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भोपाल में ‘एकलव्य फाउंडेशन’ का पर्यावरण अनुकूल भवन क्यों है खास?

भोपाल में 'एकलव्य फाउंडेशन' का पर्यावरण अनुकूल भवन क्यों है खास?

राजेश खिंदरी एकलव्य फाउंडेशन के पूर्व निदेशक हैं. यह संस्थान बच्चों और शिक्षकों के लिए रचनात्मक तरीके से पठन सामग्री तैयार करता है. मगर इस संस्थान के विभिन्न नवाचारी शैक्षिक कार्यों के अलावा इसका भवन भी रचनात्मक और पर्यावरण हितैषी है. भोपाल के जाटखेड़ी में स्थित उनका यह कार्यालय पर्यावरण अनुकूल तकनीक से बना है. इसकी भवन की नींव से लेकर दीवारों तक कुछ भी परंपरागत तरीके से नहीं बना है.

यही कारण है कि भीषण गर्मी में जब बाहर मौसम असहनीय हो जाता है तब भी यहाँ के कर्मचारी आराम से काम कर रहे हैं. राजेश खिंदरी हमें अपने अनुभव बताते हुए कहते हैं,

“भोपाल में 2 महीने से भी ज़्यादा समय तक गर्मी इस साल से पहले नहीं पड़ी थी. मगर भीषण गर्मी में भी हमने इस भवन के अन्दर असहज महसूस नहीं किया…उल्टा हम जब इस भवन के मुख्य दरवाज़े पर खड़े होते हैं तो अन्दर से आती हुई हवा हमें अहसास दिलाती है कि हमारा भवन अपेक्षाकृत ठण्डा है.”

संस्था के कार्यकारी अधिकारी मनोज निगम ने हमें बताया कि उन्होंने जब इस भवन की कल्पना की थी तब ही इसे पर्यावरण के अनुकूल बनाने का निर्णय ले लिया था. इस भवन की फ़र्श, दीवारें और नीँव तो पर्यावरण के अनुकूल है ही साथ ही यहाँ अपशिष्ट प्रबंधन और जल संरक्षण के उदाहरण भी देखने को मिलते हैं.

 

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एकलव्य के इस भवन में काम करने वाले कर्मचारी कहते हैं कि भीषण गर्मी में भी उन्हें इस भवन में अपेक्षाकृत राहत महसूस होती है

 

नींव से लेकर छत तक सब कुछ पर्यावरण हितैषी

खुद सिविल इंजीनिरिंग की पढ़ाई कर चुके मनोज ने हमें बताया कि उनका यह कार्यालय जिस ज़मीन पर बना है वहां काली मिट्टी पाई जाती है. काली मिट्टी अपने विस्तार और सिकुड़न के गुणों के चलते भवन निर्माण के लिए उपयुक्त नहीं मानी जाती. 

इस भवन के नीँव के निर्माण के लिए 10 फ़ीट तक खुदाई की गई थी. आम तौर पर नीँव को भरने के लिए मलबे का इस्तेमाल होता है और काली मिट्टी कहीं और फ़ेंक दी जाती है. मगर इस भवन में कालीमिट्टी को चूने की मदद से ठोस बनाया गया है. ऐसा करने से न सिर्फ़ मिट्टी को बर्बाद होने से बचाया गया है बल्कि ऊर्जा की बचत भी की गई है.

“यहाँ खुदाई में 200 से 250 ट्रक के बराबर मिट्टी निकली है. इतनी मिट्टी को परिवहन के ज़रिए कहीं और ले जाने में और इतना ही मलबा लेकर आने में जो ईधन की खपत होती हमने उसे बचाया है.”

हालाँकि इस भवन की छत को पारंपरिक कंक्रीट से ही बनाया गया है. मगर छत पर एक्सट्रूडेड पॉलिस्ट्रीन (XPS) इन्सुलेशन फ़ोम बोर्ड की एक परत लगाई गई है. यह इन्सुलेशन का काम करती है जिससे भवन का ऊपरी तल अपेक्षाकृत ठंडा रहता है.

