। सबसे पहले छोटी नालियां, या गली चैनल का निर्माण होता है। यह चैनल तब बनते हैं जब पानी का प्रवाह केंद्रित होता है। यह मिट्टी का कटाव करता है और इसे अन्यत्र जमा करता है। इसकी वजह से जलमार्गों में रुकावट आती है और पानी की गुणवत्ता कम हो जाती है।अपरदन के दूसरे चरण में ये सिस्टम और गहरे और चौड़े होते जाते हैं। जब यह प्रक्रिया चलती रहती है तब जमीन की उपजाऊ मिट्टी कट कर कहीं दूर जा चुकी होती है। अंततःक्षेत्र में बस अपरदित (सेडीमेंट्री) चट्टानों की पथरीली बंजर भूमि बचती है, जिसे बैडलैंड या बीहड़ कहते हैं। चंबल के किनारे बसा उत्तरी मध्यप्रदेश का इलाका और यमुना घाटी में बसा दक्षिण पूर्वी राजस्थान का हिस्सा ऐसे बीहड़ों का उदाहरण है। 

देश और मध्य प्रदेश में गली इरोजन की स्थिति 

भारत में गली इरोजन की समस्या लंबे समय से चिंता का विषय रही है। लेकिन भारत में इसकी स्पष्ट स्थिति को लेकर कोई समेकित डाटा उपलब्ध नहीं था। बीते दिनों ही नेचर नाम की संस्था ने एक वैज्ञानिक रिपोर्ट प्रकाशित की है। यह रिपोर्ट, ‘गली इरोजन इज़ अ सीरियस ऑब्स्टेकल इन इंडिआस लैंड डिग्रेडेशन न्यूट्रैलिटी मिशन‘  शीर्षक से प्रकाशित हुई है। इस रिपोर्ट को गूगल अर्थ प्रो से ली गई हाई रेजोल्यूशन सैटेलाइट इमेज के आधार पर तैयार किया गया है।

इस रिपोर्ट में की गई मैपिंग के निष्कर्षों से पता चलता है कि भारत का 28 राज्यों में से 19 और दिल्ली के राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में गली अपरदन की विशेषताएं मौजूद हैं। इन 20 राज्यों के 286 जिलों में, कुल 51,755 जगहें पहचानी गई हैं जहां गली अपरदन की मौजूदगी है। इनमें से 48,356 गली चैनल्स, 2,567 बैडलैंड्स और 832 वृक्षहीन पहाड़ी ढलान (denuded hillslopes) शामिल हैं। 

हालांकि नतीजों में गली सिस्टम की मौजूदगी सबसे अधिक आम हैं, जो बताता है कि भारत में कई स्थानों में गली इरोजन अपने पहले चरण में है। लेकिन अगर क्षेत्रफल के आधार पर देखा जाए तो बैडलैंड्स यानि बीहड़ 5,714 वर्ग किलोमीटर के साथ सबसे बड़े क्षेत्रफल को कवर करते हैं। अगर इसे समूचे भारत के संदर्भ में देखा जाए तो पूर्वी भारत में गली सिस्टम और पश्चिमी भारत में बीहड़ों की प्रमुखता है। 

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अवनालिका अपरदन से भारत की भूमि को खतरा है, जिससे मिट्टी, पानी और कृषि पर असर पड़ रहा है। photo credit: Ground Report

हालांकि इस अपरदन से प्रभावित क्षेत्र भारत के कुल क्षेत्र का केवल 0.24% है। लेकिन राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, झारखंड, गुजरात और छत्तीसगढ़ राज्यों में इसका गंभीर प्रभाव देखा गया है।  ये सभी राज्य सामूहिक रूप से भारतीय क्षेत्रफल का लगभग 38 प्रतिशत हिस्सा रखते हैं। लेकिन देश के कुल गली इरोजन प्रभावित क्षेत्रों में इन राज्यों का सामूहिक हिस्सा देखा जाए तो यह 92 फीसदी के करीब पहुंच जाता है। ये आंकड़े सीधे तौर पर स्पष्ट करते हैं कि पूर्वी, पश्चिमी और मध्य भारत बुरी तरह से गली इरोजन की चपेट में है। 

