Skip to content

महामारी में रोजगार और पोषण का इंतज़ाम करती महिलाएं

REPORTED BY

बंजर होती जमीन और सूखे के हालात पर इस समय पूरी दुनिया में चर्चा हो रही है। परंतु भारत की ग्रामीण महिलाएं इसकी तोड़ खुद ही अपने परिश्रम से निकाल रही हैं। वह कोविड-19 के लॉकडाउन के समय बंजर जमीन को उपजाऊ बनाने का हर संभव प्रयास कर रही हैं। यह उनकी रोज की लड़ाई है। उन्हें खुशी इस बात की है, कि नतीजे अब सामने आने लगे है। वह कहती हैं, कि व्यक्तियों का सबसे छोटा समूह परिवार ही होता है। लेकिन इनके लिए इनका समूह जिला, राज्य और देश है। इनका मानना है कि कोरोना और आर्थिक संकट से निपटने के लिए केवल सरकार पर निर्भर रहना गलत है। अब हमें सोचना होगा कि यह महामारी व्यक्तियों को अपना शिकार पहले बनाती है और फिर परिवारों को और अंत में सरकारों को। इसलिए व्यक्ति को स्वयं ही अपने परिवार के स्वास्थ्य तथा आर्थिक सुरक्षा के लिए प्रयास करने होंगे। 

दरअसल मध्यप्रदेश के छिंदवाड़ा जिले में 12 गांव की महिलाएं कोविड-19 के समय रोजगार के सृजन के साथ-साथ पोषण आहार की दोहरी मंशा के साथ सामुदायिक पोषण वाटिका शुरू कर एक उदाहरण पेश की है। वह न सिर्फ गरीब परिवारों को पौष्टिक एवं संतुलित आहार सुनिश्चित करा रही हैं, बल्कि बड़े पैमाने पर रोजगार भी दे रही है। आजीविका संवर्धन एवं पोषण की लड़ाई जीतने के लिए छिंदवाड़ा में प्रभात जल संरक्षण परियोजना के समन्वयकों ने मार्गदर्शन देना शुरू किया। पहली लॉकडाउन के दौरान पायलट प्रोजेक्ट के तहत पहले एक गांव में सामुदायिक पोषण वाटिका स्थापित किया। तीन माह में ही इसके अच्छे परिणाम सामने आने लगे। देखते ही देखते इससे 12 गांव की महिलाएं जुड़ गईं। महिलाओं को भी आर्थिक संकट से उबरने के लिए यह काम सही लगा। महामारी में परिवारों की आजीविका सुनिश्चित करने के लिए इससे बेहतर कोई काम नहीं हो सकता था। वह आगे आईं और अपने-अपने गाँव में 40 बाई 40 की जमीन पर विभिन्न तरह की मौसमी हरी सब्जियों की खेती एवं फलदार वृक्षारोपण करने लगी। इसके लिए पहले इन महिलाओं ने परियोजना के समन्वयकों से शुरुआती प्रशिक्षण लिया। इसके बाद समूह बनाकर किसी एक महिला की निजी जमीन पर वाटिका संचालित करने लगीं।


पोषण खेती करती महिलाएं

ग्राम मेढकी ताल की महिला किसान सविता कुसराम ने बताया कि मेरे पास उबड़-खाबड़ जमीन थी। महिला कृषक समूह की ओर से मुझे साल में इस जमीन का 10 हजार किराया भी तय किया गया। पहली बार परियोजना की ओर से समूह को बीज व खाद उपलब्ध कराया गया। समन्वयक गजानंद की देखरेख में पहले चरण में जमीन पर पौधों के लिए गोले बनाए गये। इसके बाद जमीन को इस तरह बांटा गया कि उसमें लगभग 600 पौधे रोपे जा सके। चक्र के बीच से गुजरने के लिए रास्ते बनाए गए, जिससे खरपतवार हटाने और पौधों की देखरेख में अड़चन न आये। इसके अलावा बेलदार पौधों के लिए अलग से मचान और जैविक खाद के लिए एक बड़ा गड्ढा खोदा गया। जमीन के एक कोने में नर्सरी के लिए भी जगह बनाया गया।

35 साल पहले रतनिया कुसराम शादी कर इस गांव में आयी थीं। वह बताती हैं कि इतनी फल-सब्जी तो हमने जीवन में नहीं खाया। जितना पिछले 6 महीने से खाने को मिल रहा है। मात्र 6 महीने के मेहनत का यह परिणाम है। अभी तक हम लोग मजदूरी के लिए पलायन करते थे। उस दौरान कभी भरपेट खाना भी नहीं खाया। लॉकडाउन में किसी के पास कोई काम नहीं था। महिलाओं ने ही घर की जिम्मेदारी संभाली। सामूहिक रूप से काम करने पर थकान भी नहीं होती और मन भी लगा रहता है। इससे हमारी कार्य क्षमता और आपसी समझ भी बढ़ी है। उन्होंने कहा कि, लॉकडाउन में खेती-किसानी ही एक विकल्प बचा था। इस दौरान उत्पादन में भी  बढ़ोतरी हुई। जबकि पलायन से कुछ नहीं बचता था। उल्टे पुरखों की जमीन पड़े-पड़े बंजर हो गई थी।

