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क्या माईक्रोप्लास्टिक फिल्टर करने में सक्षम हैं भोपाल के वॉटर ट्रीटमेंट प्लांट?

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Bhopal Upper Lake Microplastic Issue
भोपाल का बड़ा तालाब जो माईक्रोप्लास्टिक के संकट से जूझ रहा है। फोटो पल्लव जैन, ग्राउंड रिपोर्ट

भोपाल का बड़ा तालाब सिर्फ ए‍क झील नहीं, शहर की जल-जीवन रेखा है। यह जीवनरेखा अब माइक्रोप्‍लास्टिक से जूझ रही है। पिछली दो खबरों में हमने बताया था कि कैसे बड़े तालाब के पानी का उपयाेग खेतों में सिंचाई के लिए और शहर की 40 फीसदी आबादी पी रही है। इससे फसलों की गुणवत्ता और मानव स्‍वास्‍थ्‍य पर असर पड़ रहा है। अब सवाल यह है कि इस संकट से निपटने के लिए कौन सी तकनीकें हैं? क्या भोपाल में मौजूदा जल शोधन संयंत्र इस खतरे से निपटने में सक्षम हैं?

भोजताल का पानी सच में साफ या दिखाता साफ है ?

भोपाल का बड़ा तालाब या अपर लेक सिर्फ एक झील नहीं है। यह 1000 साल पुराना तालाब शहर की पहचान और जल जीवन रेखा है। आज भी तालाब भोपाल शहर की 40 फीसदी आबादी को रोजाना पीने का पानी देता है। इस झील से पर्यटन, मछली पालन और सिंचाई जैसे कार्यों के माध्‍यम से हजारों लोगों की आजीविका भी जुड़ी हुई हैं। वैज्ञानिक अध्‍ययनों से खुलासा हुआ है कि तालाब का पानी माइक्रोप्‍लास्टिक, अनुपचारित सीवेज और अतिक्रमण की चुनौतियों से जूझ रहा है। ऐसे में तालाब के पानी की गुणवत्ता पर गंभीर सवाल खड़े हो रहे है। 

Bhopal Uper Lake Plastic Pollution Issue
भोपाल बड़ा तालाब के किनारे बैठे कुछ लोग, यहां जहां तहां आपको कचरा फैला दिखाई देता है। फोटोे पल्लव जैन, ग्राउंड रिपोर्ट

इस स्थित‍ि में सबसे अहम और गंभीर सवाल उठता है। जो पानी आप साफ समझ कर पी रहे हैं वो कितना स्‍वच्‍छ है?

हालिया वैज्ञानिक अध्‍ययनों और रिपोर्ट्स ने तालाब के पानी की गुणवत्ता पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए है। यदि समय रहते इन सवालों या माइक्रोप्‍लास्टिक की समस्‍या का समाधान नहीं खोजा गया। तो यह आने वाले समय में गंभीर स्‍वास्‍थ्‍य समस्‍या के रूप में उभर कर सामने आएगा। इसमें कैंसर जैसी बीमारियां भी शामिल होंगी।  

कैसा है शहर का वॉटर सप्‍लाई सिस्‍टम 

शहर की 23.39 लाख आबादी को नगर निगम भोपाल चार स्रोतों से जलापूर्ती करता है। इन चारों जल स्रोतों से 460 एमएलडी पानी की आपूर्ति की जाती है। वर्तमान में शहर में 514 एमएलडी पानी की जरूरत हैं। 

बड़ा तालाब:  सबसे प्रमुख जल स्रोत बड़ा तालाब है। इसका जलग्रहण क्षेत्र 361 वर्ग किमी है, जो 87 गांवों में 1500 हेक्‍टेयर की सिंचाई करता है। वहीं शहर की 40 फीसदी आबादी को पीने का पानी देता है। इससे हर रोज 110 MLD पानी की आपूर्ति की जाती है। पानी को 14 वॉटर ट्रीटमेंट प्‍लांट से ट्रीट किया जाता है। इस ट्रीटेड पानी को पंप स्‍टेशन पाईप लाइन के ज़रिए लोगों तक पहुंचाते हैं। बड़े तालाब का पानी पुराने भोपाल के ( हमीदिया रोड, पीर गेट, जहांगीराबाद, मंगलवारा, गोविंदपुरा, नादरा बस स्‍टैंड, इब्राहिमपुरा, बैरागढ़ आदि) इलाकों में सप्‍लाई किया जाता है।  

