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छिंदवाड़ा: मौत, मातम और व्यवस्था पर डगमगाता विश्वास

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मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा जिले में ज़हरीली कफ सिरप पीने के बाद कम से कम 22 बच्चों की मौत हो गई और कई बच्चे गंभीर किडनी फेलियर से जूझ रहे हैं। जांच में पाया गया कि इस सिरप में डायइथिलीन ग्लाइकोल (DEG) नामक ज़हरीला रासायनिक पदार्थ मिला हुआ था। सरकारी परीक्षणों में भारी मात्रा में मिलावट की पुष्टि होने के बाद सिरप पर प्रतिबंध लगा, स्थानीय डॉक्टर प्रवीण सोनी को गिरफ्तार किया गया, दवा अधिकारियों को निलंबित किया गया और पूरे राज्य में दवा को बाजार से वापस मंगवा लिया गया है।

सरकार ने विशेष जांच दल (SIT) गठित किया जिसनें शुक्रवार 10 अक्टूबर को दवा बनाने वाली कंपनी के डायरेक्टर जी रंगनाथन को सेशन कोर्ट में पेश किया। कोर्ट ने आरोपी को 10 दिन की रिमांड पर भेजा है। सरकार पहले ही पीड़ित परिवारों को मुआवज़ा देने की घोषणा की है और छोटे बच्चों को कफ सिरप न देने की सलाह जारी की है। राज्य और केंद्र दोनों स्तरों पर दवा नियमन को सख्त करने की प्रक्रिया शुरू हो गई है। इस त्रासदी के बाद विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने भारत में दवा सुरक्षा से जुड़ी खामियों पर चिंता जताई है, जिससे यह मामला अंतरराष्ट्रीय सुर्खियों में आ गया है और दवा नियमन में तुरंत सुधार की मांग उठी है।

शिवानी ठाकरे की 2 साल की बच्ची योजिता की मौत भी कफ़ सिरप पीने के बाद हुई है। फोटो: ग्राउंड रिपोर्ट

अमानक कफ सिरप बनी योजिता की मौत की वजह

छिंदवाड़ा जिले के परासिया में रहने वाली शिवानी ठाकरे ने अपनी 2 साल 3 माह की बच्ची योजिता को खो दिया। योजिता की मौत अमानक कोल्ड्रिफ कफ सिरप पीने की वजह से 4 अक्टूबर को हुई थी। 

इस पूरे घटनाक्रम की शुरुआत 8 सितंबर की शाम करीब 6:30 बजे हुई थी जब योजिता का पहला चेकअप डॉ प्रवीण सोनी के पास कराया गया था। इसके बाद उसी दिन उसे पहली बार कोल्ड्रिफ कफ सिरप पिलाया गया। 8 सितंबर को जब योजिता को तेज बुखार आया तो उसके परिजन योजिता को डॉ प्रवीण सोनी के पास लेकर गए। डॉक्टर ने यूरिन टेस्ट किया, दवाइयां लिखीं और कफ सिरप का एक डोज उसे वहीं पिलाया। डॉ सोनी के मुताबिक उन्होंने हर 6 घंटे में सिरप पिलाई। लेकिन अगले दिन तक योजिता का बुखार नहीं उतरा बल्कि और तेज हो गया, इसके साथ ही उसे उल्टी और दस्त भी होने लगी। इसके बाद जब परिजन योजिता को दोबारा डॉ सोनी के पास लेकर गए तब उन्होंने कुछ और जांचे करवाई। 

शिवानी याद करके बताती हैं कि शाम के तकरीबन 8:30 पर जांच की रिपोर्ट आई। रिपोर्ट देखकर डॉ सोनी ने कहा कि बच्ची की स्थिति गंभीर है, इसे एक्यूट किडनी फेलियर है। डॉ सोनी ने योजिता को 148 किलोमीटर दूर नागपुर लेकर जाने की सलाह दी। लेकिन नागपुर के आस्था मेडिकल हॉस्पिटल ने भर्ती करने से मना कर दिया, तो वे रात 1:30 बजे नेल्सन हॉस्पिटल पहुंचे। 10 सितंबर की रात उसे भर्ती किया गया और उसी दिन वॉटर डायलिसिस शुरू हुआ।

