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मध्य प्रदेश के आदिवासी, जंगलों की आग रोकने के लिए परंपराएं तक छोड़ रहे हैं

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मध्य प्रदेश में, क्षेत्रफल के लिहाज से भारत का सबसे बड़ा जंगल फैला हुआ है। इसी राज्य में सबसे अधिक अनुसूचित जनजाति आबादी निवास करती हैं। यहां के वन क्षेत्रों में विविध आदिवासी समुदाय रहते हैं, जिनमें गोंड, बैगा और कोरकू प्रमुख हैं। आदिवासी सहकारी विपणन विकास फेडरेशन ऑफ इंडिया (ट्राइफेड) के अनुसार मप्र, ओडिशा और आंध्र प्रदेश में करीब 75 प्रतिशत से ज्यादा आदिवासी आबादी आजीविका के लिए वनोपज पर निर्भर है।

परासी गांव की सुंदी बैगा (45) कहती हैं कि “केवल साल 2021 ही ऐसा हुआ था कि मैं अपने परिवार के साथ जंगल से महुआ के फूलों का संग्रहण नहीं कर पाई थी, बाकी ऐसा कोई साल याद नहीं है, जब मैंने लघु वन उपज का संग्रहण नहीं किया होगा।” सुंदी, साल 2021 के मार्च माह में बांधवगढ़ के जंगल में लगी आग की घटना को याद करते हुए सिहर जाती हैं। उनके मुताबिक मार्च के अंतिम सप्ताह में लगी यह आग पांच दिन तक जंगल में सुलगती रही थी। इस आग की वजह से उस साल काफी नुकसान उठाना पड़ा था।

सुंदी जैसे हजारों वनवासी जो मध्य प्रदेश के जंगलों के समीप निवास करते हैं। उनके लिए साल के शुरूआती छह माह किसी त्यौहार से कम नहीं होते हैं क्योंकि इस समय वे जंगलों से महुआ, तेंदूपत्ता के साथ अन्य गैर-लकड़ी वन उत्पादों (एनटीएफपी) जैसे आंवला, साज, करवा चिराग, बीज, सफेद मूसली, अशोक छाल, सेमल, कपास और शहद आदि का संग्रहण करते हैं। ये वनोपज ही उनकी आमदनी का साधन हैं। सुंदी का परासी गांव, राज्य के उमरिया जिले के मानपुर ब्लॉक में आता है, जो बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व के बेहद करीब है। उनके गांव से करीब 30 किलोमीटर दूर उमरिया बाजार में एक किलो सूखा महुआ बेचने पर 40 से 45 रूपये की कमाई सुंदी को होती है। लेकिन पिछले कुछ सालों से जंगलों में बढ़ती आग के कारण सुंदी जैसे आदिवासियों की आजीविका प्रभावित हो रही है और वे चिंतित नजर आ रहे हैं।

भारतीय वन स्थिति रिपोर्ट 2021 के मुताबिक देश के जंगलों में आग लगने की सबसे अधिक घटनाएं ओडिशा में 51,968 दर्ज की गई हैं। उसके बाद दूसरे नंबर पर मध्य प्रदेश में 47,795 और तीसरे पर छत्तीसगढ़ में 38,106 घटनाएं दर्ज की गई हैं। एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार जंगलों में बढ़ती आग की घटनाओं से वनवासियों को आजीविका, भोजन, दवा के साथ आर्थिक गतिविधियों के लिए कच्चे माल की सुरक्षा की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। इसके अलावा रोजगार के अवसरों के खत्म होने से वे जीविका के लिए बाहरी स्रोतों पर निर्भर होने के लिए मजबूर हो जाते हैं। 

आग लगने के कारणों में आदिवासी परंपराएं एक बड़ी वजह बनती दिखी हैं। | चित्र साभार: सनव्वर शफी

जंगलों में आग लगने के कारण क्या हैं?

भारत सरकार द्वारा साल 2018 में शुरू की गई वन अग्नि निवारण एवं प्रबंधन योजना के तहत आग के कारणों का पता लगने और रोकथाम के उपायों के लिए एक अध्ययन किया गया था। अध्ययन की रिपोर्ट में आग लगने कारण प्राकृतिक और मानव-जनित दोनों बताए गए हैं। इस रिपोर्ट के आधार पर ही भारत सरकार ने साल 2019 में आग को आपदा माना और मध्य प्रदेश के 22 जिलों सहित पूरे देश के वन क्षेत्रों में आग की संवेदनशीलता के आधार पर 150 जिले चिन्हित किए। 

कई इलाकों में आग लगने के कारणों में आदिवासी परंपराएं एक बड़ी वजह बनती दिखी हैं। आदिवासी कई बार सहजता से वनोपज इकट्ठा करने के लिए तो कई बार पारंपरिक कारणों जैसे इच्छा पूरी करने या संतान प्राप्ति की मनौती मांगने के लिए जंगल में छोटी-छोटी आग लगा देते थे।

