भारत के सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए अपने पुराने ‘वनशक्ति’ वाले निर्णय को वापस ले लिया है। इसमें पोस्ट-फैक्टो एनवायरनमेंटल क्लियरेंस (यानि किसी प्रोजेक्ट के शुरू होने के बाद पर्यावरण मंजूरी देना) को अमान्य बताया गया था। यह फैसला पर्यावरण के मामलों में एक बड़ा बदलाव माना जा रहा है। इससे यह सवाल फिर उठ गया है कि पर्यावरण की रक्षा और जनहित के बीच संतुलन कैसे कायम किया जाए। चीफ जस्टिस बी. आर. गवई की अध्यक्षता वाली तीन-न्यायाधीशों की पीठ, जिसमें जस्टिस के. विनोद चंद्रन और जस्टिस उज्ज्वल भुइयां शामिल थे, ने यह निर्णय सुनाया है। यह फैसला देशभर में पर्यावरणीय शासन और चल रहे इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स पर गहरा असर डाल सकता है।
पीठ के बहुमत और अल्पमत के विचार
यह फैसला 2:1 के बहुमत से दिया गया। चीफ जस्टिस बी. आर. गवई और जस्टिस के. विनोद चंद्रन बहुमत में थे। दोनों ने पुराने फैसले को वापस लेने का समर्थन किया, जिसमें यह कहा गया था कि प्रोजेक्ट शुरू होने के बाद मंजूरी देना गैरकानूनी है।
चीफ जस्टिस गवई का कहना था कि जो प्रोजेक्ट पहले से पूरे हो चुके हैं या लगभग पूरे हो चुके हैं, उन्हें तोड़ना सार्वजनिक संसाधनों की भारी बर्बादी होगी। जस्टिस चंद्रन ने भी यही बात दोहराई कि अगर सख्त प्री-क्लियरेंस नियम को इतनी कठोरता से लागू किया जाए कि बने हुए ढांचे को ही गिराना पड़े, तो इससे डेवलपर्स और आम लोगों दोनों को नुकसान होगा। उन्होंने कहा कि विडंबना यह है कि ऐसे विध्वंस से निकला मलबा खुद पर्यावरण को और नुकसान पहुंचाएगा।
वहीं, जस्टिस उज्ज्वल भुइयां ने इसका कड़ा विरोध किया। वे उसी बेंच का हिस्सा थे जिसने मूल ‘वनशक्ति’ फैसला सुनाया था। उन्होंने फिर से Precautionary Principle (सावधानी का सिद्धांत) के महत्व पर जोर दिया, यानि पर्यावरण को नुकसान पहुंचने से पहले ही उसे रोकना जरूरी है। उन्होंने चेताया कि Polluter Pays Principle (प्रदूषक भुगतान करे) का इस्तेमाल इस तरह नहीं होना चाहिए कि प्रोजेक्ट बिना मंजूरी शुरू कर दिए जाएं और बाद में जुर्माना देकर बच निकलें। उनका मत यह था कि पर्यावरण की रक्षा का असली मतलब है नुकसान होने से पहले रोकथाम करना, बाद में सुधार करना नहीं।
मूल ‘वनशक्ति’ फैसले पर एक नज़र
16 मई 2025 को दिए गए मूल वनशक्ति फैसले ने पोस्ट-फैक्टो एनवायरनमेंटल क्लियरेंस पर सख्त रोक लगा दी थी। इसमें साफ कहा गया था कि 2017 की नोटिफिकेशन और 2021 के ऑफिस मेमोरेंडम के तहत दी गई ऐसी मंजूरियां भविष्य में मान्य नहीं होंगी (हालांकि पहले से दी गई मंजूरियों पर कोई असर नहीं होगा)। अदालत ने कहा था कि किसी भी प्रोजेक्ट को शुरू करने से पहले पर्यावरणीय मंजूरी लेना अनिवार्य है।
यह फैसला इसलिए अहम था क्योंकि बहुत सारे प्रोजेक्ट बिना ईआईए (Environmental Impact Assessment) के ही शुरू हो जाते थे, जिससे सरकार के पास उन्हें रोकने या सुधारने का मौका ही नहीं बचता था।
