भोपाल गैस त्रासदी को लगभग चार दशक बीत चुके हैं, लेकिन उसकी जहरीली विरासत आज भी भारत के सामने अनसुलझा सवाल बनी हुई है। यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री से निकले खतरनाक कचरे का निपटान लंबे समय से टलता रहा। लेकिन 2025 में इसे धार जिले के पीथमपुर में बने कचरा निपटान केंद्र तक पहुंचाया गया। इस कचरे को पहले जलाया (इंसीनरेट) गया है। अब इस जले हुए कचरे की राख को एक सुरक्षित लैंडफिल में दफनाने की तैयारी चल रही है। लेकिन जहां एक ओर यह कदम विषैले कचरे के प्रबंधन की दिशा में एक अहम पहल माना जा रहा है वहीं इससे जुड़े हुई कई जरूरी चिंताएं भी मौजूद हैं।
इंसीनरेशन से राख और राख से लैंडफिल तक
इस साल जनवरी में भोपाल यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री से 358 टन जहरीला कचरा विशेष सुरक्षा इंतज़ामों के बीच पीथमपुर भेजा गया। यहां इसे इंसीनेरेशन प्लांट में 1,000 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान पर जलाया गया। पहले इस इंसीनेरेशन के ट्रायल हुए, फिर इसे कई चरणों में अंजाम दिया गया। अंततः जून के अंत तक यह पूरा कचरा दहन प्रक्रिया से गुजर चुका था। हिंदी अखबार दैनिक भास्कर की रिपोर्ट के अनुसार इस पूरी प्रक्रिया के बाद लगभग 850 टन राख तैयार हुई है। जिसे लैंडफिल साइट में डंप किये जाने की योजना है।
मध्य प्रदेश के उच्च न्यायालय ने मध्य प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (MPPCB) से अगले चार हफ़्तों के अंदर राख के लैंडफिल में निस्तारण प्रक्रिया का प्लान मांगा है। एक बार उच्च न्यायलय की हरी झंडी मिलने के बाद इस पर काम शुरू हो जाएगा।
इस राख को रिसाव-रोधी बैगों में सील कर पीथमपुर में 2,500 वर्ग मीटर क्षेत्रफल वाले विशेष लैंडफिल में रखा जाएगा। सबसे विशेष बात यह है कि यह लैंडफिल जमीन के अंदर गड्ढा खोद कर नहीं बल्कि जमीन के ऊपर बनाई जाएगी। यह स्थल प्लास्टिक, रेत, मिट्टी और घास की कई परतों से सुरक्षित किया जाएगा और अधिकारियों के अनुसार इसे अगले 30 साल तक लगातार निगरानी में रखा जाएगा। डेक्कन क्रॉनिकल की रिपोर्ट के अनुसार इस साइट के अक्टूबर तक बनने का अनुमान है।
हालांकि सुरक्षित लैंडफिल की अवधारणा कोई नई नहीं है। 1970 के दशक में अमेरिका में बड़े पर्यावरणीय संकटों के बाद इसे अपनाया गया था। इसमें कई परतों वाले लाइनर, रिसाव रोकने की व्यवस्था और लीचेट संग्रह प्रणाली शामिल रहती है। आज दुनिया भर में इसका इस्तेमाल उन कचरों के लिए किया जाता है जिन्हें जलाने या रासायनिक प्रक्रिया से पूरी तरह खत्म नहीं किया जा सकता है।
सुरक्षित लैंडफिल बनाना सिर्फ गड्ढा तैयार करने भर की प्रक्रिया नहीं है। इसके निर्माण, संचालन, निगरानी और रखरखाव पर करोड़ों रुपये खर्च होते हैं। इसके लिए बड़ी ज़मीन की ज़रूरत पड़ती है, जिसे दशकों तक किसी अन्य उपयोग के लिए नहीं लिया जा सकता। साथ ही जहरीले कचरे को एक जगह से दूसरी जगह ले जाने में दुर्घटना का खतरा हमेशा बना रहता है।
दूसरी ओर विशेषज्ञों का मानना है कि लैंडफिल को हमेशा के लिए सुरक्षित नहीं कहा जा सकता। समय के साथ लाइनर कमजोर हो सकते हैं, निगरानी ढीली पड़ सकती है और देखभाल में लापरवाही हुई तो यही स्थल नए प्रदूषण का कारण बन सकता है। इसी विषय पर सामजिक कार्यकर्त्ता रचना ढींगरा सवाल उठाते हुए कहती हैं कि, कचरे को किसी भी लैंडफिल में डालें, वह आज नहीं तो कल ज़रूर लीक होगा।
विषैले कचरे के निस्तारण की सीमाएं भी हैं सामने
विशेषज्ञों के अनुसार खतरनाक कचरे के लिए कोई एकमात्र समाधान नहीं है। रासायनिक उपचार में जहरीले तत्व निष्क्रिय तो किए जा सकते हैं, लेकिन इससे नया कचरा भी बनता है। ठोस बनाना या स्थिरीकरण तकनीक में राख को सीमेंट या प्लास्टिक में मिलाकर बंद किया जाता है, पर यह केवल अस्थायी नियंत्रण है। जैविक उपचार कुछ कार्बनिक विषाक्त पदार्थों पर असरदार है, लेकिन भारी धातुओं पर बेअसर। तरल कचरे को गहरे कुओं में इंजेक्ट करने का तरीका भी अपनाया जाता है, लेकिन यह केवल तरल अपशिष्ट के लिए है।
