...
Skip to content

पातालकोट: भारिया जनजाति के पारंपरिक घरों की जगह ले रहे हैं जनमन आवास

पातालकोट: भारिया जनजाति के पारंपरिक घरों की जगह ले रहे हैं जनमन आवास
पातालकोट: भारिया जनजाति के पारंपरिक घरों की जगह ले रहे हैं जनमन आवास

REPORTED BY

Follow our coverage on Google News

Read In English | छिंदवाड़ा से 78 किलोमीटर दूर, समुद्रतल से 3000 फीट की ऊंचाई पर स्थित पातालकोट, मध्य प्रदेश की वो घाटी है जहां भारिया और गोंड जनजाति के 2000 से अधिक लोग वास करते हैं। गहरी खाई, सतपुड़ा पर्वत श्रृंखलाओं और जंगलों से घिरा 12 जनजातीय गांवों का यह पाताल लोक कई वर्षों तक बाहरी दुनिया और उसकी संस्कृति से अछूता रहा। जनजातीय संस्कृति, आत्मनिर्भर जीवन जीने के प्राकृतिक तरीके यहां सदियों तक संरक्षित रहे। लेकिन अब यहां पक्की सड़क पहुंच चुकी है। पक्की सड़क के साथ यहां पहुंच रहा है बाज़ार, जो पातालकोट के सतरंगी जनजातीय जीवन को बाहरी दुनिया के फीके रंगों से बदलकर साधारण बना रहा है। 

छिंदवाड़ा से तामिया और फिर चिमटीपुर होते हुए जब हम पातालकोट के 21 घरों की बसाहट वाले कारेआंम गांव पहुंचे तो यहां हमारी मुलाकात 35 वर्षीय विनीता भारती से हुई। विनीता अपने चटक पीली दीवारों वाले भारिया जनजाति के पारंपरिक चित्रों से चित्रित घर के बगल में बन रहे लाल ईंट के घर की चौखट पर बैठी हैं। 

Vineeta Bharti Beneficiary of PM Janman Awas in Patalkot
अपने निर्माणधीन घर की देहरी पर बैठी विनीता भारती, Photograph: (Ground Report)

प्रधानमंत्री जनमन योजना के तहत उन्हें पक्का आवास बनाने के लिए ढाई लाख रुपए की सरकारी मदद मिली है। जैसे-जैसे यह घर बनेगा 5 किश्तों में यह राशि उनके बैंक खाते में आएगी। 

15 नवंबर 2023 को शुरु हुई प्रधानमंत्री जनजातीय आदिवासी न्याय महाअभियान (पीएम-जनमन) योजना के तहत विशेष रुप से कमज़ोर जनजातीय समूहों (पीवीटीजी) की सामाजिक आर्थिक स्थिति को बेहतर बनाने के लिए उन्हें बुनियादी सुविधाएं मुहैया करवाई जा रही हैं। इसमें सुरक्षित आवास का निर्माण, स्वच्छ पेयजल, शिक्षा, स्वास्थ्य और पोषण सुविधाएं, सड़क, दूरसंचार कनेक्टिविटी, बिजली कनेक्शन और आजीविका के अवसर उपलब्ध करवाना शामिल है। 

जनमन योजना के तहत केंद्रीय ग्रामीण विकास तथा कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री  शिवराज सिंह चौहान ने मध्य प्रदेश में 30 हजार से अधिक आवासों को मंजूरी दी है। छिंदवाड़ा जिले में 202 जनमन आवास को मंजूरी दी गई है जिसमें पातालकोट भी शामिल है। 

ग्रामीण घरों से फल फूल रहा सीमेंट उद्योग

A Bharia Tribe Woman in Patalkot
अपने पक्के घर के दरवाज़े से बाहर देखती भारिया जनजाति की महिला Photograph: (ग्राउंड रिपोर्ट)

विनीता बताती हैं “हमारे बच्चे अब शहर में पढ़ाई कर रहे हैं, वो यहां बस छुट्टियों में आते हैं, यह पक्का घर उन्हीं के काम आएगा। हम ऐसे घरों में रहने के आदि नहीं है।”