“चार-पांच दिन तक डायलिसिस चला। वो हमसे मिलने के लिए रोती थी, लेकिन मिलने का टाइम तय था। हमें बहुत बुरा लगता था, पर कुछ नहीं कर सकते थे।”

धीरे-धीरे हालत और बिगड़ती गई। शरीर सूज गया, ऑक्सीजन लेवल गिर गया, और बच्ची को वेंटिलेटर पर डालना पड़ा।

“उसने आखिरी बार बोला, ‘पापा, मुझे घर ले चलो।’”

नेल्सन हॉस्पिटल में 22 दिन तक बच्ची भर्ती रही। शिवानी कहती हैं,

“डॉक्टरों ने कभी नहीं बताया कि हमारी बच्ची लास्ट स्टेज में है। बस कहते रहे कि हालत क्रिटिकल है। हम दिन-रात दुआ करते रहे।”

1 अक्टूबर की शाम बच्ची को नागपुर के लता मंगेशकर हॉस्पिटल में ले जाया गया। हालत लगातार बिगड़ती रही। आखिर 4 अक्टूबर को, सिर्फ दो साल दो महीने की उम्र में, योजिता की मौत हो गई। योजिता के पिता सुशांत कहते हैं कि जब तक डॉक्टर ने लिखकर नहीं दिया कि ‘शी इज नो मोर’ तब तक हम प्रार्थना करते रहे कि वो बच जाए। 

योजिता की मां उसके स्वाभाव के बारे में बात करते हुए हमें 2 साल की बच्ची ले अलग-अलग वीडियो दिखा रही हैं। फ़ोटो: ग्राउंड रिपोर्ट

जिस दौरान योजिता का इलाज चल रहा था, उसी दौरान परासिया में कई मामले आ चुके थे जिनमें कोल्ड्रिफ कफ सिरप को बच्चों की मौत की वजह माना जा रहा था। इसी बीच सुशांत के घर में पानी, दवाओं और अन्य चीजों की जांच के लिए सैंपल लेने के लिए आंगनबाड़ी के लोग आए। सुशांत और शिवानी तब पूरी तरह से आश्वस्त हुए कि उनकी बेटी की जान अमानक कफ सिरप की वजह से गई है। 

योजिता के परिजनों को दोहरे दुःख से गुजरना पड़ा जब योजिता के अंतिम संस्कार के अगले दिन के बाद उन्हें योजिता का शव कब्र से खोदकर निकालना पड़ा। सुशांत बताते हैं कि उन्हें परासिया के एसडीओपी जितेंद्र जाट ने समझाया कि योजिता के पोस्ट मार्टम से सारी चीजें स्पष्ट होंगी और इससे अन्य बच्चों की जान बचाना और केस की तह पर पहुंचना संभव होगा। 

योजिता अपने माता पिता की अकेली संतान थीं। स्वाभाव से चुलबुली और तेज योजिता अपनी बुआ की चहेती थीं। योजिता के परिजन बाकी बच्चों और परिजनों को ध्यान में रखते हुए लगातार प्रशासन का सहयोग कर रहे हैं। 

घटनाक्रम में पहला मामला 24 अगस्त को आया था जबकि एफ़आईआर लगभग 2 माह दर्ज करवाई गई। फ़ोटो: ग्राउंड रिपोर्ट