कोलार बांध: यहां से 170 MLD पानी लिया जाता है। नए क्षेत्रों जैसे होशंगाबाद रोड, कोलार रोड, एमपी नगर और रचना नगर आदि को यहां से पानी सप्‍लाई होता है। सप्‍लाई से पहले  इसके पानी को कोलार में स्थित 1 वॉटर ट्रीटमेंट प्‍लांट में उपचारित किया जाता है। 

केरवा : केरवा डैम से 2017 से पानी की आपूर्ति की जा रही है।  यहां से  20 MLD पानी लिया जाता है। जोकि कोलार क्षेत्र, संतनगर जैसे इलाकों में पानी सप्‍लाई होता है। केरवा के पानी को महूखेड़ा वॉटर ट्रीटमेंट प्‍लांट में ट्रीट किया जाता है।   

नर्मदा नदी: नर्मदा से 160 MLD लिया जा रहा है। यह पानी अरेरा कॉलोनी, श्‍यामला हिल्‍स, बागमुगलिया और 1100 क्‍वार्टर्स जैसे क्षेत्रों की 7 लाख आबादी को सप्‍लाई किया जाता है। 

इसके अलावा शहर में कई अन्‍य छोटे जलाश्‍यों स्थित है। जो स्‍थानीय स्‍तर पर सिंचाई और अन्‍य उपयोगों के लिए महत्‍वपूर्ण है। लेकिन पेयजल आपूर्ति में इनका योगदान सीमित है। 

कुछ ऐसा है हमारा पानी उपचार करने का सिस्‍टम  

water treatment plant of Bhopal
नगर निगम भोपाल का जल शोधन केंद्र, यहां 225 लाख लीटर पानी प्रतिदिन ट्रीट करने की क्षमता है

भोपाल में 17 जल उपचार संयंत्र काम करते है। इनमें से 14 वॉटर ट्रीटमेंट प्‍लांट बड़े तालाब से पानी लेकर ट्रीट करते है। बड़े तालाब के पानी को शुद्ध करने में प्रमुख जल उपचार संयंत्र में भदभदा, श्‍यामला हिल्‍स-1, श्‍यामला हिल्‍स-2 और मनुआभान टेकरी शामिल है। जबकि नर्मदा नदी, केरवा डैम, कोलार डैम के पानी को शुद्ध करने के लिए एक-एक वॉटर ट्रीटमेंट प्‍लांट काम कर रहे है। शहर के सभी वॉटर ट्रीटमेंट प्‍लांट रैपिड सैंड फिल्‍टरेशन (RSF) तकनीक का इस्‍तेमाल करते है। भोपाल नगर निगम, जलकार्य विभाग और सीवेज प्रकोष्‍ठ प्रभारी अधीक्षण यंत्री उदित गर्ग इस तकनीक में पानी किस तरह से शुद्ध होता है यह समझाते हैं,

‘यह तकनीक पांच चरणों में काम कर पानी को शुद्ध करती है।’ 

पहला चरण में स्‍क्रीनिंग: इसमें पानी काे 5-10 मिमी के जाल से छाना जाता है। यह पत्त‍ियां, बोतलें जैसे बड़े कचरे को रोकता है। 

कोएगुलेशन और फ्लोकुलेशन : यहां एलम ( 20-50 mg/L) जैसे रसायन डालकर कणों को एकत्र किया जाता है। यह 20-30 प्रतिशत माइक्रोप्‍लास्टिक (100-600 माइक्रोन) को फंसाता है। 

नैशनल इंस्टीट्यूट फॉर रीसर्च इन इंवायरमेंटल हेल्थ भोपाल द्वारा फरवरी 2023 में भोपाल के बड़ा तालाब में मौजूद माईक्रोप्लास्टिक पर एक स्टडी की गई थी। इस रीसर्च टीम का हिस्सा डॉ. सूर्या सिंह कहती है,