इन सभी तरीकों की अपनी सीमाएं हैं। कहीं लागत बहुत अधिक है, तो कहीं दीर्घकालीन सुरक्षा की गारंटी नहीं है। यही कारण है कि इंसीनेरेशन के बाद भी बड़े पैमाने पर राख का सुरक्षित निपटान करना पड़ता है।
इसके अलावा दहन के दौरान वायु प्रदूषण का भी खतरा रहता है। अधूरा दहन डाइऑक्सिन और फ्यूरान जैसे जहरीले उत्सर्जन पैदा कर सकता है। हालांकि पीथमपुर परियोजना के संचालनकर्ताओं का दावा है कि प्रक्रिया प्रदूषण मुक्त रही, लेकिन पर्यावरण विशेषज्ञ और सामजिक कार्यकर्त्ता ऐसा नहीं मानते हैं। सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि, भारी धातुएं राख में जस की तस मौजूद हैं।
निस्तारण के बाद निस्तारण और ढेर सारे सवाल
850 टन राख की यह मात्रा कई स्वाभाविक प्रश्न खड़े करती है। सामाजिक कार्यकर्ता रचना ढींगरा इस पूरी प्रक्रिया पर पश्न उठाते हुए ग्राउंड रिपोर्ट से कहती हैं कि,
समस्या यह है कि हमारे एक्सपर्ट्स ने 300 मेट्रिक टन कचरे को तिगुना कर दिया है और इस तीन गुनी राख में भी भारी मात्रा में हैवी मेटल्स है। अगर इसे ऐसे ही कंटेनरों में छोड़ देते, तो शायद इतना नुकसान नहीं होता। लेकिन अब जलाकर स्थानीय लोगों को पूरी तरह एक्सपोज़ कर दिया गया है और कचरा तीन गुना बढ़ गया है।
मसलन रसायन शास्त्र के सिद्धांत ‘केमिकल मास बैलेंस’ के अनुसार 358 टन रासायनिक कचरे को जलाने के बाद 850 टन राख बनना संभव नहीं है। इंसीनेरेशन प्रक्रिया में कुछ हिस्सा गैस बनकर हवा में चला जाता है, जिससे राख का वजन कचरे से कम ही होता है।
केमिस्ट्री के शोधार्थी अपनी पहचान न बताने की शर्त पर ग्राउंड रिपोर्ट से कहते हैं कि,
358 टन कचरे में से अपेक्षित अवशेष लगभग 72 से 125 टन होना चाहिए। हाँ, यह 2:4:1 का द्रव्यमान अनुपात दर्शाता है। दिए गए आँकड़े गलत और जल्दबाजी में बनाए हुए लगते हैं।
राख में मुख्य रूप से ऐसे पदार्थ होते हैं जो जल नहीं पाते। अगर राख का वजन कचरे से ज्यादा दिख रहा है, तो इसका मतलब हो सकता है कि उसमें कोई दूसरी चीजें मिली हों, माप में गलती हो या रिपोर्टिंग में कोई समस्या हो। साधारण तौर पर, राख का वजन कचरे से ज्यादा नहीं हो सकता। पब्लिक डोमेन में मौजूद किसी भी रिपोर्ट में इन सभी संभावनाओं का स्पष्ट जवाब नहीं है, और कचरे के जलने से निकली तीन गुना अधिक राख अब भी एक प्रश्न चिन्ह बनी हुई है।
दूसरी ओर मीडिया रिपोर्ट्स की मानें तो इस राख में निकेल, जिंक, क्रोमियम, लेड, कोबाल्ट, कॉपर, मैंगनीज और मर्क्युरी जैसी भारी धातुओं की मात्रा मौजूद है। अगर भविष्य में कभी भी इन केमिकल के लीक होने की स्थिति बनी तो इस क्षेत्र के लिए कई तरह के प्रदूषण और खतरे सामने आ सकते हैं। ढींगरा कहती हैं,
असलियत यह है कि जिस जगह यह कचरा (बची हुई राख) गाड़ने की योजना है, वह आबादी से 50 मीटर भी दूर नहीं है। कोर्ट भी इस प्रस्ताव से संतुष्ट नहीं है, इसलिए उसने सरकार से चार हफ़्तों में नया प्लान मांगा है।
ढींगरा कहती हैं कि यह योजना खतरों से खाली नहीं है। बकौल ढींगरा भारत में इस तरह के (रेसीड्यू) कचरे के निस्तारण की प्रभावी तकनीक अभी विकसित नहीं हुई है। सबसे उपयुक्त था कि इस कचरे को अमेरिका ले जाया जाता। अगर कचरा अमेरिका नहीं भी भेजा जा सका तो कम से कम इसे कंटेनरों में ही पड़े रहने दिया जाता। लेकिन मध्य प्रदेश में ऐसा नहीं हुआ। ढींगरा आगे कहती हैं,
हम हाईकोर्ट से मांग रखेंगे की एक निष्पक्ष एक्सपर्ट कमेटी बनाई जाए जो इस निस्तारण से संभावित खतरे की जांच करे। हमारी एकमात्र उम्मीद कोर्ट से है। कोर्ट अगर सख्ती से “Polluter Pays Principle” लागू करे और डाउ-यूनियन कार्बाइड से सफाई करवाए, तभी न्याय संभव है। यह भी सुनिश्चित करना होगा कि टैक्सपेयर का पैसा बर्बाद न हो।
भोपाल गैस त्रासदी को चालीस वर्ष से अधिक हो चुके हैं, इसके बाद भी यह मुद्दा साल दर साल प्रासंगिक बना हुआ है। जब चालीस साल बाद यूनियन कार्बाइड के कचरे के निस्तारण की राह आगे बढ़ी तो भी वह सवालों के घेरों में है। ऐसे में जरुरी है कि जांच और प्रक्रिया निष्पक्ष और सावधानी पूर्वक हो।
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