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सीएनजी का बढ़ता दाम पड़ेगा पर्यावरण को महंगा

सीएनजी का बढ़ता दाम पड़ेगा पर्यावरण को महंगा
सीएनजी का बढ़ता दाम पड़ेगा पर्यावरण को महंगा

निशान्त | Climate Kahani | देश की अर्थव्यवस्था के विकास को नापने का एक महत्वपूर्ण पैमाना है देश के ट्रांसपोर्ट सेक्टर का आकार और प्रकार। ऐसा इसलिए क्योंकि एक अच्छी परिवहन प्रणाली न सिर्फ किसी उत्पाद के लिए बाजार का बेहतरीन विस्तार कर सकती है, वह कच्चे माल, ईंधन, उपकरण आदि को उत्पादन के स्थानों तक ले जाने को भी आसान बना सकती है।

हमारे देश में फिलहाल परिवहन क्षेत्र में विलक्ष्ण प्रगति देखी जा रही है। ऐसा माना जा रहा है कि भारत के परिवहन क्षेत्र में सालाना 5.9 प्रतिशत की बढ़त दिखने की उम्मीद है। ऐसा होने से यह क्षेत्र भारत के बुनियादी ढांचा क्षेत्र का सबसे तेजी से बढ़ता क्षेत्र बन जाएगा।

परिवहन और प्रदूषण

हालांकि देश की परिवहन प्रणाली तेज़ गति से विकास कर रही है, मगर उसी अनुपात में परिवहन से होने वाले कार्बन उत्सर्जन की मात्रा में भी बढ़त हो रही है। ध्यान रहे कि भारत में होने वाले कुल कार्बन उत्सर्जन में परिवहन या ट्रांसपोर्ट सेक्टर का योगदान लगभग 14 प्रतिशत है। और इसमें से 90 प्रतिशत उत्सर्जन अकेले सड़क परिवहन से होता है।

बात सड़क परिवहन की आती है तो याद आता है पेट्रोल और डीज़ल। फिर याद आती है सीएनजी (कम्प्रेस्ड नैचुरल गैस), और थोड़ी बहुत याद आती है एलेक्ट्रिक वाहनों की।

पेट्रोल और डीज़ल के नाम से याद आता काला प्रदूषणकारी धुआँ और एलेक्ट्रिक वाहनों के नाम से बंधती है कुछ उम्मीद मगर इन गाड़ियों के दाम याद आते ही वो उम्मीद फिलहाल टूट ही रही है। लीथियम बैट्री की उपयोगिता का जिस प्रकार से प्रचार हो रहा है उसके चलते कोई भी ठीक-ठाक कंपनी का एलेक्ट्रिक स्कूटर एक लाख से कम का नहीं मिल रहा। सस्ती और रीसायकिल हो जाने वाली लेड एसिड बैट्री के साथ यह गाड़ियाँ कम दाम में मिल सकती हैं, लेकिन फिलहाल बयार विदेशी लिथियम की दिशा में बह रही है। बात एलेक्ट्रिक कार की करें तो कोई भी एंट्री लेवेल की इलैक्ट्रिक कार सड़क पर आते-आते 9 लाख से कम की नहीं पड़ती। वहीं पेट्रोल की एंट्री लेवेल की कार 3.5 लाख के आस पास मिल जाती है।

बात सीएनजी की

आप सोच रहे होंगे अब तक सीएनजी का ज़िक्र क्यों नहीं हुआ। तो चलिये कर लेते हैं उसका भी ज़िक्र। सीएनजी का नाम सुनते ही याद आता है पब्लिक ट्रांसपोर्ट, कम दाम, ज़्यादा मायलेज, और पर्यावरण के लिए पेट्रोल/डीज़ल से बेहतर विकल्प।
यहाँ यह जानना ज़रूरी है कि प्राकृतिक गैस अब वैश्विक बिजली उत्पादन का लगभग एक चौथाई हिस्सा है और मध्यम अवधि में इसकी मदद से नेट ज़ीरो ऊर्जा प्रणालियों का विकास किया जा सकता है। ऐसा इसलिए क्योंकि इसकी मदद से हम पेट्रोल और डीज़ल के बाद धीरे-धीरे एलेक्ट्रिक या रिन्यूबल ऊर्जा पर निर्भर परिवहन प्रणाली की ओर बढ़ सकते हैं।

दरअसल सीएनजी या कम्प्रेस्ड प्रकृतिक गैस भी जीवाश्म ईंधन का एक प्रकार है, लेकिन इससे कार्बन का उत्सर्जन पेट्रोल या डीज़ल के मुक़ाबले 90 प्रतिशत तक कम होता है। इतना ही नहीं, इसका मायलेज भी अपेक्षाकृत अधिक होता है।

जब तक एलेक्ट्रिक वहान आम आदमी के बजट में नहीं आते, तब तक सीएनजी की गाड़ियाँ एक सस्ता और बेहतर विकल्प हो सकता है पेट्रोल और डीज़ल की गाड़ियों का। सीएनजी की कार की शुरुआती कीमत भी महज़ 5 लाख है। मतलब पेट्रोल और एलेक्ट्रिक के कहीं बीच में है इसका दाम। मगर अब आती है मुद्दे की बात।

