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ड्राईविंग सीट पर पिंगलो गांव की लड़कियां

ड्राईविंग सीट पर पिंगलो गांव की लड़कियां
ड्राईविंग सीट पर पिंगलो गांव की लड़कियां

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समाज ने जब लड़के और लड़कियों के काम निर्धारित किए तो हर उस काम पर से लड़की का नाम मिटा दिया जो आत्मनिर्भरता और आज़ादी की भावना पैदा करता हो।

गाड़ी चलाना एक ऐसा ही काम है, यह इंसान को सिर्फ रफ्तार ही नहीं देता, बल्कि हर पल फैसले लेने की स्वतंत्रता देता है, हर कट और हर मोड़ पर ड्राईवर का फैसला ही आगे की राह तय करता है।

भारत में गाड़ी चलाना अभी भी मुख्यतः पुरुषों का काम बना हुआ है। ड्राईविंग सीट पर बैठने वाली महिलाओं की संख्या बेहद कम है। साल 2019 तक करीब 20 करोड़ 6 लाख ड्राईविंग लाईसेंस धारक थे जिसमें महिलाओं की हिस्सेदारी केवल 6.8 फीसदी थी।

भारत में सबसे ज्यादा महिला ड्राईवर केरल में है, वहीं उत्तराखंड इस कड़ी में पंद्रवे नंबर पर आता है। साल 2019 तक यहां केवल 26 हज़ार महिलाओं को ड्राईविंग लाईसेंस जारी किए गए।

जिस समाज में फैसले लेने का अधिकार सिर्फ पुरुषों तक सीमित हो, वो कैसे एक महिला को ड्राईविंग सीट पर बैठाने के बारे में सोच सकता था। लेकिन कुछ परिवारों ने पहल की, और लड़कियों ने कमाल कर दिखाया।

अंजली को उनके परिवारवालों ने स्कूटी चलाना सिखाया

उत्तराखंड के बागेश्वर जिले के पिंगलों गांव की अंजली को उनके परिवार वालों ने ही स्कूटी चलाने के लिए प्रेरित किया। उनके परिवार के ज्यादातर पुरुष सदस्य भारतीय सेना में कार्यरत हैं। ऐसे में घर के सभी छोटे-बड़े काम घर की स्त्रियां ही संभालती हैं।

अंजली ने ग्राउंड रिपोर्ट को बताया कि उन्हें उनके ताउजी ने स्कूटी चलाना सिखाया, स्कूटी सीखने के बाद से उनमें आत्मविश्वास बढ़ा है। वो जहां चाहें वहां आ-जा सकती हैं। कॉलेज जाना, घर का सामान लाना, घर वालों को शहर तक ले जाना, इमरजेंसी में अपने गांव वालों की मदद करना उन्हें अच्छा लगता है। अब उन्हें पब्लिक ट्रांस्पोर्ट के भरोसे नहीं बैठना पड़ता। स्कूटी सीखने से ज़िंदगी आसान हुई है।

अंजली की मां कहती हैं कि उनकी बेटी अच्छी गाड़ी चलाती है, उन्हें उसके पीछे बैठने में डर नहीं लगता। वो भी गाड़ी सीखना चाहती थीं, लेकिन सोच यह थी कि ‘मुझे तो घांस ही काटना है, क्या करूंगी गाड़ी चलाना सीखकर, आज अफसोस होता है, लेकिन अब बहुत देर हो चुकी है।’

‘पहाड़ों में गाड़ी चलाना आसान नहीं है’

अंजली कहती हैं कि “जिसने पहाड़ों में गाड़ी चला ली वो कहीं भी चला सकता है, शुरुवात में मुझे डर लगता था, क्योंकि यहां की सड़कें बेहद घुमावदार और खतरनाक हैं, हर जगह आपको गड्ढे मिल जाएंगे। लेकिन अब इतना मुश्किल नहीं लगता। धीरे-धीरे आराम से चलाओं तो राह आसान होती जाती है।”

शहरों की तुलना में अभी ग्रामीण इलाकों में लड़कियों का गाड़ी चलाना उतना स्वीकार्य नहीं है। अंजली बताती हैं कि जब वो मार्केट में निकलती हैं तो लोग उन्हें घूर कर देखते हैं, “मुझे पहले अजीब लगता था कि क्यों लड़कियों को इस तरह अजीब नज़रों से देखा जाता है? लेकिन अब मैं ध्यान नहीं देती, और अपना काम करती हूं। रोड पर भी अक्सर लोग ओवरटेक करते हैं, थोड़ा डराने के लिए, लेकिन ऐसे लोग ज्यादा नहीं हैं।”

अंजली कहती हैं कि “लड़कियों को कमज़ोर ड्राईवर समझा जाता है, जबकि हम बहुत संभलकर गाड़ी चलाते हैं। तरह-तरह के मीम्स और मज़ाक किए जाते हैं लड़कियों की ड्राईविंग स्किल्स पर, जो उन्हें अच्छे नहीं लगते।”

महिलाओं को समझा जाता है कमज़ोर ड्राईवर

आपको बता दें कि भारत ही नहीं पूरी दुनिया में महिलाओं की ड्राईविंग स्किल्स पर सवाल खड़े किए जाते हैं, साउदी अरब में तो साल 2017 में ही महिलाओं को गाड़ी चलाने की इजाज़त दी गई। चीन और साउथ कोरिया में अभी भी महिलाओं के लिए निर्धारित पार्किंग स्पेस बड़े बनाए जाते हैं, यह मानकर की महिलाएं बुरी ड्राईवर होती हैं।

ड्राईविंग को प्रोफेशन बनाने में भी पुरुषों का ही प्रभुत्व है। ऐप बेस्ड टैक्सी सर्विस ऊबर के पास दुनियाभर में केवल 17 फीसदी महिला ड्राईवर ही रजिस्टर्ड हैं।

अंजली की तरह ही कई और लड़कियां स्कूटी, बाईक और कार चलाना सीखना चाहती हैं, और उनके परिवार वाले भी इसमें मदद कर रहे हैं। शहरों की तुलना में गांवों में बदलाव की रफ्तार थोड़ी धीमी ज़रुर है, लेकिन उम्मीद है कि समय के साथ यह तस्वीर भी बदलेगी।

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