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जब बर्तन बिकेंगे, तब खाने का इंतजाम होगा लोहार समुदाय के संघर्ष और अस्तित्व की कहानी

जब बर्तन बिकेंगे, तब खाने का इंतजाम होगा लोहार समुदाय के संघर्ष और अस्तित्व की कहानी
जब बर्तन बिकेंगे, तब खाने का इंतजाम होगा लोहार समुदाय के संघर्ष और अस्तित्व की कहानी

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अरावली की पहाड़ियों के बीच बसा अजमेर, राजस्थान की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक धरोहरों में अपनी एक खास जगह रखता है। यह शहर केवल ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि धार्मिक रूप से भी श्रद्धालुओं के लिए विशेष आकर्षण रखता है। यहां ब्रह्मा जी का इकलौता मंदिर पुष्कर में स्थित है, वहीं ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह अजमेर को आध्यात्मिकता का केन्द्र बनाती है। हर साल यहां लगने वाले पुष्कर मेले और उर्स के दौरान श्रद्धालुओं की भारी भीड़ उमड़ती है, जिससे स्थानीय व्यवसायियों को अच्छी कमाई का अवसर मिलता है। इन्हीं व्यवसायियों में लोहार समुदाय के वे परिवार भी शामिल हैं, जो लोहे और एल्युमिनियम के बर्तनों को बेचकर अपनी रोजी-रोटी कमाते हैं। 

इन्हीं में एक 70 वर्षीय कमला गड़िया है जो अपनी बेटी आशा के साथ दरगाह जाने वाली सड़क के किनारे बर्तनों की छोटी-सी दुकान लगाती है। उनके लिए यह केवल एक व्यवसाय नहीं है, बल्कि पीढ़ियों से चला आ रहा पारंपरिक काम भी है। जिसे वह अपनी अगली पीढ़ी तक पहुंचाना चाहती हैं। कमला बताती हैं कि, “करीब 200 सालों से हमारा परिवार यही काम कर रहा है। पहले मेरे ससुर और फिर मेरे पति ने इसे संभाला. उनके गुजरने के बाद यह दुकान मेरे हिस्से में आई और अब मैं इसे अपनी बेटी को सौंपना चाहती हूं।” 

पीढ़ी के कामों को आगे बढ़ाती 70 वर्षीय कमला गड़िया Photograph: (Charkha feature)

कमला की दुकान पर लोहे के कड़ाही, चिमटे, तवे और अन्य परंपरागत रसोई के बर्तन मौजूद हैं। वहीं अब उनकी दुकान पर एल्युमिनियम के बर्तन भी हैं, जो लोहे से ज्यादा बिकते हैं। वह कहती हैं, “पहले घरों में लोहे के बर्तनों का बहुत चलन था, लेकिन अब लोग नॉन-स्टिक और स्टील के बर्तन ज्यादा पसंद करने लगे हैं। यह लोहे की अपेक्षा हल्का भी होता है. इसकी वजह से हमारे लोहे के काम पर बहुत असर भी पड़ा है। हमें रोजी रोटी के लिए लोहे के साथ साथ एल्युमिनियम के बर्तन भी रखने पड़ते हैं।”

पेट की आग बुझाने के लिए लोहे को आग में तपाते केसर Photograph: (Charkha feature)

 कमला की 33 वर्षीय बेटी आशा भी अपनी मां के साथ दुकान पर बैठती है। छह साल पहले पति की मौत के बाद वह अपने तीन बच्चों के साथ मां के पास ही आ गई। बचपन से ही उसने पिता के साथ इस काम में हाथ बंटाना शुरू कर दिया था। आज उसे बर्तन बनाने और बेचने दोनों का अच्छा अनुभव है। लेकिन बाजार के बदलते रुख ने उनकी कमाई को सीमित कर दिया है। आशा बताती है, “अब पहले जैसे ग्राहक नहीं आते हैं. दिनभर में मुश्किल से दो-तीन बर्तन ही बिकते हैं, जिससे 600-700 रुपये तक ही कमाई हो पाती है। लोग मोल-भाव भी बहुत करते हैं, जिससे सामान को लगभग लागत मूल्य पर ही बेचना पड़ता है.” लेकिन कुछ विशेष मौकों पर उनकी बिक्री बढ़ जाती है। 

आशा कहती है, “पुष्कर मेला और उर्स के दौरान जब ग्रामीण इलाकों से लोग आते हैं, तब थोड़ी अच्छी कमाई हो जाती है क्योंकि गांवों में आज भी लोहे के बर्तन में खाना पकाने को प्राथमिकता दी जाती है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि साल भर में जितने बर्तन बिकते हैं, उतने अकेले इन मेलों में ही बिक जाते हैं।” यह कहते हुए आशा की आंखों में चमक और चेहरे पर मुस्कुराहट को साफ पढ़ा जा सकता था। 