रिपोर्ट में भारत के 77 ऐसे जिलों की पहचान की गई है जहां गली इरोजन प्रबंधन को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। यहां प्राथमिकता से तात्पर्य है कि इन स्थानों में अगर जल्द ही प्रबंधनात्मक कदम नहीं उठाए गए तो स्थिति और भी गंभीर हो जाएगी। 

बैडलैंड्स की व्यापकता के कारण, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के 10 जिलों को बहुत उच्च और उच्च अवनालिका प्रबंधन की प्राथमिकता दी गई है। हालांकि इन क्षेत्रों में लंबे समय से भूमि पुनर्वास कार्य चल रहे हैं। लेकिन, उच्च प्राथमिकता वाले 60% से अधिक जिले पूर्वी भारत में स्थित हैं।

मध्य प्रदेश में अवनालिका अपरदन

भारत में राजस्थान और उत्तर प्रदेश के बाद मध्य प्रदेश गली इरोजन से सबसे ज़्यादा प्रभावित है। इस समस्या से ग्रस्त जिलों में आम तौर पर प्रदेश के पूर्वी और उत्तरी जिले प्रमुख हैं। 

अगर रिपोर्ट में पेश मैपिंग को आधार मानें तो प्रदेश का ऐसा कोई भी हिस्सा नहीं है जहां किसी न किसी मात्रा में गली इरोजन की समस्या न हो। मध्यप्रदेश का कुल 1728 से 1745.54 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र गली इरोजन से प्रभावित है।

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मध्य प्रदेश में अवनालिका अपरदन। स्त्रोत: Nature.com

रिपोर्ट में अपरदन को कई श्रेणियों में बांटा गया है। यहां लो केटेगरी से आशय है, जहां अपरदन की प्रक्रिया अभी शुरू हुई है और गलियां (अवनालिकाऐं) बन रही हैं। दूसरी कैटेगेरी मॉडरेट है, जहां गलियां विकसित हो चुकी हैं। तीसरी कैटेगेरी हाई है, जहां ये सभी गली सिस्टम्स गहरे और चौड़े हो चुके हैं। और आखिरी कैटेगरी वैरी हाई है, जहां बीहड़ों का निर्माण हो चुका है। 

 मध्यप्रदेश के श्योपुर, छिंदवाड़ा, सिवनी, पन्ना, दमोह, इत्यादि जिले गली इरोजन से मध्यम स्तर (moderate) पर प्रभावित हैं। वहीं मंडला, सीधी और सतना जिलों में इसका अधिक (high) प्रभाव है। दूसरी ओर प्रदेश के भिंड, मुरैना, और शहडोल जैसे जिले गली इरोजन से अत्यधिक (very high) प्रभावित हैं। 

अगर मध्य प्रदेश में गली इरोजन के प्रबंधन की बात करें तो प्रदेश के 15% जिलों में स्थिति इतनी गंभीर है कि इनका प्रबंधन उच्च प्राथमिकता (high priority) पर किया जाना चाहिए। वहीं 57 फीसदी जिलों में यह समस्या शुरूआती चरण यानि गली सिस्टम कि स्थिति पर है। लेकिन रिपोर्ट यह निष्कर्ष देती हैं मध्यप्रदेश में इस समस्या का प्रबंधन दोहरी चुनौतियों से गुजर रहा है। एक ओर मध्य प्रदेश जिन बीहड़ों के लिए कुख्यात है, उसके प्रबंधन और पुनर्वास के लिए कई प्रयास भी किये गए हैं जिनके नतीजे सीमित ही रहे हैं। वहीं दूसरी ओर मध्य प्रदेश के कई पूर्वी जिलों में गली सिस्टम के प्रबंधन पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जा रहा है।  