विनीता बताती हैं कि जितने पैसे सरकार ने पक्का आवास बनाने के लिए दिए हैं, उससे उनका घर पूरा बनकर तैयार नहीं हो पाएगा। पातालकोट में गृह निर्माण का ज़रुरी सामान लाना बहुत महंगा पड़ता है। 

विनीता के मुताबिक ईंट, सीमेंट, रेत और सरिया जैसी सामग्री शहर से यहां तक लाने के लिए उन्हें ट्रैक्टर ट्रॉली वालों को आने-जाने के 9000 रुपए तक चुकाने पड़ते हैं। 

हालिया रिपोर्ट्स के मुताबिक भारत में पिछले चार वर्षों में आवास परियोजनाओं की औसत निर्माण लागत में 39% की बढ़ोतरी हुई है। सीमेंट की कीमतों में 30% से अधिक की वृद्धि हुई है, स्टील की कीमतें दोगुनी से अधिक हो गई हैं, तथा एल्युमीनियम, बिजली के तार, पेंट और पत्थर जैसी अन्य सामग्रियों की कीमतों में भी पर्याप्त वृद्धि देखी गई है। 

पातालकोट जैसे दुर्गम इलाके जो शहर से दूर हैं वहां पक्के घर की निर्माण सामग्री की कीमत ट्रांस्पोर्टेशन चार्जेज़ की वजह से और अधिक बढ़ जाती है। 

Woman sitting next to the under construction PM Awas in Patalkot
पातालकोट की हरी-भरी घाटी के बीच बन रहा है पीएम आवास, Photograph: (Ground Report)

सरकारी योजना के तहत ग्रामीण इलाकों में बन रहे पक्के घरों ने भारत के सीमेंट उद्योग को काफी फायदा पहुंचाया है। किफायती आवास और सड़क निर्माण जैसी बुनियादी ढांचा परियोजनाओं पर लक्षित सरकारी योजनाएं ग्रामीण क्षेत्रों में सीमेंट की बढ़ती मांग में योगदान दे रही हैं। 

2023 में, भारत के सीमेंट उद्योग का बाजार आकार 3.96 बिलियन टन तक पहुंच गया और 2032 तक 5.99 बिलियन टन तक पहुंचने की उम्मीद है, जो 2024-32 के दौरान 4.7% की सीएजीआर प्रदर्शित करता है। 

खुद बना रहे अपना घर

प्रधानमंत्री आवास योजना के लक्ष्यों में यह साफ तौर पर लिखा होता है कि लाभार्थी स्थानीय सामग्रियों और प्रशिक्षित राजमिस्त्रियों से गुणवत्तापूर्ण घरों का निर्माण करवाएंगे लेकिन कारेआंम गांव में घरों का निर्माण आदिवासी परिवार खुद ही कर रहे हैं। 

विनीता बताती हैं कि घर बनाने के लिए कारीगर और मज़दूर भी उनके गांव में मौजूद नहीं है, ऐसे में यह काम उन्हें खुद ही करना पड़ रहा है।

विनीता की ही पड़ोसी 40 वर्षीय बुदिया अपने घर की दीवार बनाने के लिए रेत, सीमेंट मिलाकर मसाला तैयार कर रही हैं। उनका 23 वर्षीय बेटा रवींद्र जो शहर में रहकर दीवार बनाने का काम सीखकर आया है, अपनी मां द्वारा तैयार किए गए मसाले से एक-एक कर ईंटों को जोड़कर दीवार खड़ी कर रहा है। 

Woman building her own house in kareyam Village of Patalkot
बुधिया अपने बेटे रविन्द्र को ईंटें जोड़ने में मदद करने के लिए सीमेंट और रेत का मिक्सचर तैयार कर रही हैं, Photograph: (Ground Report)

 रवींद्र कहते हैं “यहां सभी के घरों में काम चल रहा है, सभी अपना घर खुद बना रहे हैं। यहां मज़दूर नहीं मिलते। जो पैसा बचेगा उससे हम शहर से कारीगर बुलाकर छत ढालने का काम करवाएंगे।” 