‘मौजूदा ट्रीटमेंट प्लांट से 45 माइक्रोन से छोटे कण, खासकर फाइबर्स, रसायनों से नहीं जुड़ पाते है और बच निकलते हैं।’ 

सेडिमेंटेशन: इस प्रक्रिया में भारी कण नीचे बैठते हैं। यह 27-149 माइक्रोन के माइक्रोप्‍लास्टिक को हटा सकता है। जबकि हल्‍के कण, जैसे पॉलीथीन, डिस्‍पोजल आदि पानी में तैरते रहते है। 

मुख्‍य चरण रैपिड सैंड फिल्‍टरेशन : इसमें पानी को रेत की परतों (0.5-1 मिमी) से गुजारा जाता है। इस प्रक्रिया के लिए संयंत्र में 2-3 मीटर गहरे बेड बने होते है, जोकि 70-80 प्रतिशत माइक्रोप्‍लास्टिक ( 45 माइक्राेन से बड़े) को रोकते है। लेकिन 45 माइक्रोन से छोटे कण रेत के छिद्रों से निकल जाते हैं, जो पेयजल में रह जाते हैं। 

अंत में डिसइंफेक्‍शन :  अंतिम चरण में क्‍लोरीन ( 0.5-1 mg/L) और यूवी किरणों ( 40 mj/cm²) से कीटाणु मारे जाते हैं। हालांकि माइक्रोप्‍लास्टिक रासायनिक रूप से स्थित होते हैं, इसलिए ये इस चरण में भी नहीं हटते है। 

हमारे जल उपचार संयंत्र कितने समक्ष 

water treatment plants of Bhopal
जल शोधन केंद्र में अलग अलग चेंबर्स से गुज़रता पानी

हालांकि ऐसा नहीं है कि हमारे वाॅटर ट्रीटमेंट सिस्‍टम माइक्रोप्‍लास्टिक को हटाने में पूरी तरह से असमक्ष है। यह संयंत्र अपनी सीमित क्षमता पर काम कर रहे हैं और काफी हद तक माइक्रोप्‍लास्टिक को हटाने में कारगार भी है। परंतु यह 45 माइक्रोन से छोटे कणों को हटाने में समक्ष नहीं है। 

एडवांस मेटिरियल एंड प्रोसेसेज रिसर्च इंस्टिट्यूट की वैज्ञानिक दीक्षा चौधरी कहती हैं,

‘वर्तमान में हमारे वॉटर ट्रीटमेंट प्‍लांट रैपिड सैंड फिल्‍टरेशन ( RSF) तकनीक पर काम रहे हैं, जोकि माइक्रोप्‍लास्टिक को पूरी तरह से हटाने में असमक्ष हैं।’

दीक्षा, आगे समझाती हैं,” ऐसा इसलिए होता हैं, क्‍योंकि 45 माइक्रोन से छोटे कण ( खासकर फाइबर्स) रसायनों से जुड़ नहीं पाते और बच निकलते हैं। ऐसे में उपचार के बाद भी वे पानी में मौजूद रहे जाते हैं।”  दीक्षा वर्तमान में जल शोधन उपकरणों पर काम कर रही है। 

इसकी पुष्टि वैज्ञानिक रिपोर्ट भी करती है कि ये रैपिड सैंड फिल्‍टरेशन संयंत्र 80 प्रतिशत माइक्रोप्‍लास्टिक हटाते हैं, लेकिन 45 माइक्रोन से छोटे कण पानी में रह जाते हैं। 

वहीं भारत सरकार के अनुसंधान संस्‍था एम्‍प्री ( एडवांस्‍ड मटेरियल प्रोसेस रिसर्च इंस्‍टीट्यूट) द्वारा भोपाल के दो जलाश्‍यों ( बड़ा तालाब, छोटा तालाब) और दो वॉटर ट्रीटमेंट प्‍लांट ( बिरला मंदिर और केरवा डैम WTP) से सेंपल लेकर माइक्रोप्‍लास्टिक की जांच की। इस जांच को रिपोर्ट को कैग ( इंडियन ऑडिट और अकांउट डिपार्टमेंट) ने साल 2024 में वेस्‍ट मेजेटमेंट इन अर्बन लोकल बॉडीज ऑडिट रिपोर्ट में भी शामिल किया है। इस रिपोर्ट में सामने आया कि बड़े तालाब के पानी में 1480 से 2050 कण प्रति घनमीटर मिले है, जबकि छोटे तालाब में य‍ह प्रति घनमीटर 2160 से 2710 है। 

