मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल एक अनोखी कहानी का गवाह है। यहां 24 लाख लोगों की आबादी वाले शहर की सीमा पर बाघ अपना साम्राज्य चलाते हैं। पिछले 15 सालों से चला आ रहा यह अनूठा सह-अस्तित्व अब एक नाजुक दौर से गुजर रहा है।
शुरुआत: जब पहली बार नजर आए ‘अर्बन टाइगर्स’
साल 2010 की गर्मियों में भोपाल के केरवा-रातापानी कॉरिडोर में पहली बार एक नर बाघ दिखाई दिया। तीन किलोमीटर चौड़े इस जंगली पट्टी में 27 जुलाई को दिखा यह बाघ महज एक आगंतुक लगा, लेकिन जल्द ही यह स्पष्ट हो गया कि यहां कुछ और ही होने वाला है।
फरवरी 2011 तक एक बाघिन भी उसके साथ आ गई। मार्च 2012 में ट्रैप कैमरे ने शावकों के साथ पहली तस्वीरें कैद कीं। यह वह क्षण था जब भोपाल, सीहोर और रायसेन जिलों के बीच का यह भूला-बिसरा जंगल बाघों का स्थायी निवास बन गया।
एपीसीसीएफ (वन्यजीव) एल कृष्णमूर्ति उस दौर को याद करते हुए बताते हैं, “जब हमने ऑपरेशन दुर्गा चलाया, तो एक बाघ के बजाय कई बाघ मिले। ये बुद्धिमान थे और इंसानों से बचने में माहिर थे। उनके व्यवहार से प्रभावित होकर हमने पकड़ने की योजना रद्द कर दी।”
‘दिन में लोग, रात में बाघ’: एक नाजुक संतुलन

इस निर्णय के साथ ही भोपाल में एक अघोषित समझौता हुआ। बाघों ने रात 11 बजे से सुबह 6 बजे तक की पारी अपनाई, जबकि दिन में शहर इंसानों का रहा। वर्तमान में भोपाल के आसपास 25-30 बाघ नियमित विचरण करते हैं, जिनमें से छह को ‘भोपाली बाघ’ कहा जाता है क्योंकि वे यहीं पैदा हुए और पले-बढ़े हैं।
वन विभाग ने निगरानी के लिए आधुनिक तकनीक अपनाई है। 50 मीटर ऊंचे चार टावर, नाइट विजन कैमरे और एआई से लैस निगरानी प्रणाली के जरिए इन बाघों की हर गतिविधि पर नजर रखी जाती है।
बढ़ता संघर्ष: चुनौती की घड़ी
हालांकि, यह सह-अस्तित्व अब दबाव में है। 2025 में भोपाल के आसपास 150 से अधिक मानव-बाघ संघर्ष के मामले दर्ज हुए, जो 2023 की तुलना में 50 प्रतिशत अधिक हैं। अर्बन टाइगर्स ने 2024 में 62 मवेशियों का शिकार किया, जबकि 2025 में अभी तक 25 ऐसी घटनाएं हो चुकी हैं।
डीएफओ लोकप्रिया भारती कहते हैं,
“हम प्रतिदिन आंकड़े एकत्र करते हैं और विश्लेषण करके समझते हैं कि बाघ कहां शिकार करते हैं। इससे ग्रामीणों को मुआवजा देने में भी मदद मिलती है।”
पर्यावरण कार्यकर्ता राशिद नूर बताते हैं, “रातापानी के 60 प्रतिशत बाघ भोपाल के जंगलों में प्रजनन के लिए आते हैं, लेकिन उनके प्राकृतिक आवास नष्ट हो रहे हैं।”
टूटते कॉरिडोर: जीवनरेखा का संकट

बाघ कॉरिडोर इन जानवरों की जीवनरेखा हैं। ये 1-5 किमी चौड़े प्राकृतिक गलियारे बाघों को एक क्षेत्र से दूसरे तक जाने की सुविधा देते हैं। राज्य में 21 बाघ कॉरिडोर विकसित करने की योजना है, जिसमें रातापानी टाइगर रिजर्व के तीन गलियारे ( रातापानी-खिवनी-ओंकारेश्वर-महू-धार, रातापानी-भोपाल-राजगढ़ और रातापानी-नौरादेही) शामिल हैं।
रातापानी-खिवनी-ओंकारेश्वर-महू-धार तक खंडित बाघ कॉरिडोर को पुन: जीवित करने का प्रयास किया जा रहा है। इसके लिए भोपाल-रातापानी-सिंघोरी ( मिंडोरा से रातापानी से सिंघोरी तक) और भोपाल-सीहोर-देवास (मिंडोरा से देवास खिवनी सेंचुरी तक) कॉरिडोर मजूबत होना जरूरी है। इस बात को ध्यान में रखते हुए साल 2012-2022 में इन दोनों टाइगर कॉरिडोर को भोपाल सामान्य वन मंडल की कार्ययोजना में शामिल किया गया है।
भोपाल-सीहोर-देवास कॉरिडोर रातापानी टाइगर रिजर्व को सीहोर और देवास के खिवनी जंगलों से जोड़ेगा। इसमें झालपिपली, झोलियापुल, सारस, रेहटी, लाड़कुई, खिवनी और खातेगांव बागली गांव शामिल है।
