भोपाल के श्यामला हिल्स स्थित मानस भवन के पीछे बसी लगभग 70 साल पुरानी एक बस्ती इन दिनों प्रशासनिक कार्रवाई की आशंका के कारण असमंजस और डर के माहौल में है। 25 अगस्त को जिला प्रशासन द्वारा जारी नोटिस में 27 परिवारों को सात दिनों के भीतर मकान खाली करने के लिए कहा गया है। नोटिस में स्पष्ट रूप से लिखा गया है कि
“यह सरकारी भूमि है, अतः इसे खाली किया जाए, अन्यथा कार्रवाई की जाएगी।”
इस नोटिस के बाद बस्ती की दीवारों पर विरोध के पोस्टर लगाए गए हैं, जिन पर लिखा है: “हम घर नहीं न्याय मांग रहे हैं”, “घर बचाओ, अपनापन बढ़ाओ” और “जिनके घर उजड़े हैं, वो दीवाली नहीं संघर्ष मनाते हैं।” यह पोस्टर बस्ती के लगभग 200 से अधिक निवासियों, जिनमें ज्यादातर आदिवासी हैं, की चिंता और असुरक्षा को दर्शाते हैं।
27 परिवारों का आशियाना खतरे में

इस बस्ती की स्थापना 1950 के दशक में हुई थी, जब यह क्षेत्र शहर की सीमा से बाहर और मुख्य रूप से जंगल क्षेत्र था। कई परिवारों ने लकड़ी काटने और मजदूरी करके यहां बसावट की थी। अब यह इलाका शहर के प्रमुख हिस्सों में शामिल है। बस्ती में कच्चे और पक्के दोनों तरह के मकान बने हैं।
बस्ती की 80 वर्षीय रैला बाई बताती हैं,
“हमारे मां-बाप, भाई-बहन सब यहीं रहे और यहीं मरे। अब कहते हैं कि निकलो यहां से। क्या गरीब का घर होना अब गुनाह है?”
एक अन्य निवासी आयशा, जो निर्माण स्थल पर मजदूरी करती हैं, कहती हैं, “नोटिस में कहा गया है कि सात दिन में घर खाली करो। मेहनत से बनाया गया घर अब किसी की पार्किंग के नीचे दब जाएगा।”

बस्ती की एक अन्य बुजुर्ग महिला कर्मा बाई बताती हैं कि उन्होंने पूरी जिंदगी इसी बस्ती में बिताई है। वह कहती हैं, “दस बाय दस के कमरे में पांच लोग रहते हैं। यहीं खाना बनता है, यहीं सोते हैं। अब यही छत भी छीनी जा रही है।”
बस्ती की निवासी कल्पना वाखला बताती हैं कि कुछ महीने पहले जब सर्वे हुआ, तो बताया गया कि यह लाड़ली बहना योजना के लिए है। लेकिन सर्वे के बाद उन्हें घर खाली करने का नोटिस थमा दिया गया है। वे कहती हैं, सरकारी कागजों में खुद लिखा है कि यह जमीन वन विभाग की है और हम यहां पर 70 सालों से काबिज है, फिर हम अतिक्रमणकारी कैसे हो गए?”
बस्तीवासियों के पास मौजूद कागजों में यह जमीन वन भूमि है, जबकि जिला प्रशासन इस जमीन को राजस्व भूमि होने की बात कर रहा है। फिलहाल यह मामल राजस्व न्यायालय में विचाराधीन है। न्यायालय के फैसले ही से यह विवाद सुलझेगा और आगे की कार्रवाई तय होगी।
कानूनी स्थिति और प्रशासनिक पक्ष

स्थानीय वकील मोहन राजस्व कोर्ट में इस मामले में बस्तीवासियों की ओर से कानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं। उनके अनुसार, “यह बस्ती लगभग 70 साल पुरानी है और इसमें आदिवासी बहुलता है। भूमि वन विभाग की है, इसलिए वन अधिकार अधिनियम 2006 के तहत बिना उचित प्रक्रिया और पुनर्वास योजना के इन परिवारों को हटाया नहीं जा सकता।”
स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता अनीश थिलेनकेरी और पार्षद शबिस्त जकी भी इस कार्रवाई का विरोध कर रहे हैं। जकी ने कलेक्टर को ज्ञापन सौंपकर आदिवासी परिवारों की सुरक्षा की मांग की है।
दूसरी ओर, एसडीएम दीपक पांडे का कहना है कि यह भूमि राजस्व विभाग की है, न कि वन विभाग की। उन्होंने बताया,
“निवासियों को प्रक्रिया और नियमों के अनुसार भूमि खाली करने को कहा गया है। यह इलाका मिश्रित आबादी वाला है, लेकिन इसे केवल आदिवासी समुदाय के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है।”
एसडीएम पांडे के अनुसार, निवासियों को प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत पुनर्वास के लिए प्रेरित किया जा रहा है, जहां उन्हें बेहतर सुविधाएं दी जाएंगी। उन्होंने कहा कि प्रशासन बातचीत के जरिए समाधान खोजने का प्रयास कर रहा है।
प्रशासन का कहना है कि आवास योजना के तहत प्रभावित परिवारों को फ्लैट दिए जाएंगे, लेकिन बस्तीवासियों को इस पर भरोसा नहीं है। उनका कहना है कि जब तक ठोस पुनर्वास योजना और कानूनी प्रक्रिया स्पष्ट नहीं होती, वे अपने घर नहीं छोड़ेंगे। फिलहाल, बस्ती के लोग कोर्ट का सहारा लेने की तैयारी कर रहे हैं। दीवारों पर लगे पोस्टर और ज्ञापन उनकी आवाज बन चुके हैं।
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