रिपोर्ट में केरवा बांध के प्‍लांट में उपचार से पहले पानी में माइक्रो प्‍लास्टिक 820 कण प्रति घनमीटर था और ट्रीटमेंट के बाद 450 मिले। इसी तरह बिड़ला मंदिर के वॉटर ट्रीटमेंट से पहले 790 कण और ट्रीटमेंट के बाद 330 कण प्रति घनमीटर मिले। रिपोर्ट के मुताबिक नूमनों में माइक्रोप्‍लास्टिक रेशों, टुकड़ों और छर्रों के आकार में मिले हैं।

सीवेज ट्रीटमेंट प्‍लांट माइक्रोप्‍लास्टिक्‍स हटाने में नाकाफी  

भोपाल में 18 सीवेज ट्रीटमेंट प्‍लांट्स ( STP) काम कर हैं। इनमें 8 बड़े तालाब, 8 छोटी झील, एक-एक केरवा-कोलार में सीवेज और नालों के पानी का उपचार करते है। इसे बाद में जलाश्‍यों में छोड़ा जाता है। यह सीवेज ट्रीटमेंट प्‍लांट पारंपरिक प्राथमिक और द्वि‍तीयक उपचार (एसबीआर, यूएएसबी, एजीबीबीआर) तकनीक पर काम करते है। इसमें प्राथमिक उपचार प्रक्रिया में जाली के माध्‍यम से कचरे को रोका जाता है और बाद में सेंडिमेंटेशन प्रोसेस से भारी कणों को नीचे बैठाने के लिए प्राइमरी सेटलिंग टैक का उपयोग किया जाता है। हालांकि द्वि‍तीयक उपचार में जैविक तरीके से उपचार किया जाता है। इसमें एक्टिवेटेड स्‍लज प्रकिया (ASP) या ट्रिकलिंग फिल्‍टर का उपयोग होता है। बाद में कोएगुलेशन-फ्लोक्‍यूलेशन से रासायनिक पदार्थों को अलग करते है। वहीं शहर के अधिकांश STP में तृतीयक उपचार ( उन्‍नत फिल्‍टर या कीटाणुशोधन) का अभाव है, लेकिन कुछ में क्‍लोरीनेशन होता है। 

भोपाल स्थित सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट

हालांकि ऐसा नहीं हैं कि शहर में संचालित सीवेज संयंत्रों में माइक्रोप्‍लास्टिक नहीं हटाते है। परंतु यह सीवेज संयंत्र अपनी सीमा में ही माइक्रोप्‍लास्टिक को हटा पाते है। यानि 45 माइक्रोन से छोटे कणों को हटाने में यह पूरी तरह से असमक्ष है, क्‍योंकि इन्‍हें डिजाइन ही इस तरह नहीं किया गया। 

वहीं CPCB की ताजा रिपोर्ट चौंकाती है। इस रिपोर्ट के मुताबिक शहर में प्रतिदिन 285 एमएलडी सीवेज उपचारित हो रहा है। इसमें से केवल 40 एमएलडी सीवेज का उपचार हो पाता है। परंतु  तालाब में रोजाना 285 एमएलडी यानी 24 करोड़ 50 लाख लीटर प्रतिदिन सीवेज मिलता है। 

हालांकि नगर निगम दावा करता है कि शहर में 18 STP और सीवेज पंप स्‍टेशन संचालित है। जिसकी 204 एमएलडी सीवेज उपचार क्षमता है। 