पीढ़ियों से आदिवासी समुदाय के लोग अपना घर खुद बनाते रहे हैं। पारंपरिक घर बनाने के काम में यहां की महिलाएं भी माहिर हैं। पतली झाड़ियों को एक साथ बांधकर उसपर मिट्टी की छपाई कर वे मोटी दीवार बनाते हैं। पेड़ की मज़बूत लकड़ियों से वो घर की फ्रेम बनाते हैं। मिट्टी के कबेलू या खप्पर से वो अपने घर की छत बनाते हैं। घर के अंदर रसोई, अनाज रखने की कोठियां, देवता का मंदिर, और एक कमरा होता है जहां वो अपनी गुज़र बसर करते हैं। पारंपरिक चटक रंगों से रंगी इन दीवारों पर महिलाएं सफेद और गेरुआ रंग से चित्र उकेरती हैं जो उन्होंने अपनी मां और दादी से सीखे हैं। इन दीवारों में मिट्टी की ही छोटी-छोटी अल्मारियां होती हैं जहां महिलाएँ घर के बर्तन, लालटेन और ज़रुरी सामान सजा कर रखती हैं। मिट्टी की मोटी दीवार और हवा के आने जाने के लिए पर्याप्त रौशनदान इन घरों को गर्मियों में भी ठंडा रखते हैं। 

Inside view of Bharia Tribe house
अंदर से कुछ ऐसा दिखता है भारिया जनजाति का पारंपरिक घर, Photograph: (Ground Report)

विनीता कहती हैं,

 “क्योंकि सरकार पैसा दे रही है तो हम पक्का घर बना रहे हैं। लेकिन हम जानते हैं कि हमें इसमें गर्मियों में पंखा और कूलर जैसे प्रबंध भी करने पड़ेगें।”

कारेआंम गांव के निवासी 50 वर्षीय सोहन भारती के पक्के घर की आधी दीवार बनकर खड़ी हो चुकी है। वो और उनके बेटे नरेंद्र का शहर से अधिक वास्ता नहीं रहा है। उन्हें नए ज़माने के घर बनाने की कला नहीं आती। ऐसे में उन्हें शहर से कारीगर बुलाना पड़ता है। 

सोहन कहते हैं

“मिस्त्री यहां आने के प्रतिदिन 500 रुपए लेता है। शहर से सामान लेने जाते हैं तो दुकान वाले बाबू लोग दोगुने दाम पर सामान देते हैं। सारा पैसा इसी में खत्म हो जाता है।  हमें नहीं लगता कि यह घर बनकर तैयार हो पाएगा।”

सोहन की पत्नी कुसुम पक्का घर बनता देख खुश हैं वो कहती हैं,

“हमारे घर में 10 सदस्य हैं। पुराने घर में सभी का रहना मुमकिन नहीं है। बारिश और खराब मौसम में कच्चे घर में डर भी लगता है। जितना घर बन पाएगा उसी में रहना शुरु कर देंगे।”

कारेआंम गांव  और चिमटीपुरा में हमें ऐसे कई निर्माणाधीन जनमन आवास दिखाई दिए जहां दीवार और छत का काम पूरा हो गया है लेकिन इन घरों में लोगों ने रहना शुरु नहीं किया है। कुछ घरों में लोगों ने गाय के गोबर के उपले बारिश से बचाने के लिए रख दिए हैं। यहां के आदिवासियों के लिए यह पक्के घर एक अतिरिक्त आवास की तरह हैं। लेकिन ये बक्सेनुमा निर्माणाधीन घर चारों ओर जीवन के रंगों से घिरे आदिवासी गांवों की खूबसूरती को फीका करते नज़र आते हैं। 

Completed Janman Awas in Chhindwara
चिमटीपुरा गांव में पीएम जनमन आवास के बगल में भारिया जनजाति का पारंपरिक घर Photograph: (Ground Report)

चिमटीपुरा में रहने वाले ऋिशी भारती जो पातालकोट के संरक्षण के लिए लंबे समय से कार्य कर रहे हैं, ग्राउंड रिपोर्ट को बताते हैं कि