भारत में सीमित अवनालिका प्रबंधन

गली इरोजन के प्रभावी प्रबंधन में कई रणनीतियों का संयोजन शामिल है। इसमें भूमि कवर में सुधार करके अपवाह को कम करना और मिट्टी और जल संरक्षण उपायों को लागू करना शामिल है। इसमें चेक डैम और जल निकासी चैनल जैसे संरचनात्मक उपाय भी किये जाते हैं जल प्रवाह को नियंत्रित कर सकते हैं।  जबकि घास और पेड़ लगाने विधियां मिट्टी को स्थिर करने में मदद करती हैं। दीर्घकालिक गली इरोजन के नियंत्रण के लिए सामुदायिक भागीदारी और टिकाऊ भूमि-उपयोग जैसे उपाय भी आवश्यक है।

रिपोर्ट बताती है कि 48,356 गली सिस्टम में से मात्र 65.4 फीसदी ही प्रबंधित हैं, और 64.5 फीसदी  वृक्षहीन पहाड़ी ढलान आंशिक रूप से बहाल किए गए हैं। वहीं, 96.5 फीसदी  बैडलैंड्स में पुनर्वास कार्य चल रहे हैं। कुल मिलाकर सभी मैप किए गए अपरदन क्षेत्रों का लगभग एक-तिहाई अप्रबंधित है, जिनमें से अधिकांश (98%) गली सिस्टम हैं। 

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मध्य प्रदेश अवनालिका अपरदन से तीसरा सबसे अधिक प्रभावित राज्य है। Photo credit: Ground Report 

भारत में गली इरोजन के क्षेत्रों के प्रबंधन में स्पष्ट क्षेत्रीय अंतर है। इसमें पूर्वी भारत में अप्रबंधित गली इरोजन अधिक है। पश्चिमी और मध्य भारत में बैडलैंड्स क्षेत्र बड़े हैं। लेकिन मध्य प्रदेश के कई पूर्वी जिलों और बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडिशा और पश्चिम बंगाल में गली प्रणालियों के प्रबंधन की चिंताजनक कमी आंकी गई है। इसकी मिसाल यह है कि, पूर्वी क्षेत्र के 80 जिलों में, पहचानी गई गली इरोजन क्षेत्रों का एक-चौथाई से अधिक हिस्सा प्रबंधित नहीं है।

रिपोर्ट में भारत के 77 ऐसे जिलों की पहचान की गई है जहां गली इरोजन प्रबंधन को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। बैडलैंड्स की व्यापकता के कारण, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के 10 जिलों को बहुत उच्च और उच्च अवनालिका प्रबंधन की प्राथमिकता दी गई है। हालांकि इन क्षेत्रों में लंबे समय से भूमि पुनर्वास कार्य चल रहे हैं। लेकिन, उच्च प्राथमिकता वाले 60% से अधिक जिले पूर्वी भारत में स्थित हैं। रिपोर्ट में प्रस्तुत विश्लेषण से पता लगता  है कि पूर्वी भारत में गली अपरदन बैडलैंड्स की तुलना में अधिक चिंताजनक है और इस पर तत्काल प्रभावी कदम उठाने की जरूरत है। 

अवनालिका प्रबंधन और भारत की भूमि संरक्षण की प्रतिबद्धता 

यूं तो गली इरोजन के कई गंभीर नतीजे हमारे समाज और पर्यावरण पर पड़ते हैं। इससे मिट्टी की गुणवत्ता बिगड़ती है, मिट्टी में कार्बन और भारी धातुओं का भंडारण घटता है, बायोमास में कमी आती है और फसलों की पैदावार कम होती है। इसके अलावा, पानी की गुणवत्ता खराब होती है, जलाशयों की भंडारण क्षमता घटती है, और जल प्रवाह की प्रणाली बदल जाती है। गली इरोजन से भूमि उपयोग में बड़े बदलाव आते हैं, अन्य क्षरण प्रक्रियाओं और भूस्खलन की समस्या बढ़ती है, और लंबे समय में बंजर भूमि का निर्माण हो जाता है। जलवायु परिवर्तन के साथ यह समस्या और बढ़ रही है, जिससे मनुष्यों के जीवन, और रोजी-रोटी को सीधा खतरा है।