पोस्ट-फैक्टो मंजूरी पर रोक लगाकर अदालत ने पर्यावरण शासन में कानून के राज को बहाल करने की कोशिश की थी और सस्टेनेबल डेवलपमेंट के सिद्धांत को मजबूत किया था। अदालत ने ऐसे सभी सर्कुलर और आदेश रद्द कर दिए थे जो पिछली तारीख से मंजूरी देने की अनुमति देते थे। लेकिन इस सख्त रुख के चलते व्यावहारिक समस्याएं भी खड़ी हुईं। कई बड़े प्रोजेक्ट, जो बिना मंजूरी के आगे बढ़ चुके थे, उनके ध्वस्त होने या बंद होने का खतरा पैदा हो गया। इससे भारी आर्थिक नुकसान और जनसुविधा पर असर पड़ने की आशंका बनी।
पर्यावरण और विकास पर असर
अब नया फैसला, जिसने वनशक्ति का निर्णय वापस लिया है, पर्यावरण नीति में एक बड़ा बदलाव लेकर आया है। सरकार को अब retrospective clearance (यानि बाद में मंजूरी देने) का अधिकार मिल गया है, खासकर उन मामलों में जिन्हें सार्वजनिक महत्व का माना जाएगा। इससे कई चल रहे प्रोजेक्ट्स को राहत मिल सकती है। जैसे ओडिशा में 962-बेड वाला एम्स अस्पताल, स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया का प्लांट, और विजयनगर में ग्रीनफील्ड एयरपोर्ट। विकास के नजरिए से देखा जाए तो यह फैसला ऐसे प्रोजेक्ट्स को कानूनी सुरक्षा देकर उन्हें तेज़ी से पूरा करने में मदद कर सकता है।
लेकिन इस फैसले के गंभीर पर्यावरणीय खतरे भी हैं। पोस्ट-फैक्टो मंजूरी की अनुमति देने से पर्यावरण सुरक्षा की पूरी प्रक्रिया कमजोर पड़ सकती है। इससे डेवलपर्स को यह गलत संदेश मिल सकता है कि पहले प्रोजेक्ट शुरू कर लो, मंजूरी बाद में मिल जाएगी। यह सोच Precautionary Principle के बिलकुल खिलाफ है और इससे पर्यावरणीय क्षति, जैव-विविधता की हानि और प्रदूषण बढ़ने की संभावना है। लंबी अवधि में यह पारिस्थितिक तंत्र और सार्वजनिक स्वास्थ्य दोनों के लिए नुकसानदायक साबित हो सकता है। अल्पमत में दिए गए जस्टिस भुइयां के विचार इन खतरों की चेतावनी देते हैं और अदालत से सतर्क बने रहने की अपील करते हैं।
सार में, सुप्रीम कोर्ट का यह नया फैसला पर्यावरण संरक्षण और व्यावहारिक शासन के बीच एक संतुलन साधने की कोशिश नजर आती है। अदालत ने देश की बुनियादी ज़रूरतों को मान्यता दी है, लेकिन साथ ही इससे पर्यावरणीय सुरक्षा के मानकों में ढील आने का खतरा भी पैदा हो गया है। यह फैसला आने वाले समय में और न्यायिक समीक्षा तथा बहस को जन्म देगा। खासकर पर्यावरणविदों, नीति-निर्माताओं और क़ानून विशेषज्ञों के बीच।
भारत में पर्यावरण कानून और सस्टेनेबल डेवलपमेंट की दिशा अब किस ओर जाएगी, यह देखना दिलचस्प और महत्वपूर्ण होगा। यह फैसला दिखाता है कि विकास और पर्यावरण के बीच टकराव अब भी जारी है, और इस जटिल रास्ते पर संतुलन बनाए रखने में न्यायपालिका की भूमिका पहले से कहीं ज़्यादा अहम हो गई है। आने वाले वर्षों में यह फैसला देश की पर्यावरणीय नीतियों और प्रोजेक्ट गवर्नेंस के ढांचे को गहराई से प्रभावित करेगा।
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