“पातालकोट में सड़क पहुंचने की वजह से शहरी संस्कृति ने यहां तेज़ी से घुसपैठ की है। हमारे बच्चे अब बाहर पढ़ने जाते हैं तो वो भी शहरी चकाचौंध में अपनी संस्कृति भूल रहे हैं। वो मोबाईल पर बाहरी दुनिया देखते हैं और उन्हीं की तरह रहना चाहते हैं।”

ऋिशी के मुताबिक उनके गांव में सड़क बनने से जंगल असुरक्षित हुए हैं, प्लास्टिक और ध्वनि प्रदूषण की समस्या बढ़ी है। वो आगे कहते हैं कि “लोग अभी यहां पक्के घर बनाकर और बाहरी संस्कृति को अपनाकर खुश हैं। लेकिन नए घर और बाहरी रहन-सहन यहां की जलवायु के अनुकूल नहीं है। इस बात का एहसास यहां के लोगों को तब होगा जब उन्हें अपनी सीमित आय का ज्यादातर हिस्सा घरों को गर्म और ठंडा करने के लिए बिजली पर खर्च करना पड़ेगा।” 

पीएम जनमन के अन्य काम अधूरे

पातालकोट में हमने पाया कि जिस चीज़ में सीमेंट की ज़रुरत है जैसे सड़कों, घरों और प्रशासनिक बिल्डिंगों का निर्माण तो तेज़ी से हो रहा है लेकिन पेयजल, शिक्षा और चिकित्सा जैसी ज़रुरी सुविधाओं पर काम नहीं हुआ है। लोग बताते हैं कि सड़क होने के बावजूद यहां एंबुलेंस तक मरीज़ को लेने नहीं आती। हमें अपनी यात्रा के दौरान यहां सड़कों पर सीमेंट की बोरियां लाते ट्रैक्टर ट्रॉली तो दिखाई दिए लेकिन कोई पब्लिक ट्रांस्पोर्ट देखने को नहीं मिला। 

इसके साथ ही आज भी पातालकोट वासी पेयजल के लिए पहाड़ों से झर कर आने वाले पानी पर ही निर्भर हैं। जिसके पानी की स्वच्छता की कोई गारंटी नहीं है। 

पेशे से शिक्षक और पातालकोट के आदिवासियों की समस्याओं पर लंबे समय से कार्य कर रहे समाजसेवी डॉ. विकास शर्मा कहते हैं कि

“पातालकोट के लोग वर्षों तक बाहरी दुनिया से कटे रहे, अब सरकार यहां विकास कार्य कर रही है यह अच्छी बात है। लेकिन यहां जो भी कार्य किये जा रहे हैं वो यहां की जलवायु और संस्कृति को नुकसान पहुंचाए बिना किए जाने चाहिए।”

डॉ. विकास सुझाव देते हुए कहते हैं कि जो पक्के घरों का निर्माण हो रहा है वो इस तरह होना चाहिए कि भारिया और गोंड समुदाय की सांस्कृतिक पहचान को उसमें समाहित किया जा सके। 

पीएम आवास योजना का विज़न डॉक्यूमेंट इस बात को रेखांकित करता है कि लाभार्थी के पास मानक सीमेंट कंक्रीट घर के डिजाइनों के बजाय संरचनात्मक रूप से मजबूत, सौंदर्य, सांस्कृतिक और पर्यावरण के अनुकूल घर के डिजाइनों का विस्तृत चयन भी उपलब्ध है। 

Traditional Bharia Community House
भारिया जनजाति का पारंपरिक घर बाहर से ऐसा दिखाई देता है, Photograph: (Ground Report)

लेकिन इसके बावजूद पीएम जनमन आवास के तहत बनाए जा रहे घर कंक्रीट के उन बक्सों की तरह हैं जिसमें न पारंपरिक वास्तुकला का ध्यान रखा गया है न ही स्थानीय जलवायु का। 