प्रशासनिक घटनाक्रम

पहला मामला 24 अगस्त 2025 के आसपास सामने आया, जब शिवम् राठौर नाम के बच्चे में किडनी खराब होने और ट्यूब्युलर डैमेज जैसे लक्षण दिखे। डॉक्टरों ने इसे एक्यूट ट्यूब्युलर इंजरी (ATI) बताया। जांच में शामिल बायोप्सी रिपोर्ट में यह पुष्टि हुई कि बच्चे की किडनी को गंभीर नुकसान हुआ, जो सिरप में मिले ज़हरीले रसायन से मेल खाता है। रिपोर्ट में अस्पताल में भर्ती होने से लेकर बायोप्सी और हालत बिगड़ने तक की पूरी टाइमलाइन दर्ज है, जिसके आधार पर स्वास्थ्य विभाग और पुलिस ने कार्रवाई शुरू की।

सिरप बनाने वाली श्रीसन फार्मास्युटिकल्स कंपनी कांचीपुरम, तमिलनाडु में स्थित है। सिरप का बैच नंबर SR-13 था, जिसकी निर्माण तिथि मई 2025 और एक्सपायरी अप्रैल 2027 थी। जांच में पाया गया कि इस सिरप में डीईजी की मात्रा 46.28%-48.6% तक थी, जो सुरक्षित सीमा से बहुत ज़्यादा है।

यह एफआईआर परासिया बीएमओ (ब्लॉक मेडिकल ऑफिसर) द्वारा पहले मामले से तकरीबन सवा दो माह बाद 5 अक्टूबर को परासिया थाने में दर्ज कराई गई है। इसमें भारतीय न्याय संहिता (BNS) 2023 की धारा 105 और धारा 276 शामिल हैं। इनमें क्रमशः लापरवाही से नुकसान पहुंचाने और ज़हर देने से संबंधित अपराधों को परिभाषित किया गया है।

आरोपियों पर ड्रग्स एंड कास्मेटिक एक्ट, 1940 की धारा 27A के तहत मिलावटी या नकली दवाइयों के निर्माण और वितरण से जुड़े गंभीर अपराधों के लिए मामला दर्ज हुआ। एफआईआर में साफ़ तौर पर बताया गया है कि कोल्ड्रिफ कफ सिरप बनाने और सप्लाई करने वालों की लापरवाही और दवा सुरक्षा नियमों के उल्लंघन के कारण कई बच्चों की जान गई। एफ़आईआर में निर्माताओं के साथ ही वितरकों को भी घटना के लिए जिम्मेदार ठहराया गया। 

परसिया सेशन कोर्ट में जब रंगनाथन पर कानूनी कार्रवाई की जा रही थी उस समय न्यायालय के बाहर यासीन मलिक भी मौजूद थे। यासीन के 5 वर्षीय पुत्र अदनान की मृत्यु भी कफ सिरप के वजह से ही हुई है। यासीन ने अपने बेटे के इलाज के लिए अपना ऑटो तक गिरवी रख दिया था। ग्राउंड रिपोर्ट से बात करते हुए यासीन कहते हैं, 

जिन लोगों की वजह से हमारे बच्चों की जान गई है, उनकी संपत्तियों पर बुलडोजर चलना चाहिए। तब ही हम समझेंगे की इंसाफ हुआ है। 

हालांकि पुलिस और जिला प्रशासन लगातार इस मामले पर काम कर रहा है। बच्चों की स्क्रीनिंग की जा रही है। कचरा गाड़ियों और अन्य माध्यमों के जरिये लोगों तक संदेश पहुंचाया जा रहा है कि वे संदिग्ध कफ सिरप और दवाओं को जमा करें। एसआईटी मामले की तह पर जा रही है। कई दवाएं अब बंद कर दी गई हैं। लेकिन यह सारे कदम अक्टूबर में उठाए गए जबकि पहला मामला 24 अगस्त का था। यह एक प्रश्न खड़ा करता है कि क्या प्रशासन ने सक्रिय होने में देर तो नहीं कर दी?

