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मिट्टी के बर्तन की कीमत भी मिट्टी, जानिए कारीगरों का दर्द

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दीपावली आने वाली है। चौक, चौराहे और बाजार सजने लगे हैं। लेकिन इन्हीं रोशनी और रौनक के बीच, सड़कों के किनारे बैठने वाले वे कारीगर हैं जो मिट्टी के बर्तन और दिए बनाते हैं। उनके नाम पर ‘वोकल फॉर लोकल’ और मिट्टी के दिए खरीदने के लिए सरकारें अभियान चलाती हैं, लेकिन अफसोस, इज्जत और कद्र सिर्फ बर्तनों की होती है, इन कारीगरों की नहीं। ग्राउंड रिपोर्ट के साथ सुनिए इन मिट्टी के कलाकारों का दर्द।

ग्राउंड रिपोर्ट की टीम ने राजगढ़ में उन कारीगरों से बात की जो कई वर्षों से मिट्टी के बर्तन, दिए और अन्य वस्तुएं बनाकर अपना जीवन यापन कर रहे हैं। दिन-रात की मेहनत के बावजूद, बदले में इन्हें क्या मिलता है—यह सवाल आज भी अनुत्तरित है।

बालचंद्र प्रजापति बताते हैं कि वे वर्षों से इस काम में लगे हैं, लेकिन दीपावली के त्योहार पर भी उनकी इज्जत नहीं बढ़ती। साल के बाकी दिनों में तो हालात और भी कठिन रहते हैं। जैसे-तैसे यही काम करके वे अपने परिवार का पालन-पोषण कर रहे हैं।

बालचंद्र के पुत्र राकेश कुमार कहते हैं कि उन्होंने बारहवीं तक पढ़ाई की है। उनका सपना था कि कहीं कोई प्राइवेट नौकरी मिल जाए, लेकिन पारिवारिक जिम्मेदारियों ने उन्हें भी पिता के साथ इस काम में लगा दिया। उनके दो बच्चे हैं, जिनमें से बड़ा बेटा डॉक्टर बनना चाहता है। राकेश कहते हैं, “देखते हैं आगे ईश्वर की क्या मर्जी है।”

यह कहानी सिर्फ बालचंद्र के परिवार की नहीं है। धापू बाई और कृष्णा प्रजापति भी इसी कठिनाई से गुजर रही हैं। धापू बाई बताती हैं कि वे सर्दी, गर्मी या बारिश—कभी मौसम नहीं देखतीं। मिट्टी लाकर उसे गढ़ने योग्य बनाती हैं, फिर बर्तन तैयार कर पकाती हैं और बाजार में बेचने जाती हैं। वहां उनका दिल टूट जाता है जब ग्राहक इन बर्तनों को महंगा बताकर भाव करने लगते हैं, जबकि इनमें उनकी मेहनत के अलावा कुछ नहीं होता।

वहीं लक्ष्मी की कहानी कुछ अलग है। मायके में रहते हुए उन्होंने कभी मिट्टी को छुआ तक नहीं था, लेकिन पारिवारिक जरूरतों को देखते हुए अब वे अपने पति के साथ इस काम में हाथ बटाने लगीं। उनके पति बर्तन बनाते हैं और रंगाई-पुताई से लेकर बाजार में बेचने तक का काम लक्ष्मी संभालती हैं। वे बताती हैं, “जिन लोगों ने हमें काम करते देखा है, वे हमारी मेहनत समझते हैं, लेकिन जिन्हें इस काम की जानकारी नहीं है, वे इसे मिट्टी के भाव में ही तौलते हैं। हमारी मेहनत इतनी होती है कि उसका अंदाजा हमें खुद भी नहीं रहता, जब तक हाथ-पैर जवाब न देने लगें।”

गौरतलब है कि मिट्टी के बर्तन बनाकर अपना जीवन चलाने वाले इन कारीगरों के लिए सरकारें वादे तो कई करती हैं, लेकिन उन्हें धरातल पर लागू नहीं किया जाता। मिट्टी के बर्तन जहां पर्यावरण के लिए महत्वपूर्ण हैं, वहीं इनमें खाना पकाना और खाना स्वास्थ्य के लिए भी लाभदायक है। ऐसे में सरकार को चाहिए कि इन कारीगरों को प्रोत्साहन दे और जो योजनाएं उनके लिए बनाई गई हैं, उनका लाभ वास्तव में उन तक पहुँचे, ताकि उनकी कद्र सिर्फ दिवाली के पाँच दिनों तक सीमित न रहकर सालभर बनी रहे।

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Author

  • Abdul Wasim Ansari is an independent journalist based in Rajgarh, Madhya Pradesh, bringing nearly a decade of experience in journalism since 2014. His work focuses on reporting from the grassroots level in the region.

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