पर्यटकों के लिए आदिवासी शैली के होमस्टे

पातालकोट में सरकार ईको टूरिज़्म को बढ़ावा दे रही है। मध्य प्रदेश में जनजातीय जीवन को करीब से देखने का यह सबसे अच्छा स्थान भी है। दुनियाभर से यहां पर्यटक आदिवासियों की जीवनशैली और संस्कृति से रुबरु होने आते हैं। लेकिन सरकार की अन्य विकास योजनाएं तेज़ी से यहां के गांवों की पहचान को ही खत्म कर रही है। सरकार भी इस तथ्य से वाकिफ़ नज़र आती है। इस बात की पुष्टी इस बात से होती है कि पातालकोट के गांवों में पर्यटकों के लिए सरकार होमस्टे का निर्माण करवा रही है जिनमें भारिया समुदाय के पारंपरिक वास्तुकला का पूरा ध्यान रखा जा रहा है। 

यानी सरकार जनजातीय समुदाय की कला, संस्कृति और जीवनशैली को सहेजना तो चाहती है लेकिन केवल एक अजायबघर के तौर पर। 

टूरिज्म बोर्ड ने परार्थ समिति के माध्यम से चिमटीपुर में 5 होम स्टे बनवाए हैं। चिमटीपुर पर्यटन विकास समिति ने पर्यटकों के लिए टूर पैकेज बनाया है जिसमें तीन हजार रुपए में दो लोग और एक बच्चे के लिए 24 घंटे रुकना, दो समय शुद्ध देसी भोजन व प्रातः समय का चाय-नाश्ता शामिल है। 

जनमन योजना आदिवासियों के लिए आजीविका के साधन खोजने की भी बात करती हैं लेकिन यह आश्चर्य की बात है कि जो होमस्टे पातालकोट में खोले जा रहे हैं उनका संचालन स्थानीय आदिवासियों के हाथ में नहीं है। 

विनीता अपने निर्माणाधीन घर की दीवार की ओर इशारा करते हुए कहती हैं कि

“मैं इस नए घर में भी अपनी मां द्वारा सिखाए गए चित्र बनाना चाहती हूं, लेकिन मुझे लगता है कि दीवार उठाने और छत ढालने के बाद जो सरकार से पैसा मिला है वो खत्म हो जाएगा।” 

भारत में स्वतंत्र पर्यावरण पत्रकारिता को जारी रखने के लिए ग्राउंड रिपोर्ट का आर्थिक सहयोग करें। 

यह भी पढ़ें

कूड़े की यात्रा: घरों के फर्श से लैंडफिल के अर्श तक

‘अस्थमा है दादी को…’: दिल्ली में वायु प्रदूषण से मजदूर वर्ग सबसे ज़्यादा पीड़ित

किसान बांध रहे खेतों की मेढ़ ताकि क्षरण से बची रहे उपजाउ मिट्टी

कचरे से बिजली बनाने वाले संयंत्र ‘हरित समाधान’ या गाढ़ी कमाई का ज़रिया? 

पर्यावरण से जुड़ी खबरों के लिए आप ग्राउंड रिपोर्ट को फेसबुकट्विटरइंस्टाग्रामयूट्यूब और वॉट्सएप पर फॉलो कर सकते हैं। अगर आप हमारा साप्ताहिक न्यूज़लेटर अपने ईमेल पर पाना चाहते हैं तो यहां क्लिक करें।

पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन से जुड़ी जटिल शब्दावली सरल भाषा में समझने के लिए पढ़िए हमारी क्लाईमेट ग्लॉसरी ।

Author

  • Climate journalist and visual storyteller based in Sehore, Madhya Pradesh, India. He reports on critical environmental issues, including renewable energy, just transition, agriculture and biodiversity with a rural perspective.

    View all posts

Support Ground Report to keep independent environmental journalism alive in India

We do deep on-ground reports on environmental, and related issues from the margins of India, with a particular focus on Madhya Pradesh, to inspire relevant interventions and solutions. 

We believe climate change should be the basis of current discourse, and our stories attempt to reflect the same.

Connect With Us

Send your feedback at greport2018@gmail.com

Newsletter

Subscribe our weekly free newsletter on Substack to get tailored content directly to your inbox.

When you pay, you ensure that we are able to produce on-ground underreported environmental stories and keep them free-to-read for those who can’t pay. In exchange, you get exclusive benefits.

Your support amplifies voices too often overlooked, thank you for being part of the movement.

EXPLORE MORE

LATEST

mORE GROUND REPORTS

Environment stories from the margins