दूसरी ओर भारत, यूएनसीसीडी (UN Convention to Combat Desertification) के तहत भू क्षरण तटस्थता (Land Degradation Neutrality) वर्ष 2030 तक हासिल करने के लिए प्रतिबद्ध है। वहीं दूसरी ओर गली इरोजन मिट्टी के क्षरण का सबसे बड़ा कारण है। इसकी मिसाल चंबल क्षेत्र में 2022 में हुए शोध से ली जा सकती है। यह शोध बताता है कि चंबल क्षेत्र में 1 साल के भीतर एक हेक्टेयर क्षेत्र में तकरीबन 284 टन मिट्टी का कटाव हो जाता है। 

भूमि प्रबंधन संयुक्त राष्ट्र के एसडीजी (सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल) से भी जुड़ा हुआ है। एसडीजी के 17 में 9 लक्ष्य बिना भूमि प्रबंधन के नहीं प्राप्त किये जा सकते। इनमे जीरो हंगर, साफ़ पानी, क्लाइमेट एक्शन, और जल और धरती में जीवन जैसे महत्वपूर्ण लक्ष्य शामिल हैं, जो कि बिना भूमि क्षरण रोके नहीं पाए जा सकते। 

ये 9 लक्ष्य बिना भूमि की गुणवत्ता सुधारे नहीं प्राप्त किये जा सकते हैं। क्यूंकि अगर गली इरोजन जारी रहा तो भूमि गुणवत्ता नहीं सुधरेगी। बिना उपजाऊ भूमि के न बेहतर उत्पादकता नहीं होगी और जीरो हंगर के लक्ष्य से दूरी बनी रहेगी। बिना गली इरोजन के रोकथाम के जल, विशेषतः साफ़ जल की उपलब्धता पर प्रश्न चिन्ह लगा रहेगा। बिना गली इरोजन को रोके न तो भूमि क्षरण को रोका जा सकता है, न ही एसडीजी लक्ष्यों को पाया जा सकता है। इस संदर्भ में रिपोर्ट कहती है कि,

भारत को 2030 तक एलडीएन को सफलतापूर्वक प्राप्त करने के लिए दोहरी समस्या से निपटना होगा। भारत को बैडलैंड्स  का उचित पुनर्वास और प्रभावी गली इरोजन  निवारण करना होगा।

भारत में बीहड़ों की समस्या आज की समस्या नहीं है, बल्कि यह मुद्द्तों से चली आ रही है। आज हमारे देश में बीहड़ तो मौजूद ही हैं लेकिन उनके साथ कई ऐसे क्षेत्र सामने आ गए हैं जो बीहड़ बनने की प्रक्रिया के पहले-दूसरे चरण पर खड़े हैं। बकौल रिपोर्ट इन क्षेत्रों का पर्याप्त प्रबंधन भी नहीं किया जा रहा है। मिट्टी का कटाव, वृक्षारोपण इत्यादि हमारे स्कूली पाठ्यक्रम का हिस्सा रहा है। लेकिन आजादी के इतने वर्षों के बाद भी ये समस्या न सिर्फ बनी हुई है, बल्कि और गंभीर होती जा रही है। ये सभी तर्क बताते  हमने अपने स्कूलों में पढ़ाए गए पाठ भुला दिए हैं। साथ ही जो सुधारात्मक उपाय समय पर उठाए जाने चाहिए थे वो नहीं उठाए गए हैं।

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  • Journalist, focused on environmental reporting, exploring the intersections of wildlife, ecology, and social justice. Passionate about highlighting the environmental impacts on marginalized communities, including women, tribal groups, the economically vulnerable, and LGBTQ+ individuals.

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