अपनी भतीजी के साथ बैठे सलमान जिन्होंने अपनी 7 साल की बच्ची अथिया को खो दिया है। फ़ोटो: ग्राउंड रिपोर्ट

अखबार से पता लगा बेटी की जान कफ सिरप से गई 

छिंदवाड़ा में रहने वाले सलमान खान ने भी अपनी 7 साल की बेटी अथिया को खोया है। मृत्यु के करीब दस दिन पहले, 20 अगस्त को वह पहली बार बीमार हुई। जिला अस्पताल, छिंदवाड़ा में शुरुआती इलाज के बाद भी उसकी हालत में सुधार नहीं हुआ और 31 अगस्त को उसे गंभीर अवस्था में आईसीयू में भर्ती कराया गया। डॉक्टरों की कोशिशों के बावजूद, 3 सितंबर को उसकी मौत हो गई। परिवार ने बताया कि बीमारी अचानक बढ़ी थी और बच्ची की तबीयत लगातार बिगड़ती चली गई।

अथिया की भी जान अमानक कफ सिरप के सेवन की वजह से ही गई है। लेकिन सलमान को इसका इल्म तब तक नहीं था जब तक रोज-ब-रोज बच्चों की मौत नहीं होने लगी। घटना के एक महीने बाद जब आंगनवाड़ी के लोग सलमान के घर इलाज की जानकारी और दवा का सैंपल लेने पहुंचे तब उन्हें पता लगा कि अथिया की मौत भी अमानक दवा पीने से हुई है।    

अथिया के बड़े पापा, आमिर उसे एक पुलिस अफसर बनाना चाहते थे। लेकिन अमानक कफ सिरप ने उनके सपने और उनकी भतीजी को उनसे छीन लिया। ‘बब्बा मैं आ गई’ अथिया हमेशा घर आते वक्त आमिर से यही कहती थी। अब ये शब्द आमिर के कानों में गूंजते रहते हैं। 

कफ सिरप प्रकरण से असहज डॉक्टर 

छिंदवाड़ा में हुए कफ सिरप प्रकरण की वजह से लोगों का विश्वास अब स्वास्थ्य व्यवस्था से डगमगा गया है। दूसरी ओर इसका असर डॉक्टरों पर भी देखने को मिला है 

शिशु एवं बालरोग विशेषज्ञ और छिंदवाड़ा मेडिकल असोसिएशन की सदस्य डॉ अल्पना शुक्ला कहती हैं कि, सामान्य तौर पर जब किसी सिरप जैसी दवा तैयार की जाती है, तो उसमें स्वाद और घुलनशीलता के लिए एक सॉल्वेंट डाला जाता है, जैसे कि ग्लिसरीन। इसकी मात्रा तय होती है और मानक के अनुसार DEG की अधिकतम अनुमेय मात्रा 0.1% से कम होनी चाहिए। 

डॉ शुक्ला आगे कहती हैं, “लेकिन जांच में जो सामने आया, वह बेहद भयावह था इन शीशियों में DEG की मात्रा लगभग 48% पाई गई। सोचिए, इतनी अधिक मात्रा में यह रासायनिक जहर न केवल बच्चों के लिए बल्कि बड़ों के लिए भी घातक साबित हो सकता है। DEG का प्रभाव नेफ्रोटॉक्सिक होता है, यानी यह किडनी को बुरी तरह नुकसान पहुंचाता है। यह बात स्पष्ट है कि दवा का असली फॉर्मूलेशन या उसका संयोजन समस्या नहीं था, बल्कि समस्या केवल उस जहरीले पदार्थ की मिलावट थी, जिसने इन दवाओं को मौत का ज़रिया बना दिया।

डॉ शुक्ला ने कहा कि चिकित्सकों की जिम्मेदारी दवा लिखने की है, दवा में मिलावट रोकने की नहीं। “जो दवा बाज़ार में लाइसेंस प्राप्त होकर आती है, वह हमारे लिए सुरक्षित मानी जाती है। अगर उसमें मिलावट है तो उसकी जिम्मेदारी डॉक्टर की नहीं, उत्पादन और निगरानी व्यवस्था की है,” उन्होंने स्पष्ट किया।

