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केरल की जमींदार बेटी से छिंदवाड़ा की मदर टेरेसा तक: दयाबाई की कहानी

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केरल की जमींदार बेटी से छिंदवाड़ा की मदर टेरेसा तक: दयाबाई की कहानी
केरल की जमींदार बेटी से छिंदवाड़ा की मदर टेरेसा तक: दयाबाई की कहानी

मध्य प्रदेश की राजधानी में राज्य की एक प्रमुख और बड़े विश्विद्यालय द्वारा ‘वीमेन इन लीडरशिप’ यानि ‘नेतृत्व में महिलाएं’ विषय पर कार्यशाला का आयोजन हो रहा है। कार्यक्रम में देश के अलग-अलग हिस्से से आई महिलाएं अपना अनुभव साझा कर रही हैं। इसी बीच एक महिला जिसे देख कर पहली बार में ऐसा लगता है जैसे कोई आदिवासी समुदाय की सामान्य औरत है, मंच की ओर बढ़ती है। तमाम श्रोताओं की उम्मीद के विपरीत वह महिला अंग्रेज़ी भाषा में अपना अनुभाव साझा करना शुरू करती है। 

यह मर्सी मैथ्यू हैं. मगर छिंदवाड़ा के हर्रई ब्लॉक के गोंड आदिवासियों के लिए यह दयाबाई हैं। दयाबाई फिलहाल जिले के तिन्सई नामक गांव में रहती हैं। वह यहां रहने वाले आदिवासियों के बीच शिक्षा और स्वास्थ्य पर काम करती हैं। उनका जीवन एक सामाजिक कार्यकर्त्ता का जीवन है। दयाबाई ने न सिर्फ छिंदवाड़ा के आदिवासियों बल्कि बांग्लादेश से आए हुए शरणार्थियों से लेकर केरल के इंडोसल्फान पीड़ितों के लिए भी संघर्ष किया है।   

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मर्सी मैथ्यू उर्फ दयाबाई का जन्म केरल के कोट्टायम जिले के पाला शहर में 22 फरवरी, 1941 को हुआ। Photograph: (Special Arrangement)

केरल से मध्य प्रदेश तक का सफ़र

मर्सी मैथ्यू उर्फ दयाबाई का जन्म केरल के कोट्टायम जिले के पाला शहर में 22 फरवरी, 1941 को हुआ। यह वह समय था जब देश आज़ादी के लिए संघर्ष कर रहा था। उनके पिता मैथ्यू पुल्ला‌दू बड़े जमींदार तो थे ही लेकिन वह एक स्वाधीनता सेनानी भी थे। वह केरल में महात्मा गांधी के साथ भी काम कर चुके थे। 

दयाबाई की बातों में अब भी इसका असर दिखाई देता है। उनके पास गांधी से जुडी हुई कई कहानियां हैं जो उनको उनके पिता ने सुनाई थीं। एक गांधीवादी स्वाधीनता सेनानी की बेटी को विरासत में मानव सेवा का जो जज्बा मिला वह आज 84 बरस की उम्र में भी जारी है। 

धार्मिक शिक्षा के लिए उन्होंने मात्र 16 साल की उम्र में बिहार की यात्रा की। यहां उन्होंने भीषण गरीबी और मूलभूत ज़रूरतों के लिए आदिवासियों को संघर्ष करते हुए देखा। मर्सी ने सामाजिकी पर अपनी समझ को और पुख्ता करने के लिए यूनिवर्सिटी ऑफ़ मुंबई से मास्टर ऑफ़ सोशलवर्क (MSW) की पढ़ाई की। इसके अलावा उन्होंने मध्य प्रदेश आने के बाद सागर विश्वविद्यालय से कानून की पढ़ाई भी की। 

साल 1971 में जब बांग्लादेश बनाने के लिए भारत की सेना पकिस्तान से युद्धरत थी तब मर्सी बांग्लादेश से आने वाले शरणार्थियों की सेवा में लगी रहीं। इसी दौरान तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन कैनेडी के भाई एडवर्ड कैनेडी उस कैंप में आए जहां वह सेवारत थीं। यहां बतौर बेस्ट वॉलेंटियर मर्सी को कैनेडी से मिलने का मौका मिला। मर्सी बताती हैं,

“कैनेडी ने बाद में पत्र लिखकर मुझे अमेरिका आकर पढ़ने और आगे वहीं पर काम करने का प्रस्ताव दिया, लेकिन मैं अपने लोगों के बीच काम करना चाहती थी। इसलिए मैंने उस प्रस्ताव को नहीं चुना।”

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शुरूआती दौर में उन्हें मजदूरी कर गुजारा करना पड़ा और खुले आसमान के नीचे भी दिन गुजारने पड़े। Photograph: (Special Arrangement)

खुले आसमान से सारा आकाश तक का सफ़र 

मर्सी पहली बार छिंदवाड़ा गोंड समाज पर अध्ययन करने के लिए आईं। यहीं वह मर्सी मैथ्यू से दयाबाई हो गईं।  

शुरूआती दौर में उन्हें मजदूरी कर गुजारा करना पड़ा और खुले आसमान के नीचे भी दिन गुजारने पड़े। लेकिन यह हालात भी उनके हौसले को नहीं तोड़ सके। जिले के बारूल गांव में ही उन्होंने अपना अध्ययन एवं शोध केंद्र बनाया और आदिवासियों के रहन-सहन, उनके अंधविश्वास, परंपराओं, दैनिक कार्य शैलियों पर आधारित अनेक नुक्कड़ नाटक तैयार किए। इन नाटकों के जरिए वे समाज की कुरीतियों पर कुठाराघात करती और इस तरह वे अपनी बात लोगों के बीच पहुंचाती रही।