स्टेट फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट जबलपुर के वैज्ञानिक डॉ. अनिरुद्ध मजमूदार बताते हैं, “रातापानी की बाघ आबादी अनोखी है। इनके जैविक विवरण न तो कान्हा के बाघों से मेल खाते हैं और न ही पेंच के बाघों से।”
भोपाल सामान्य वन मंडल के सीसीएफ पीके वर्मा कहते हैं, “ये कॉरिडोर बाघों को बस्तियों से दूर रखेंगे और प्राकृतिक आवासों से जोड़ेंगे। इससे उनकी आनुवंशिक विविधता भी बनी रहेगी।”
अभयारण्य पर रोक: बड़ा झटका
भोपाल के अर्बन टाइगर्स के लिए सबसे बड़ा झटका तब लगा जब 30 जून 2025 को मध्य प्रदेश सरकार ने सरदार वल्लभभाई पटेल वन्यजीव अभयारण्य के प्रस्ताव पर रोक लगा दी।
सीहोर वनमंडल के 256.114 वर्ग किमी में प्रस्तावित यह अभयारण्य रातापानी को सीहोर और देवास के जंगलों से जोड़ता। इससे बाघों को 200 किलोमीटर का निर्बाध रास्ता मिलता। यह अभयारण्य भोपाल के अर्बन टाइगर्स के बढ़ते संरक्षण की आवश्यकता के जवाब में था। जैसे-जैसे इन बाघों की आबादी बढ़ रही थी और शहरीकरण का दबाव बढ़ रहा था, उनके लिए सुरक्षित गलियारों और आवासों की जरूरत महसूस होने लगी थी। रातापानी में पहले से ही 90 से अधिक बाघ है और यह अभयारण्य उन्हें घूमने के लिए विशाल और सुरक्षित जगह प्रदान करता।
जनजातीय समुदायों के विरोध और केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान के दबाव के कारण लिया गया यह फैसला वन्यजीव विशेषज्ञों के लिए बड़ा झटका था।
राशिद नूर चेताते हैं, “यह रोक अर्बन टाइगर के गलियारों को प्रभावित करेगी। शावकों के लिए नई टेरिटरी बनाने हेतु ये गलियारे महत्वपूर्ण हैं।”
वैज्ञानिक अध्ययन: नई खोजें
भारतीय वन्यजीव संस्थान देहरादून के अध्ययन से पता चला कि भोपाल के बाघ अपने जन्म स्थान से निकलकर ऐसे स्थानों तक पहुंच रहे हैं जहां कभी उनकी मां उन्हें लेकर नहीं गई थी।
इन अध्ययनों से सामने आया, “भोपाल के एक बाघ ने देवास पहुंचकर अपना कुनबा बढ़ाया। वहीं T-2 बाघिन के तीन बाघों में से एक ने सतपुड़ा तक पहुंचकर अपना साम्राज्य स्थापित किया।”
रातापानी: उम्मीदों का केंद्र
रातापानी को टाइगर रिजर्व का दर्जा मिलने से उम्मीदें जगी हैं, लेकिन चुनौतियां अभी भी बरकरार हैं। रातापानी के बफर जोन में 38 खनन परियोजनाएं सक्रिय हैं, जिनमें 15 अवैध हैं। 2015 से 2024 तक दिल्ली-मुंबई रेलवे ट्रैक पर 5 बाघ और 14 तेंदुए मारे गए।
पर्यावरण कार्यकर्ता अजय दुबे कहते हैं, “रातापानी में केवल 20 गश्ती शिविर हैं, जबकि हर 10 वर्ग किलोमीटर पर एक होना चाहिए।”
समाधान की तलाश
वन्यजीव विशेषज्ञ एचएस पाबला चेताते हैं, “मानव-बाघ संघर्ष का खतरा बढ़ गया है। बाघों के आवासों में कमी से इनब्रीडिंग की संभावना बनी है, जो उनकी रोग-प्रतिरोधी क्षमता को प्रभावित करेगी।”
डॉ. मजमूदार सुझाते हैं, “कॉरिडोर में शाकाहारी जानवरों का स्थानांतरण, घास के मैदान और वृक्षारोपण करना चाहिए ताकि बाघों को सुरक्षित रास्ता मिल सके।”
निष्कर्ष: संतुलन की चुनौती
भोपाल के अर्बन टाइगर्स की कहानी संरक्षण और विकास के बीच संतुलन की जरूरत को दर्शाती है। जलवायु परिवर्तन, तेज शहरीकरण और अवैध खनन ने इस नाजुक संतुलन को खतरे में डाल दिया है।
राशिद नूर का कहना है, “बाघों का घर बचाना हमारी जिम्मेदारी है। संरक्षण और विकास में संतुलन जरूरी है, वरना हम अपने जंगल और जलवायु खो देंगे।”
यह सवाल अब और भी गंभीर हो गया है कि क्या भोपाल का यह अनोखा ‘दिन में लोग, रात में बाघ’ वाला सह-अस्तित्व अपने अंतिम पड़ाव पर पहुंच गया है। जवाब इस बात में निहित है कि सरकार, वन विभाग और स्थानीय समुदाय मिलकर कैसे एक ऐसा रास्ता खोजते हैं जहां बाघों के घर को बचाया जा सके और इंसानों की सुरक्षा भी सुनिश्चित हो।
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