वॉटर सांइस एंड टेक्‍नोलॉजी में मार्च 2025 को प्रकाशित एक अध्‍ययन के अनुसार, भोपाल के STP में स्‍लज में सबसे ज्‍यादा माइक्रोप्‍लास्टिक पाया गया। इसके बाद इनलेट और आउटलेट का स्‍थान था। यहां करीब 13 प्रकार के माइक्रोप्‍लास्टिक ( इनमें पॉलीइथि‍लीन, पॉलीप्रोपाइलीन, पॉलीइथि‍लीन-टेरेफ्थेलेट, पॉलीविनाइलक्‍लोराड, पॉलीएस्‍टर, पॉलीयूरेथेन, पॉलियामाइड, पॉलीस्‍टाइरीन, पॉलीविनाइल स्‍टीयरेट माइक्रोप्‍लास्टिक के सबसे आम प्रकार थे) की पुष्टि हुई है। जो पारंपरिक उपचार प्रक्रियाओं से नहीं हट पाता है। ये सीवेज संयंत्र केवल 20-30 प्रतिशत माइक्रोप्‍लास्टिक हटा पाते है और बाकी कण पानी या स्‍लज में रह जाते हैं।

इस अध्‍ययन में भोपाल और इंदौर के क्रमश: 3 व 4 सीवेज ट्रीटमेंट प्‍लांट में माइक्रोप्‍लास्टिक की मौजूदगी मिली है। अध्‍ययन के लिए चयनित भोपाल और इंदौर के सात सीवेज संयंत्र से क्रमश: अप्रैल और जुलाई 2023 में नमूने एकत्र किए गए। इसे सामने आया कि सीवेज संयंत्र के इनलेट में 3-35.5 आइटम/लीटर और आउटलेट 2-13.5 आइटम/लीटर माइक्रोप्‍लास्टिक पाए गए है। 

अध्‍ययन में शामिल रही और ICMR-नेशनल इंस्‍टीट्यूट फॉर रिसर्च इन एनवायर्नमेंटल हेल्‍थ (NIREH) की वैज्ञानिक डॉ. सूर्या सिंह कहती है,

‘एसटीपी के आउटलेट/कीचड़ से माइक्रोप्‍लास्टिक्‍स को कुशलतापूर्वक हटाने के लिए उपयुक्‍त तकनीकों की आवश्‍यकता है।’

सिंह आगे कहती हैं, ”भोपाल और इंदौर के एसटीपी के कीचड़ में माइ‍क्रोप्‍लास्टिक की उच्‍च मात्रा ( 16-389 कण/किग्रा) पाई गई है। जो खेतों में खाद के रूप में उपयोग होने पर मिट्टी और भूजल को दूषित कर रही है।”

डाॅ. अर्चना सिंह, एडवांस्‍ड मटेरियल्‍स एंड प्रोसेसेज रिसर्च इंस्‍टीट्यूट, भोपाल, भी चेताती है,

‘माइक्रोप्‍लास्टिक के छोटे कण सीवेज संयंत्र के फिल्‍टर से आसानी से निकल जाते हैं। अगर स्‍लज को खेतों में खाद के रूप में इस्‍तेमाल किया जाता है, तो यह मिट्टी और भूजल को दूषित करता है।’

क्‍या हो रहा है

नगरीय प्रशासन द्वारा तालाब के प्रदूषण-अतिक्रमण से निपटने के‍ लिए कई कार्य किए जा रहे है। जोकि अपर्याप्‍त साबित हो रही है। जापान से वित्तपोषित भोज वेटलैंट परियोजना के तीन दशक बाद नगर निगम भोपाल द्वारा अपर लेक पुनरुद्धार योजना तैयार की जा रही है। परिवार नियोजन एवं समन्‍वय संगठन (एप्‍को) के सहयोग से संचालित इस योजना को एसपीए भोपाल और मैनिट के विशेषज्ञों द्वारा आकार दिया जा रहा है।  

बीएमसी आयुक्‍त हरेंद्र नारायण ने बताया,

‘एकीकृत विकास योजना औपचारिक निर्माण हो चुका है। इस अंतिम रूप दिया जा रहा है। इसके बाद केंद्र की मंजूरी ली जाएगी। ताकि योजना को यूनेस्को-रामसर स्‍थलों के राष्‍ट्रीय संरक्षण पहल के अंतर्गत वित्त पोषण मिल सकें।’ 

