महाराष्ट्र में जैन समुदाय और सरकार के बीच चल रहे विवाद ने एक गंभीर सवाल खड़ा कर दिया है – क्या लोकतंत्र में वोट बैंक की राजनीति पर्यावरण और न्यायपालिका से भी बड़ी हो जाती है?
विवाद की शुरुआत
यह टकराव अप्रैल में तब शुरू हुआ जब मुंबई नगर निगम ने विले पार्ले के एक प्राचीन जैन मंदिर का हिस्सा अवैध कब्जा बताकर तोड़ दिया। इसके बाद सरकार ने जुलाई में सार्वजनिक स्वास्थ्य के नाम पर मुंबई के 51 कबूतरखाने बंद करने की घोषणा की।
जैन धर्म में कबूतरों को दाना डालना जीव दया के सिद्धांत को दर्शाता है। समुदाय ने इसका जमकर विरोध किया और प्रदर्शन करते हुए कबूतरखानों में दाना डालना जारी रखा।
सबसे बड़ा विवाद तब खड़ा हुआ जब कोल्हापुर के जैन मठ में 30 साल से रह रही हथिनी माधुरी को अदालत के आदेश पर गुजरात के रेस्क्यू सेंटर भेज दिया गया। पेटा की शिकायत के बाद माधुरी की खराब सेहत का मुद्दा सामने आया था।
महाराष्ट्र में 14 लाख जैन आबादी है जो कुल जनसंख्या का मात्र 1.25% है। लेकिन राजनीति में इनका प्रभाव कहीं अधिक है। विधानसभा में 7 जैन विधायक हैं, जिनमें 6 भाजपा के हैं। प्यू रिसर्च के अनुसार 70% जैन भाजपा के समर्थक हैं।
इसी दबाव के कारण मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने कबूतरखाने तुरंत बंद न करने का आश्वासन दिया और माधुरी के मामले में सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दाखिल करने का वादा किया।
पर्यावरणीय चिंताएं
कबूतरों की बढ़ती संख्या से स्वच्छता, स्वास्थ्य और जैव विविधता के लिए गंभीर खतरे पैदा हो रहे हैं। वाइल्डलाइफ प्रोटेक्शन एक्ट के तहत हथिनी का कैद में रखना अपराध है। फिर भी सरकार न्यायालय के फैसले को चुनौती देने को तैयार है।
यह स्थिति एक बुनियादी सवाल उठाती है – जब वोट बैंक का दबाव इतना बढ़ जाए कि सरकार अदालती फैसलों की अनदेखी करने लगे, तो न्यायपालिका की स्वतंत्रता और कानून के राज का क्या होगा?
पर्यावरण संरक्षण, वन्यजीव सुरक्षा और यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले भी वोट बैंक की राजनीति के आगे हाशिये पर चले जाते हैं। यह महाराष्ट्र सरकार के लिए न केवल एक राजनीतिक बल्कि नैतिक दुविधा भी है।
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