बीते कुछ सालों में सीएनजी के दाम इस कदर बढ़ें हैं कि आज यह पेट्रोल और डीज़ल के आस पास पहुँच गए हैं।

देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश कि राजधानी लखनऊ में जहां फिलहाल पेट्रोल 95 का है, डीज़ल 90 का है, वहीं सीएनजी 95 की है। कुछ साल पहले तक, एक लीटर पेट्रोल और एक किलो सीएनजी के दाम में लगभग 30-35 रुपये का अंतर था। और आज हालत यह है कि क्योंकि कम प्रदूषण करने वाली सीएनजी का दाम पेट्रोल के बराबर हो चुका है, इसलिए एक आम उपभोक्ता के पास कोई व्यावहारिक वजह नहीं कि वो 3.5 लाख की पेट्रोल कार की जगह 5 लाख की सीएनजी कार ले। सीमित बजट के साथ बेहतर पर्यावरण और कम प्रदूषण की चाहत वाले उपभोक्ता के पास आज कोई खास वजह नहीं बची है कि वो अपनी गाढ़ी कमाई पेट्रोल के दाम पर मिलने वाली सीएनजी के लिए कार खरीदने में लगाए।

और प्राकृतिक गैस की अंतरराष्ट्रीय कीमत में तेज वृद्धि के चलते भारतीय वाहन निर्माताओं को सीएनजी से चलने वाले वाहनों के लिए अपने उत्पादन लक्ष्य में कटौती करने के लिए मजबूर कर दिया है। कार निर्माताओं को लगता है कि सीएनजी के दाम अब बढ़ेंगे और उसके चलते लोग सीएनजी कारें कम खरीदेंगे और इन कारों का अधिक उत्पाद प्रासंगिक नहीं रहेगा। 

जहां इस वित्तीय वर्ष कि शुरुआत  में वाहन निर्माताओं का लक्ष्य 7,00,000-7,50,000 यूनिट सीएनजी कारों का उत्पादन करना था, वहीं उस लक्ष्य में अब 25-30 प्रतिशत कि कमी आ चुकी है और अब इस वित्तीय वर्ष का लक्ष्य घटकर 5,00,000-5,50,000 यूनिट हो गया है।

विचार विशेषज्ञों के

चलिये जानते हैं इस पर विशेषज्ञों की क्या राय है। अर्चित फुरसूले क्लाइमेट ट्रेंड्स नाम की संस्था में एक स्वच्छ ऊर्जा परिवहन विशेषज्ञ के तौर पर काम करते हैं। इस संदर्भ में उनका मानना है कि, “प्रदूषण करने वाले पेट्रोल/डीज़ल और लगभग शून्य उत्सर्जन करने वाले एलेक्ट्रिक वाहन के बीच कि खाई को पाटने के लिए बेहद कम कार्बन उत्सर्जन करने वाली सीएनजी भारत में बहुत पहले ही मुख्यधारा में आ जानी चाहिए थी। मगर ऐसा सही मायनों में नहीं हो सका है। फिलहाल जिस रफ्तार से सीएनजी के दाम बढ़े रहे हैं और जहां तक पहुँच चुके हैं, उन्हें देख लगता नहीं कि यह दाम वापस फिर कभी उस स्तर तक आ पाएंगे जिनके लिए सीएनजी को परंपरागत रूप से जाना जाता था। ऐसे में एलेक्ट्रिक वाहन ही सबसे बेहतर विकल्प दिखते हैं। हाँ, वो फिलहाल महंगे ज़रूर हैं, लेकिन उम्मीद है कि सरकार कि नीतियों के चलते वो आम आदमी कि पहुँच में आने लगें। लेकिन तब तक, पर्यावरण की चिंता करने वाले आम आदमी के पास महंगी हो रही सीएनजी से बेहतर कोई विकल्प नहीं।”

इस संदर्भ में वैश्विक परिस्थितियों को सीएनजी के बढ़े दामों के लिए दोषी ठहराते हुए फिनलैंड में साल 1969 में स्थापित एक सार्वजनिक शोध विश्वविद्यालय, लपीनरान्ता-लाहती युनिवर्सिटी ऑफ टेक्नालजी (LUT) के स्कूल ऑफ एनर्जी सिस्टम्स में सौर अर्थव्यवस्था के प्रोफेसर मनीष राम कहते हैं, “हाँ, यह दुर्भाग्यपूर्ण है। मगर जिस तरह से वैश्विक बाज़ार में प्राकृतिक गैस की कीमतों में उछाल देखने को मिल रही है, भारत में ऐसा कुछ होना अपेक्षित है। मगर बड़ी बात यह है कि बाज़ार की मौजूदा रुकावटों देखते हुए सीएनजी की कीमतों में गिरावट की उम्मीद कम ही है। इसलिए एलेक्ट्रिक वाहन ही बेहतर विकल्प हैं।”