कूनो नेशनल पार्क, डीएफओ थिराकुल आर बताते हैं कि “नेशनल पार्क के आसपास बसे आदिवासियों की मान्यता है कि जंगल में आग लगाने से बिगड़े हुए काम हो जाते हैं।” यही बात बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व के फील्ड डायरेक्ट पीके वर्मा  भी दोहराते हैं और कहते हैं कि “यह आग कई बार विकराल रूप ले लेती है और कई दिनों तक चलती है।” सरकारी अधिकारी कहते हैं कि इसे लेकर ग्राम पंचायत से लेकर वन विभाग तक के स्तर पर प्रयास किए जा रहे हैं ताकि कम से कम मानव जनित आग दुर्घटनाओं को रोका जा सके। समुदायों के बीच जन-जागरुकता अभियान, विभिन्न प्रतियोगिताओं और खेल-कूद जैसे तरीक़ों का सहारा लेकर जागरुकता पहुंचाई  जा रही है।

आदिवासी जंगल को बचाने के लिए अपनी परंपरा छोड़ रहे हैं

बांधवगढ़ नेशनल पार्क के समीप बसे कराहल ब्लॉक के सेसईपुरा, टिकटौली गांव के रामेश्वर गुर्जर बताते हैं कि “वन विभाग के अधिकारियों ने ग्राम सभा में बताया था कि इस मान्यता से वन और वन्यजीवों के साथ ही हमें कितना नुकसान हो रहा है, तब से हमने इस मान्यता पर रोक लगा दी और हमारे गांव के साथ आसपास के गांववासियों ने भी इस मान्यता का पालन करना छोड़ दिया है।” गुर्जर, आगे कहते हैं कि जिन मान्यताओं की वजह से हम जंगलों को जाने-अनजाने में नुकसान पहुंचा रहे थे, उन परंपराओं और प्रथाओं पर रोक लगाने के साथ ही युवा पीढ़ी को इन प्रथाओं से दूर रख रहे हैं।

मानपुर ब्लॉक में पड़ने वाले चिल्हरी गांव के राममिलन बैगा कहते हैं कि मैं हर साल करीब 4.5 से 5 क्विंटल तक महुआ इकट्ठा करता हूं, लेकिन साल 2021 मैं बमुश्किल से 1.5 से 2 क्विंटल ही इकट्ठा कर पाया था। 2021 में लगी आग से करीब पांच सौ हेक्टेयर जंगल तबाह हो गया था। राममिलन के घर के बाहर बने ओटले पर बैठे, तुक्काराम बैगा बताते हैं कि “हम भोर से पहले ही जंगल में महुआ के फूल बीनने के लिए घर से निकल जाते हैं और ज्यादा महुआ के फूल बीन पाने की लालच में पेड़ों के नीचे सफाई करने के उद्देश्य से आग लगा देते थे, लेकिन अब ऐसा करना छोड़ दिया है।” 

उनकी बात का समर्थन करते हुए उनकी पत्नी मूंगी बाई कहती हैं कि “हमारे लिए जंगल ही सब कुछ हैं, जंगल खत्म तो हमारा अस्तित्व भी खत्म हो जाएगा। इस वजह से ही हमने कई परंपराओं और प्रथाओं को पीछे छोड़ दिया है। जैसे महुआ के फूल बीनने के लिए, शहद एकत्र करने के लिए और संतान प्राप्ति आदि के लिए जंगलों में आग लगाने की प्रथाएं थी, जिनकी वजह से हम जाने-अनजाने में जंगल को नुकसान पहुंचा रहे थे, क्योंकि यह वनों में लगाई जाने वाली छोटी-छोटी आग अधिकतर बड़ी आग में तब्दील हो जाती थी, जब से यह बात पता चली है, पूरे गांववासियों ने इन प्रथाओं का पालन करना पूरी से तरह बंद कर दिया है।”

बैतूल जिले के दक्षिण वन क्षेत्र में बसे परसापानी गांव के किशोर मोरे कहते हैं कि “गांववासी शिकारी जानवरों को भगाने, शहद के लिए मधुमक्खियों को भगाने, खेतों की नरवाई जलाने, तेंदुपत्ता और नई घास की आवक के लिए आग लगाते थे, जो हवा के जरिए जंगलों तक पहुंच कर विकराल हो जाती थी”। वे आगे कहते हैं कि “हम जून माह में शहद निकालने और मधुमक्खियों से बचने के लिए आग लगाते थे, लेकिन अब ऐसा नहीं करते हैं। वन विभाग से मिली हनी किट (इस किट में सीढ़ी, हेलमेट, दस्‍ताने, कपड़े, चाकू, बाल्‍टी और रस्सी शामिल हैं) की मदद से शहद निकालते हैं।” कुल मिलाकर, आदिवासियों और वन विभाग के साझा प्रयास स्थिति को बदल रहे हैं।

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