दयाबाई कहतीं हैं कि वह 14 भाई बहन थे लेकिन अब उनका परिवार से मिलना कम ही होता है। पिता के निधन के बाद वसीयत में मिले पैसों से उन्होंने गांव में ही करीब 12 एकड़ जमीन खरीदी। इसमें से 8 एकड़ जमीन वह सार्वजनिक उपयोग के लिए दान कर चुकीं हैं और शेष 4 एकड़ जमीन में जैविक खेती करतीं हैं जिससे उनका गुजर बसर होता है।

आज 84 साल की उम्र में भी दयाबाई उसी तत्परता से काम करती हैं। उनमें युवाओं जैसा जोश है। वे कई-कई किलोमीटर पैदल चलती हैं। नुक्कड़ नाटकों में उन्हें जोश के साथ गीत गाते हुए देखना दर्शकों को रोमांचित करता है। अपनी जायज बातों को मनवाने के लिए जब कोई तरीका काम नहीं आता है तो वह आमरण अनशन पर बैठ जाती हैं। 

केरल में एंडोसल्फान कीटनाशक जिसका उपयोग काजू, चाय के बागान आदि में खेती के लिए किया जाता था। मगर इसके इंसानी शरीर पर परिणाम इतने घातक थे कि केरल में कई बच्चे जन्मजात दिव्यांगता का शिकार हो गए। हालांकि 2011 में इसके इस्तेमाल को प्रतिबंधित कर दिया गया। 

केरल के कासरगोड में इससे प्रभावित होने वाले परिवारों को बेहतर इलाज और स्वास्थ्य सुविधाएं दिलवाने के लिए दयाबाई 82 साल की उम्र में आमरण अनशन पर बैठ गईं। उनकी यह हड़ताल 17 दिनों तक चली। बाद में राज्य सरकार की 2 महिला मंत्रियों के आग्रह पर उन्होंने अपना अनशन ख़त्म कर दिया था। 

तब एक अखबार से बात करते हुए उन्होंने कहा था,

“अगर सरकार मुझे दिए गए आश्वासनों को लागू करने में विफल रहती है तो मुझे अपना आंदोलन फिर से शुरू करने के लिए मजबूर होना पड़ेगा।”

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बांग्लादेशी शरणार्थियों से लेकर केरल के किसानों और मध्य प्रदेश के आदिवासियों तक, दयाबाई ने सबके लिए लड़ाई लड़ी। Photograph: (Special Arrangement)

सिनेमा में दिखाया जा चुका जीवन-दर्शन

दयाबाई खुद मीडिया की चकाचौंध से हमेशा दूर रहीं। लेकिन गोंड जनजाति के प्रति उनकी दया और समर्पण को देखते हुए पब्लिक सर्विस ब्रॉडकास्टिंग ट्रस्ट ने 2007 में एक फिल्म का निर्माण किया, इसमें यूएनडीपी ने भी आर्थिक सहयोग दिया। फिल्म की सूत्रधार नंदिता दास और निर्देशक भोपाल की प्रीति त्रिपाठी कपूर है। 

इस फिल्म को कई पुरस्कार मिले। इनमें 2009 में इंटरनेशनल वुमन फिल्म दिल्ली में बेस्ट बायोग्राफिकल डॉक्यूमेंटरी एवं  2008 में इफ्टेक की ओर से ट्राइबल स्पेशल अवार्ड प्रमुख है। 

2016 में मध्यप्रदेश नाट्य विद्यालय के विद्यार्थियों दयाबाई के जीवन पर केंद्रित एक नाटक ‘गोई’ का भारत भवन में मंचन किया गया। इसकी पटकथा नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा से निकले बालाजी गौरी ने लिखी थी, जबकि निर्देशन कुमारदास टीएन ने किया। इसमें दयावाई के संघर्ष के साथ यह भी दिखाया गया कि उम्रदराज़ होकर भी वे किस तरह लोगों को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक कर रही है। 

दूसरी तरफ़ केरल की वेट्टम मूवीज प्रोडक्शन हाउस भी दयाबाई पर फिल्म बना रही है। इसके निर्देशक श्रीवरुण और निर्माता जिजू सन्नी कहते हैं कि केरल में दयाबाई का नाम सुना तो इच्छा हुई कि उनके कार्यों को पूरी दुनिया जाने। फिल्म में दयाबाई का किरदार बांग्ला अभिनेत्री विदिता बाग निभा रहीं है।

दयाबाई एक समाज सेवक के साथ पर्यावरण की सजग प्रहरी भी हैं। वह पूरी तरह से प्राकृतिक और इको-फ्रेंडली जीवनशैली अपनाती हैं। वह कच्चे घर में रहती हैं, अपने खेत में ऑर्गेनिक खाना उगाती हैं और जीरो प्लास्टिक नीति का पालन करती हैं। खाना पैक करने के लिए प्लास्टिक की बजाय पत्तों का उपयोग करती हैं और यह नियम घर और बाहर दोनों जगह लागू करती हैं। 

दयाबाई को उनके समाज सेवा के कार्यों के लिए कई महत्वपूर्ण सम्मान प्राप्त हुए हैं। 2007 में महिला पत्रिका “वनिता” द्वारा उन्हें “वुमन ऑफ द ईयर” पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 2012 में उन्हें “गुड समैरिटन नेशनल अवार्ड” मिला। इसके अलावा त्रिशूर में उन्हें फादर वडक्कन स्मृति पुरस्कार भी प्रदान किया गया।

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