इस भवन में लगभग दो लाख ईटें लगी है, जो मिट्टी, चूना, स्टोन डस्ट, फ्लाई ऐश की बनी है. इसमें केवल 3-4 प्रतिशत ही सीमेंट का उपयोग किया है. खास बात यह भी है कि यह सूरज की रोशनी से पकाई गई है. यानि ईट भट्टों से पर्यावरण को होने वाले नुकसान को भी कम किया गया है.

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यहाँ की दीवारों पर सीमेंट का प्लास्टर नहीं किया गया है ताकि हीट आइलैंड इफेक्ट को कम किया जा सके

दीवारें जो भवन को ठंडा रखती हैं  

इस भवन की पूर्व और पश्चिम दिशा में बनीं दीवारें ‘कैविटी दीवार’ हैं. यानि यह दीवारें दो दीवारों से बनी हैं जिनके बीच में एक रिक्त स्थान है. इस तकनीक के चलते दो दीवारों के बीच हवा को रिक्त स्थान मिल जाता है जिससे यह गर्मी में भवन को ठंडा और ठण्ड में भवन को गर्म रखती हैं. 

इस कार्यालय में बतौर डिज़ाईनर काम करने वाले राकेश खत्री इनमें से एक दीवार के पास बैठकर ही काम करते हैं. वह कहते हैं,

“अपने घर में जब हम किसी दीवार के पास बैठते हैं तो हमें भीषण गर्मी महसूस होती है. जबकि यहाँ मैं दिन का अधिकतर समय दीवार के पास ही बैठकर गुज़ारता हूँ तब भी मुझे ऐसा महसूस नहीं होता.”

आम भवनों के गर्मियों में अप्रत्याशित रूप से देर तक गर्म रहने एक प्रमुख कारण उनकी दीवारों में सीमेंट का प्लास्टर होना भी है. ऐसे में शहरी हीट आइलैंड प्रभाव (UHIE) कम करने के लिए बकौल मनोज इस भवन की दीवारों में प्लास्टर नहीं किया गया है जिससे भवन ज़्यादा देर तक गर्म नहीं होता. 

यही कारण है कि इस भवन में कूलर तो हैं मगर एयर कंडिशनर नही हैं. एकलव्य की प्रकाशन टीम के सदस्य शिवनारायण गौर बताते हैं,

“इस भवन के तापमान में बाहर की तुलना में करीब 5 डिग्री का अंतर होता है. यहाँ एसी नहीं हैं और कूलर भी सिर्फ़ कुछ जगह ही हैं. इसके बावजूद भी हमें गर्मी इतनी तीक्ष्णता से महसूस नहीं होती.”

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एकलव्य के इस भवन में एसटीपी मौजूद है जिसके शोधित पानी का इस्तेमाल पौधों में किया जाता है

पानी का संग्रहण और पुनः इस्तेमाल

गर्मी के दिनों में पानी का संकट हर शहर की सच्चाई है. भोपाल भी इससे अछूता नहीं है. मगर एकलव्य के इस परिसर की विशेषता बताते हुए मनोज कहते हैं कि वह वर्षाजल का संग्रहण करते हैं जिसे बाद में इस्तेमाल किया जाता है. साथ ही इस भवन में एक सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (STP) भी लगा हुआ है. इससे शोधन के बाद निकलने वाले साफ़ पानी का इस्तेमाल बगीचे में किया जाता है.

लगभग 30 हज़ार वर्गफीट में बने इस भवन में 4 रीचार्ज वेल बनाए गए हैं. प्रत्येक रीचार्ज वेल 5 फ़ीट तक चौड़े और 20 फ़ीट तक गहरे हैं. नालियों के माध्यम से वर्षा का जल यहाँ एकत्रित होता है. इस तरह यह भवन भूजल को भी रीचार्ज करता है.

एक अनुमान के मुताबिक रेन वाटर हार्वेस्टिंग के ज़रिए हम हर साल एक वर्ग मीटर के क्षेत्र में करीब एक हज़ार लीटर पानी बचा सकते हैं. मगर मनोज बताते हैं कि इन रीचार्ज वेल के चलते वह हर साल 40 से 50 लाख लीटर पानी बचा लेते हैं. साथ ही इस भवन में पुरुषों के मूत्रालय भी विशेष तकनीक से बनाये गए हैं जिनमें फ्लश के लिए पानी की आवश्यकता नहीं पड़ती. 