डॉ शुक्ला कहती हैं कि चिकित्सकों की जिम्मेदारी दवा लिखने की है, दवा में मिलावट रोकने की नहीं। फ़ोटो: ग्राउंड रिपोर्ट

उन्होंने बताया कि अब चिकित्सकों के मन में डर बैठ गया है कि अगर किसी दवा में आगे भी कोई मिलावट पाई गई, तो प्रशासन किसी भी डॉक्टर को आधी रात में उठा सकता है। इसका असर आम मरीजों पर भी पड़ा है, लोग अब सामान्य बीमारियों में भी दवा लेने से डरने लगे हैं। “मरीज बार-बार पूछते हैं कि ‘मैडम, यह दवा पक्की है न? इसमें कोई नुकसान तो नहीं होगा?’ यह डर समाज और चिकित्सा व्यवस्था दोनों के लिए खतरनाक है,” उन्होंने कहा।

डॉ शुक्ला अब साइलेंट प्रोटेस्ट के तौर पर अपने हाथ में काला फीता बांध कर मरीजों का इलाज करती हैं। उन्होंने कहा कि किसी भी दवा की सबसे अहम कड़ी उसकी मैन्युफैक्चरिंग प्रक्रिया होती है। “हर दवा की नींव वहीं रखी जाती है। अगर किसी स्तर पर गलती होती है, तो उसके बाद भी कई चरण होते हैं ड्रग कंट्रोलर, इंस्पेक्टर और क्वालिटी टेस्टिंग जैसी व्यवस्थाएं, जो उस गलती को पकड़ सकती हैं और रोक सकती हैं।”

उन्होंने बताया कि अक्सर किसी दवा के एक विशेष बैच में गड़बड़ी सामने आने पर उसे तुरंत मेडिकल एडवाइजरी में दर्ज किया जाता है और उस बैच की बिक्री या उपयोग पर रोक लगा दी जाती है। “अगर यह सूचना समय पर सभी तक पहुंच जाए, तो ऐसी दवाइयां बाजार या अस्पताल तक पहुंच ही नहीं पातीं,” उन्होंने कहा।

डॉ. शुक्ला के अनुसार, समस्या तब गंभीर होती है जब क्वालिटी टेस्टिंग या कम्युनिकेशन चैन में चूक हो जाती है। “जहां भी गलती पकड़ी जाए, वहां से तुरंत स्पष्ट निर्देश आने चाहिए कि ‘इस बैच की दवा का उपयोग न करें।’ लेकिन जब यह संदेश समय पर नीचे तक नहीं पहुंचता, तो नुकसान बढ़ जाता है,” उन्होंने चेतावनी दी।

डॉ शुक्ला के साथ अन्य डॉक्टरों ने डॉ. सोनी की रिहाई और मृत बच्चों के प्रति संवेदना जाहिर करते हुए शनिवार 11 अक्टूबर की शाम एक कैंडल मार्च भी आयोजित किया था। 

लचर प्रशासनिक व्यवस्था 

2025 में जहरीली कफ सिरप से हुई बच्चों की मौतों के बाद मध्यप्रदेश की दवा जांच और नियामक व्यवस्था पर गंभीर सवाल उठे। जांच में पता चला कि राज्य की ड्रग टेस्टिंग लैब्स में कई खामियां हैं।

इंडिया टुडे की 10 और एनडीटीवी इंडिया की 8 अक्टूबर की रिपोर्ट के मुताबिक संदिग्ध कोल्ड्रिफ सिरप के सैंपल्स को स्पीड पोस्ट से भेजा गया था। जबकि यह काम तुरंत और इमरजेंसी कोरियर से होना चाहिए था। इस वजह से जांच शुरू होने में तीन दिन या उससे ज़्यादा की देरी हुई। उदाहरण के तौर पर, छिंदवाड़ा से भेजे गए सैंपल्स को भोपाल की एफडीए लैब तक पहुंचने में तीन दिन लगे। इसी तरह ग्वालियर और अन्य जिलों से आए सैंपल भी देरी से पहुंचे।

