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‘पराली कोई समस्या नहीं है, यह 30 हज़ार करोड़ रुपयों की प्लाईवुड इंडस्ट्री का स्वरुप बदल सकती है’

'पराली कोई समस्या नहीं है, यह 30 हज़ार करोड़ रुपयों की प्लाईवुड इंडस्ट्री का स्वरुप बदल सकती है'
'पराली कोई समस्या नहीं है, यह 30 हज़ार करोड़ रुपयों की प्लाईवुड इंडस्ट्री का स्वरुप बदल सकती है'

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भारत में सर्दियों का मौसम शुरू होते ही पराली जलाने और उससे होने वाले वायु प्रदुषण के मामले बढ़ जाते हैं. मीडिया की ख़बरें दिल्ली के ‘गैस चेंबर’ बनने के आस-पास सिमटने लगती हैं. ऐसे में पराली देश के लिए एक बड़ी समस्या है. यह विषय जितना सरकार और शहरी लोगों के लिए गंभीर है उतना ही किसान के लिए भी. पराली को काटने में होने वाले ख़र्च और उसके प्रबंधन को लेकर कई सवाल हैं जिसके चलते किसान इसे जला देना ही मुनासिब समझते हैं. 

इस समस्या को केंद्र में रखते हुए भोपाल स्थित एडवांस मटेरियल एंड प्रोसेसेस रिसर्च इंस्टिट्यूट (AMPRI) के वैज्ञानिकों ने पराली (Agriculture Residue) को वूडन बोर्ड में बदलने की तकनीक इजाद की है.

इस बारे में बात करते हुए एम्प्री के डायरेक्टर डॉ. अवनीश श्रीवास्तव बताते हैं,

“20 से 30 प्रतिशत तक कृषि अवशेष (Agricultural Resedue) को जलाया जाता है. यह दिल्ली, हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश में एक बड़ी समस्या है. इसलिए हमने करीब 4-5 साल पहले इस ओर काम करना शुरू किया कि कैसे पराली को एक उपयोगी वस्तु के रूप में बदला जा सकता है? इसी शोध का नतीज़ा है कि हमने परली को वूडन बोर्ड में बदलने की तकनीक विकसित की.”

काउंसिल ऑफ़ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च (CSIR) की यह इकाई अलग-अलग तरह के कम्पोज़िट बनाने का काम करती है इस भी उसी का एक हिस्सा है.  

मध्यप्रदेश पराली जलाने के मामले में दूसरे नंबर पर है

पंजाब देश में पराली जलाने के मामले में नंबर एक पर है. मध्य प्रदेश इस रैंकिंग में दूसरे नंबर पर है. सितम्बर 2022 से लेकर 23 अगस्त 2023 तक के आँकड़े बताते हैं कि बीते साल का नवम्बर और इस साल मार्च से मई के बीच कृषि अवशेष जलाने के मामले अधिक संख्या में आए हैं. इस साल अप्रैल के महीने में ऐसे 16101 मामले दर्ज किए गए. 

stubble burning in Madhya Pradesh
मध्यप्रदेश के सीहोर शहर में रात में जलाई गई पराली

डॉ. श्रीवास्तव पराली जालने से होने वाले दुष्प्रभावों को बताते हुए कहते हैं कि यह उन बच्चों के लिए ज़्यादा खतरनाक है जो अपनी शुरूआती उम्र में हैं. उनके अनुसार यह शिशुओं के शारीरिक विकास पर असर डालता है. एक शोध के अनुसार साल 2003 से 2019 के बीच भारत में पराली जलाने से क़रीब 44 हज़ार से 98 हज़ार मौतें हुई हैं. यह मौतें पार्टिकुलेट मैटर एक्सपोज़र से संबंधित हैं.   

एम्प्री के चीफ़ साइंटिस्ट डॉ. असोकन पप्पू कहते हैं,

“सरकार द्वारा पराली जलाने से होने वाले नुकसान को कम करने के लिए स्कूल-कॉलेज बंद किए जाते हैं मगर यह स्थाई इलाज नहीं है. इसलिए हमने इसका एक स्थाई इलाज खोजना शुरू किया.”

कैसे हुई पराली से प्लाय बोर्ड बनाने के शुरुवात?

एम्प्री के वैज्ञानिकों ने साल 2017 में इस प्रोजेक्ट पर काम करना शुरू किया था. इस दौरान उन्होंने हरियाणा के किसानों ने मुलाक़ात की और उनसे पराली जलाने के कारणों पर चर्चा की. डॉ. श्रीवास्तव बताते हैं कि पराली को ग्रीन कम्पोज़िट पार्टिकल में बदलने के लिए वैज्ञानिकों द्वारा इसकी मकैनिकल, थर्मल प्रौपर्टी और स्ट्रेंथ जैसी चीज़ों का अध्ययन किया गया. 

ग्रीन कम्पोज़िट से तैयार यह वूडन बोर्ड दीमक और पानी प्रतिरोधी हैं. यह आग को फैलने से रोकने में भी कारगर हैं. इसलिए इनका इस्तेमाल घर का ढांचा बनाने और फर्नीचर बनाने में भी किया जा सकता है. इस प्रोजेक्ट के हेड डॉ. मनोज गुप्ता बताते हैं कि यह बोर्ड क्वालिटी और सेहत दोनों ही लिहाज़ से महत्वपूर्ण हैं. वह कहते हैं,

“भारत में ज़्यादातर प्लाईवूड में यूरिया फ़ार्मेल्डीहाइट होता है. यह इंसान की सेहत के लिहाज से नुकसान देय होता है. इस कम्पोज़िट वूड बोर्ड में यह नहीं है.” डॉ. श्रीवास्तव का मानना है कि यह खोज जंगलों को बचाने के लिए भी कारगर साबित होगी.    

भारत का प्लायवुड मार्केट

गौरतलब है कि भारत में साल 2022-23 के दौरान प्लाईवूड मार्किट करीब 205.8 बिलियन रूपए था जिसके साल 2028-29 तक 306.5 बिलियन तक पहुँचने की सम्भावना है. डॉ. श्रीवास्तव कहते हैं कि यदि इस प्रोडक्ट को बड़े स्तर पर बनाना शुरू करते हैं तो चूँकि हमारे पास बड़ी संख्या में पराली होती है ऐसे में इस बोर्ड की क्वालिटी को देखते हुए भारत इसे कंपनियों के ज़रिये एक्सपोर्ट भी कर सकता है. “पराली को रॉ मटेरियल के रूप में इस्तेमाल करने से कॉस्ट कम होगी क्योंकि अभी इसे वेस्ट माना जाता है ऐसे में इसे किसानों से खरीदने में ज़्यादा पैसा खर्च नही करना पड़ेगा.” डॉ. श्रीवास्तव बताते हैं. 

वह कहते हैं, “हम चाहते हैं कि पराली कोई प्रॉब्लम न कहलाए बल्कि एक इंग्रीडियंट कहलाए. हम ऐसे समय तक पहुँचना चाहते हैं जहाँ इंडस्ट्री यह कहे कि उन्हें पराली की ज़रूरत है ताकि बोर्ड बनाए जा सकें.

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  • Shishir identifies himself as a young enthusiast passionate about telling tales of unheard. He covers the rural landscape with a socio-political angle. He loves reading books, watching theater, and having long conversations.

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