आगे, अपनी बात समझाते हुए मनीष कहते हैं, “भारत आयात पर निर्भर हैं और हमारे जैसे देश के लिए ऐसे में सीएनजी पर निर्भर रहना एक सुरक्षित दीर्घकालिक रणनीति नहीं हो सकती। आपकी कार में भरने वाली सीएनजी की कीमत वैश्विक बाजार तय कर रहे हैं और अर्थशास्त्र की नज़र से यह ठीक व्यवस्था नहीं।”
अंततः बैट्री वाहनों को विकल्प के रूप में प्रस्तुत करते हुए मनीष कहते हैं, “सभी कुछ देखते हुए भारत के लिए इलेक्ट्रिक वाहनों के उत्पादन और उनकी सस्ती दर पर उपलब्धता के लिए काम करना एक बेहतर रणनीति होगी। ऐसा करने से न सिर्फ जलवायु कार्यवाई को बल मिलेगा, बल्कि देश में तमाम नौकरियाँ भी पैदा होंगी।”

बात सरकार की

विशेषज्ञों ने तो अपना पक्ष रख लिया। मगर अब सरकार के आगे खड़ी चुनौतियों को भी समझना ज़रूरी है।

चालू वित्त वर्ष के लिए पहले से ही भारत में मुद्रास्फीति 6.7 प्रतिशत के आसपास रहने की उम्मीद है। खुदरा मुद्रास्फीति अगस्त में ही 7 प्रतिशत पर उच्च स्तर पर आ चुकी है। इस बीच महंगाई को नियंत्रित करने के लिए रिज़र्व बैंक लगातार दरों में बढ़ोतरी करता रहा है।

बात सीएनजी की अब करें तो केंद्र सरकार ने पहले ही एक पैनल का गठन किया है जो एक नए मूल्य निर्धारण व्यवस्था पर विचार कर रहा है जो तेल मंत्रालय के आदेश के अनुसार “बाजार-उन्मुख, पारदर्शी और विश्वसनीय” है। फिलहाल भारत में प्रकृतिक गैस की कीमतें रूस और अमेरिका के बाज़ार भावों से तय होते हैं। रूस और यूक्रेन युद्ध के चलते दाम फिलहाल उच्चतम स्तर पर हैं।
इधर भारत में, क्योंकि सरकार सीएनजी को एक स्वच्छ वैकल्पिक ईंधन मानती है, इसलिए सरकार देश में ऊर्जा विकल्पों में इसकी हिस्सेदारी बढ़ाने का लक्ष्य रखती है। भविष्य की ‘गैस-आधारित अर्थव्यवस्था’ के लिए, केंद्र का लक्ष्य प्राथमिक ऊर्जा विकल्पों में प्राकृतिक गैस की हिस्सेदारी को मौजूदा 6.7 प्रतिशत से 2030 तक दोगुना करके 15 प्रतिशत करना है।

सरकार द्वारा बनाए गए इस पैनल को वैसे तो सितंबर तक अपनी सिफारिशें देनी थी, लेकिन इसमें अधिक समय लगने की संभावना है।

गौर करने की बात

गैस पर निर्भर क्षेत्रों, खास तौर से उर्वरक, को परंपरागत रूप से सरकार से भारी सब्सिडी मिलती रही है जिससे बाजार में विकृति पैदा हो रही है। अगर हम पर्यावरणीय लाभों और कम लागत के कारण गैस का रुख करना चाहते हैं तो यह सब्सिडी का चलन सही संकेत नहीं।

तमाम विश्लेषक बताते हैं कि मूल्य नियंत्रण के माहौल में व्यापार और राजनीतिक हित टकराते हैं जिसके चलते निर्माता न्यूनतम संभव कीमत पर उत्पादन बढ़ाने के लिए एक-दूसरे के खिलाफ प्रतिस्पर्धा करने में विफल हो जाते हैं।

यहाँ यह याद रखना चाहिए कि ईंधन सब्सिडी उन प्रमुख नीतिगत पहलों में से एक है जिसके चलते मौजूदा सरकार को दूसरा मौका मिला। संदर्भ के लिए उज्ज्वला योजना याद कर लीजिएगा। लेकिन यहाँ यह भी याद रखना होगा कि सरकार पहले से ही एक बड़े सब्सिडी बिल का भुगतान कर रही है। ऐसे में प्रकृतिक गैस क्षेत्र में सब्सिडी का बढ़ना ऊर्जा सुरक्षा और भुगतान संतुलन जोखिम को बढ़ा सकता है।

सरकार को अब अपने विकल्पों को सावधानी से चुनना होगा जिससे उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा हो। साथ ही अब वक़्त एक ऐसी नीति बनाने का भी है जो भारत को निकट भविष्य में गैस पारिस्थितिकी तंत्र से होते हुए नेट ज़ीरो की ओर बढ़ने में मदद करे।

Author

  • Climate journalist and visual storyteller based in Sehore, Madhya Pradesh, India. He reports on critical environmental issues, including renewable energy, just transition, agriculture and biodiversity with a rural perspective.

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