कमला और आशा की तरह, 60 वर्षीय केसर भी लोहे के बर्तन बनाने और बेचने का काम करते हैं। हालांकि उम्र के इस पड़ाव में उनकी सेहत जवाब देने लगी है. घुटनों में सूजन और लगातार बढ़ती थकान उनके लिए रोज़ का संघर्ष बन चुकी है। लेकिन उनके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है. पेट की आग बुझाने के लिए वह प्रतिदिन तपती भट्टी के सामने बैठकर हथौड़ा चलाने को मजबूर हैं। केसर के तीन बेटे हैं। सबसे बड़े बेटे की मृत्यु हो चुकी है, और उसके परिवार की ज़िम्मेदारी भी उन्हीं के कंधों पर आ गई है. बाकी दो बेटे मजदूरी करते हैं और अलग रहते हैं। 

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पेट की आग बुझाने के लिए लोहे को आग में तपाते केसर Photograph: (Charkha feature)

वह कहते हैं, “पहले की तरह अब लोहे के बर्तनों में कुछ कमाई नहीं रही, लेकिन पीढ़ियों से हमारा यही काम है, इसलिए करता हूं। न तो मेरे पास जमीन है कि खेती करूं और न ही मुझे कोई दूसरा रोजगार करने आता है।” हालांकि गर्व से अपने इतिहास को याद करते हुए केसर बताते हैं, “हमारे पूर्वज महाराणा प्रताप के सैनिकों के लिए कवच, ढाल, तलवार और अन्य युद्धक सामान बनाया करते थे। लेकिन जब वह ज़रूरत ख़त्म हो गई, तो हम लोहे से बर्तन बनाने लगे. लेकिन अब इसकी भी मांग लगभग नहीं के बराबर रही। कई बार मेरा पूरा दिन ग्राहकों के इंतज़ार में बीत जाता है, और कोई सामान नहीं बिकता है।”

केसर बताते हैं कि अब 120 रुपये किलो लोहा खरीदना पड़ता है। पहले वे खुद इसे बर्तन का आकार देते थे, लेकिन अब इसके डिजाइन के लिए मशीनें आ गई है, जिसका खर्च उठाना आसान नहीं है। हालांकि वे भी कभी-कभी मशीन का सहारा लेते हैं, लेकिन इससे उनकी लागत बढ़ जाती है और मुनाफ़ा घट जाता है। वह कहते हैं कि “एक कड़ाही बेचने में मुश्किल से दस रुपये का फायदा होता है, जबकि एल्युमिनियम के बर्तनों में कमाई थोड़ी ज्यादा हो जाती है, क्योंकि कच्चा माल खरीदकर हम इसे खुद ही इसे तैयार कर लेते हैं।” वह बताते हैं कि अब लोग लोहे के बजाय हल्के और चमकदार एल्युमिनियम के बर्तनों को पसंद करने लगे हैं। हालांकि कृषि और बागवानी के कामों के लिए अभी भी लोहे के औजारों की मांग होती है, लेकिन वह भी बहुत कम हो गया है। 

लोहे के बर्तन बनाना लोहार समुदाय के लिए केवल एक व्यवसाय नहीं, बल्कि उनकी पहचान और अस्तित्व का प्रतीक है। लेकिन बदलते समय के साथ उनके लिए रोज़ी रोटी चलाना मुश्किल होता जा रहा है। नयी तकनीक, सस्ते विकल्प और बदलते उपभोक्ता व्यवहार ने उनके पारंपरिक काम को संकट में डाल दिया है। कमला, आशा और केसर जैसे कई परिवार इसी उधेड़बुन में हैं कि उनके बच्चों का भविष्य क्या होगा? बर्तनों की बिक्री उनके पेट भरने का एकमात्र साधन है। जब बर्तन बिकते हैं, तभी उनके घरों में चूल्हा जलता है, तभी बच्चों की पढ़ाई और परिवार का गुजारा संभव होता है। 

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नॉन स्टिक पैन की डिमांड ने लोहे के सामान की जरूरत को कम कर दिया है Photograph: (Charkha feature)

 लेकिन बाजार में धुंधली होती उनकी पहचान ने उन्हें चिंता में डाल दिया है, लेकिन इस कठिन परिस्थिति में भी उनकी उम्मीदें कायम है। उनके हथौड़े की चोटें, उनकी मेहनत और संघर्ष की गूंज हमें यह एहसास दिलाती है कि मेहनतकश हाथ कभी हार नहीं मानते हैं। उनके लिए हर नया दिन एक नई उम्मीद लेकर आता है कि उनके बर्तन बिकते रहेंगे और परिवार का चूल्हा जलता रहेगा। 

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  • Journalist, focused on environmental reporting, exploring the intersections of wildlife, ecology, and social justice. Passionate about highlighting the environmental impacts on marginalized communities, including women, tribal groups, the economically vulnerable, and LGBTQ+ individuals.

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