भोपाल के 10 साल के आरिश खान समेत कई बच्चों की आंखों में कार्बाइड गन के कारण गंभीर चोटें आईं। डॉक्टरों ने इन बच्चों का इलाज एम्नियोटिक मेंब्रेन ट्रांसप्लांट से किया है, जो आंख की क्षतिग्रस्त सतह को ठीक करने में मदद करता है। यह झिल्ली जन्म के बाद मां के गर्भ से निकलने वाले इंसानी प्लेसेंटा से ली जाती है, और केवल सिजेरियन डिलीवरी (सी-सेक्शन) से ही सुरक्षित रूप से प्राप्त की जा सकती है। हर दानकर्ता की कड़ी मेडिकल जांच होती है ताकि संक्रमण का खतरा न हो।
दिक्कत तब आती है जब इस झिल्ली की उपलब्धता सीमित हो जाती है। भोपाल के हादसे में जब इलाज के लिए अनेक बच्चों की आंखों को इस मेंब्रेन की जरूरत पड़ी, तो सप्लाई कम होने की वजह से कई का इलाज देरी से शुरू हुआ। इसकी वजह है मेम्ब्रेन की तैयारी, स्टरलाइजेशन और प्रिजर्वेशन की जटिल प्रक्रियाएं, जो समय-साध्य हैं।
यही नहीं, भारत में हर राज्य और बैंक की मेंब्रेन तैयार करने की प्रक्रिया अलग-अलग होती है, जिससे गुणवत्ता और उपलब्धता दोनों में अस्थिरता रहती है। मेम्ब्रेन को सुरक्षित रखने के लिए -80 डिग्री सेल्सियस तापमान की आवश्यकता होती है।
इसलिए, कार्बाइड गन जैसी आपदाओं के बाद जब यह जरूरत अचानक बढ़ती है, तो यह स्वास्थ्य व्यवस्था के लिए एक बड़ी चुनौती बन जाती है। इसी कारण मातृत्व अस्पतालों में जागरूकता बढ़ाकर दानकर्ताओं की संख्या बढ़ाना और मानकीकृत, वैज्ञानिक रूप से तैयार प्रक्रिया अपनाना जरूरी है। भोपाल की यह त्रासदी हमें बताती है कि वैज्ञानिक प्रगति के साथ ही समुचित सिस्टम और नीतिगत तैयारी भी आवश्यक है।
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