देरी का एक और कारण यह था कि पूरे राज्य में सिर्फ भोपाल की लैब काम कर रही थी। जबकि इंदौर और जबलपुर की नई बनी ड्रग लैब्स अब तक चालू नहीं की गई थीं क्योंकि उनमें तकनीकी मंज़ूरी, स्टाफ और उपकरणों की कमी थी।

इसके अलावा, दवाओं की त्वरित जांच के लिए खरीदी गई मोबाइल ड्रग टेस्टिंग वैन भी बेकार पड़ी मिली, जिसका इस्तेमाल नहीं किया जा रहा था। यह पूरे सिस्टम की लापरवाही की प्रतीक बन गई। इन खामियों की वजह से जहरीले सिरप को समय पर बैन नहीं किया जा सका, और कई बच्चों की जान चली गई। इसके बाद प्रदेश सरकार ने कोल्ड्रिफ सिरप पर प्रतिबंध लगाया और दवा के सैंपल उत्तर प्रदेश सहित अन्य राज्यों की लैब्स में भेजे।

मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव ने खुद माना कि राज्य की दवा जांच व्यवस्था में गंभीर समस्याएं हैं। उन्होंने लैब्स को आधुनिक बनाने और स्टाफ बढ़ाने के लिए फंड बढ़ाने की बात कही। सरकार ने लापरवाह अधिकारियों को निलंबित भी किया और सुधारों का आश्वासन दिया है। 

इस पूरे मामले ने स्वास्थ्य व्यवस्था पर आम जनता के विश्वास को कमजोर किया है। फ़ोटो: ग्राउंड रिपोर्ट

दूसरी ओर इस पूरे मामले ने स्वास्थ्य व्यवस्था पर आम जनता के विश्वास को कमजोर किया है। सुशांत मानते हैं, “अगर हमने योजिता घर में घरेलू नुस्खों से उपचारित किया होता तो आज शायद यह स्थिति न होती।” सुशांत का विश्वास अब स्वास्थ्य व्यवस्था से हिल चुका है। 

दूसरी ओर इन मामलों ने डॉक्टरों को भी असहज किया है। डॉ शुक्ला कहती हैं, “इन सब प्रकरणों से चिकित्सक एक अजीब माहौल में है, कुछ समझ नहीं आ रहा है कि क्या करें? इतने निमोनिया वाले मरीज चल रहे हैं परंतु अब यह भी ना लिखें, वह भी ना लिखें, स्वाभाविक रूप से हमें दवा लिखने में दिक्क्त आ रही है। वहीं अब मरीज भी हमसे बार-बार पूछ रहा है कि इस दवा से कोई गड़बड़ तो नहीं होगी।” डॉ शुक्ला ने आगे जोड़ा। 

अस्पताल, दवाएं, आमतौर पर लोगों के लिए एक आवश्यक सुविधा माने जाते हैं। यहां मरीज इस भरोसे के साथ जाता है कि डॉक्टर की लिखी दवा उसे स्वस्थ करेगी। लेकिन यासीन, आमीन, सुशांत और शिवानी जैसे कई परिवारों का भरोसा अब डॉक्टरों और दवाओं से उठ गया है।

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Authors

  • Journalist, focused on environmental reporting, exploring the intersections of wildlife, ecology, and social justice. Passionate about highlighting the environmental impacts on marginalized communities, including women, tribal groups, the economically vulnerable, and LGBTQ+ individuals.

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  • Sayali Parate is a Madhya Pradesh-based freelance journalist who covers environment and rural issues. She introduces herself as a solo traveler.

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