ज्यादा खुशी इस बात की है, कि अब हमारी भी थाली रंग-बिरंगी हो गई है। गर्भवती और रक्ताल्पता से ग्रसित महिलाओं को पोषण मिलने लगा है। अब हमारे बच्चे स्वस्थ होंगे। अगर यह काम सफल रहा, तो हमें पलायन नहीं करना पड़ेगा। सरिता धुर्वे ने बताया कि सहायक समन्वयक ने तो इन फल और सब्जियों से साल भर में 5 लाख रुपये आय का लक्ष्य हमें दिया था, लेकिन 6 महीने में ही हम लोगों ने तीन लाख रुपये की कमाई कर ली है। उर्मिला बताती है कि साग-भाजी का बड़ा खर्च पोषण वाटिका की वजह से बच रहा है। साथ ही इसे बाजार में बेच कर कमा भी रहे हैं। पिंकी कुसराम बताती हैं कि जब महामारी के समय आजीविका के सारे साधन खत्म हो गये थे, तब यह काम शुरू किया, जो सफल रहा। दूसरी तरफ सही पोषण मिलने से बीमारी पर होने वाला खर्च भी कम हो गया है।


पोषण खेती में महिला

सारना गांव के हरियाली कृषक समूह की महिलाओं ने इस वर्ष पहली बार गोभी की उन्नत खेती के लिए बेड (क्यारी) बना रही हैं। वह पछेती खेती (सीज़न ख़त्म होने के बाद की खेती) से करीब चार से पांच लाख रुपये कमाने का लक्ष्य लेकर चल रही हैं। “फूल गोभी की खेती आम तौर पर सितंबर से अक्टूबर महीने में की जाती है। हालांकि मौसम की मार से बचने पर अगेती खेती (सीज़न से पहले ही फसल लगाने का काम पूरा कर लेना) करने वाले अक्सर मुनाफा कमाते हैं। महिलाओं ने बताया, 22 से 25 दिन में फूल गोभी की नर्सरी तैयार हो जाती है, उसके बाद इसकी रोपाई की जाती है। 75-90 दिन में फसल तैयार हो जाती है।

समन्वयक चण्डी प्रसाद पाण्डेय ने बताया, कि दिसम्बर 2020 से मई 2021 तक 12 पोषण वाटिका की महिलाओं ने फल और सब्जियां बेचकर 3 लाख रुपये से अधिक की आमदानी की है। इस तरह समूहों की प्रत्येक महिला के खाते में लगभग 30 से 35 हजार रुपये की बचत हुई है। यह 6 माह की कमाई है। भविष्य में यह और बढ़ने की संभावना है। इसमें घर में इस्तेमाल होने वाली फल-सब्जी को शामिल कर लें, तो यह आमदानी कई गुना बढ़ी है। पोषण मिलने से बीमारी भी कम हुई है। उन्होंने बताया कि कोरोना महामारी के दौरान इनके आजीविका के संकट को देखते हुए तत्काल राहत पहुंचे, इसके लिए कोई और काम सूझा नहीं। जमीन इनके पास पहले से थी, उसी खाली पड़ी जमीन पर फल-सब्जी उगाने के लिए महिलाओं को प्रेरित किया। एक-दूसरे से प्रेरित होकर महिलाओं ने रुचि दिखायी और आत्मनिर्भर होने की दिशा में कदम बढ़ाया। धीरे-धीरे यह संख्या बढ़कर 12 गांवों तक पहुंच गई।

ग्राम मेढकी ताल के अलावा पिपरिया बिरसा, रामगढ़ी, सारना, मेघा सिवनी, बनगांव, खैरी भुताई, सुरगी, सहजपुरी, माल्हनवाड़ा, अतरवाड़ा और गारई की महिलाएं उद्यानिकी का काम कर रही है। निकट भविष्य में अनेक गांव तक इसे ले जाने की योजना है। इसके अलावा इन गांवों के प्रत्येक घरों के आंगन में 20 बाई 20 फीट का एक छोटा पोषण वाटिका बनाने के लिए इन्हें प्रेरित किया गया है। अब यहां की महिलाएं परिवार के सेहत के प्रति इतनी जागरूक हो चुकी हैं, कि वह पूरे परिवार के पोषण के लिए सक्रिय रहती हैं। एक तरह से हम कह सकते हैं, कि इस संक्रमण के समय गांवों में परिवारों के भरण-पोषण की जिम्मेदारी गांव की महिलाओं के हाथों में है।


पोषण खेती से लाभ कमाती महिलाएं

उल्लेखनीय है कि इन 12 गांवों में अधिकतर आदिवासी परिवार निवास करते हैं। इनके पास खेती की जमीन के अलावा आय का कोई दूसरा जरिया नहीं है। परंतु मार्गदर्शन और जानकारी के अभाव में यह लोग अपनी ही ज़मीन का सदुपयोग कर उसे आय का माध्यम नहीं बना पा रहे थे और रोज़गार के लिए गांव से पलायन करने पर मजबूर हो जाते थे। वरना खेती से जुड़े रहना इनकी प्राथमिकता में शामिल है। लेकिन बदली परिस्थिति में अब इन्हीं गांवों की महिलाएं न केवल रोज़गार का माधयम तलाश चुकी हैं बल्कि अपने परिवार के साथ साथ देश के पोषण का भी इंतज़ाम कर रही हैं।

यह आलेख भोपाल, मप्र से रूबी सरकार ने चरखा फीचर के लिए लिखा है

इस आलेख पर आप अपनी प्रतिक्रिया इस मेल पर भेज सकते हैं

features@charkha.org

Author

About
Ground Report

We do deep on-ground reports on environmental, and related issues from the margins of India, with a particular focus on Madhya Pradesh, to inspire relevant interventions and solutions. 

We believe climate change should be the basis of current discourse, and our stories attempt to reflect the same.

NEWSLETTER

Subscribe to get weekly updates on environmental news in your inbox.

More Like This

Support Ground Report

We invite you to join a community of our paying supporters who care for independent environmental journalism.

When you pay, you ensure that we are able to produce on-ground underreported environmental stories and keep them free-to-read for those who can’t pay. In exchange, you get exclusive benefits.

mORE GROUND REPORTS

Environment stories from the margins

LATEST