वाटरलेस यूरिनल मतलब क्या?

दरअसल भवन के शौचालय एकम इको सॉल्यूशन नामक संस्था द्वारा विकसित किए गए हैं. इस संस्था द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार मानव मूत्र को पानी से फ़्लश करना ज़रूरी है और ऐसा नहीं करने पर दुर्गन्ध आती है, यह बात एक मिथक है. उनके अनुसार चूँकि मानव मूत्र में 95 प्रतिशत पानी होता है अतः यह गुरुत्वाकर्षण के ज़रिए अपने आप ही फ़्लश हो सकता है. 

इनके द्वारा विकसित ‘वाटरलेस यूरिनल’ के मुख्य पाइप में एक बॉलनुमा आकृति होती है. यह यूरिनल इस्तेमाल करते हुए ऊपर आ जाती है. इस तरह पाइप के ज़रिए मूत्र अपने आप नीचे चला जाता है. इसके बाद यह बॉल वापस नीचे चली जाती है और पाइप को एयरलॉक कर देती है. इससे दुर्गन्ध नहीं फैलती और पानी की भी बचत होती है.

यानि यह भवन न सिर्फ़ वर्षा का पानी इकठ्ठा कर रहा है बल्कि अपनी पानी की खपत को कम भी कर रहा है. तभी मनोज कहते हैं, 

“हम अपने परिसर में न तो एक बूंद भी पानी बर्बाद करते हैं, न बाहर जाने देते हैं. हम हर बूंद को बचाते हैं.”

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भोपाल की कोच फैक्ट्री से लाई गईं खिड़कियों का इस्तेमाल इस तरह से किया गया है

वेस्ट मटेरियल से सज्जित भवन

इस भवन में अधिकतर जगहों पर वेस्ट मटेरियल का इस्तेमाल किया गया है. भवन की दीवारों पर ट्रेन के कोच से निकली हुई पुरानी खिड़कियों का उपयोग हुआ है. इसके अलावा कई जगहों पर कमरे के दो हिस्सों को अलग-अलग करने के लिए प्रिंटिंग प्रेस में इस्तेमाल होने वाले पेपर के कबाड़ रोल्स का इस्तेमाल किया गया है.

मनोज कहते हैं कि इसके पीछे उनका विचार वातावरण से अपशिष्ट को कम करना था.

हालाँकि यह भवन ‘हरित भवन’ (Green Building) के रूप में प्रमाणित नहीं है. मगर यह भवन उन सभी तरीकों का इस्तेमाल करता है जिससे पर्यावण को होने वाले नुकसान को कम किया जा सकता है. भवन में बेल और शहतूत के पेड़ लगाए गए हैं ताकि शहरी बच्चों को इनके बारे में बताया जा सके. साथ ही जामुन, आम के भी पेड़ मौजूद हैं जो जैवविविधता के लिहाज़ से महत्वपूर्ण हैं. बकौल मनोज,

“हमने पेड़ लगाते हुए भी सुन्दरता से ज़्यादा जैव विविधता के बारे में सोचा है.”

इस भवन के निर्माण में कुल 4.5 करोड़ का खर्च आया है. मनोज कहते हैं कि भले ही हर भवन को इस तरह से निर्मित न किया जा सकता हो मगर कुछ काम अवश्य किए जा सकते हैं. वह सरकार से अपील करते हुए कहते हैं कि हर रहवासी सोसाइटी में रेन वाटर हार्वेस्टिंग और इन हाउस वाटर ट्रीटमेंट प्लांट बनाना अनिवार्य किया जा सकता है. उनके अनुसार स्कूल कालेज और बड़े संस्थानों में वाटरलेस यूरिनल्स अनिवार्य करना चाहिए, यदि हम इतना भी कर लें तो पर्यावरण को काफी फ़ायदा पहुंचा सकते हैं. 

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Author

  • Shishir Agrawal

    Shishir identifies himself as a young enthusiast passionate about telling tales of unheard. He covers the rural landscape with a socio-political angle. He loves reading books, watching theater, and having long conversations.


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