नारायण ने आगे कहा, ”इस परियोजना के चार घटक है। इनमें ड्रिविंग ( झील-नदी में गाद और जलकुंभी हटाना), जल उपचार प्रणाली का उन्‍नयन, जलग्रहण क्षेत्र का संरक्षण और संवेदनशील क्षेत्रों के आसपास बुनियादी ढांचे का विकास शामिल है।” 

इसके अलावा राज्‍य सरकार द्वारा अटल कार्याकल्‍प और शहरी परिवर्तन मिशन (अमृत-2.0) योजना को भी मंजूरी दे दी है। इस परियोजना पर 582 करोड़ रुपये खर्च होंगे। यह भोपाल में 61 मिलियन लीटर प्रति दिन (एमएलडी) जल आपूर्ति क्षमता जोड़ेगी। 

बीएमसी के नगर अभियंता उदित गर्ग कहते हैं,

‘यह परियोजना से शहर की 2040 तक की संभावित जनसंख्‍या की जल आपूर्ति को पूरा किया जाएगा।’

वर्तमान में, शहर की जलापूर्ति 450 एमएलडी पर निर्भर है। नए क्षमता विस्तार से भोपाल की कुल जल आपूर्ति क्षमता 514 एमएलडी से बढ़कर 575 एमएलडी होगी। अपर लेक, केरवा, कोलार और नर्मदा जैसे स्रोतों पर निर्भर जल आपूर्ति प्रणाली का विस्तार किया जाएगा।

लोकल वॉटर बॉडीज में माइक्रोप्‍लास्टिक प्रदूषण के जवाब में उदित गर्ग कहते हैं, ”शहर में लगभग 308 एमएलडी अपशिष्‍ट जल उत्‍पन्‍न होता है, जबकि इसकी उपचार क्षमता 204 एमएलडी है। करीब 104 एमएलडी अपशिष्‍ट जल का उपचार नहीं हो पाता है। यह शहर झीलों और जल निकायों में बह जाता है।” 

गर्ग ने आगे कहा,

‘अमृत योजना के तहत 160 करोड़ रुपये की लागत से 171एमएलडी क्षमता के नए उपचार संयंत्र और पंप स्‍टेशन स्‍थापित किए जाएंगे। यदि रोजाना निकलने वाले अपशिष्‍ट जल का पूर्णत: उपचार हो जाता है, जो माइक्रोप्‍लास्टिक की समस्‍या से काफी हद तक छुटा मिल जाएगा।’

इसके अलावा भोपाल में मौजूद 18 वॉटर ट्रीटमेंट प्‍लांट्स की क्षमता बढ़ाने पर फोकस किया जा रहा है। लेकिन माइक्रोप्‍लास्टिक को हटाने पर विचार नहीं किया जा रहा है। हालांकि पर्यावरण कार्यकर्ता द्वारा नगर निगम के इन सभी प्रयासों को नाकाफी बताया है। 

क्‍या चाहिए

भोपाल के अपर लेक का पानी एक समय में बिना फिल्‍टर किए सीधे पीने योग्‍य था। आज उसी लेक का पानी बी श्रेणी में रखा गया है। जिसका अर्थ है ” केवल बाहरी गतिविधियों या स्‍नान के उपयोगी, बिना फिल्‍टर के पीने योग्‍य नहीं।”  

वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों द्वारा माइक्रोप्‍लास्टिक से निपटने के लिए कई उन्‍नत तकनीकें जैसे मेम्‍ब्रेन फिल्‍ट्रेशन (RO और UF), हाइड्रोजेल तकनीक, कंस्‍ट्रक्‍टेड वेटलैंड्स ओर पायरोलिसिस को अपनाने का सुझाव दिया है। इन तकनीकों का उपयोग दुनिया भर के अलग-अलग देशों में किया जा रहा है। यह सभी तकनीक 90-99 फीसदी तक माइक्रोप्‍लास्टिक हटाने में सक्षम है। लेकिन भारत में यह तकनीकी प्रयोगशाला तक सीमित है। यहीं वजह है कि भोपाल में इन तकनीकों पर जोर नहीं दिया जा रहा है।

नेशनल सेंटर फॉर ह्यूमन सेटलमेंट एंड एनवायरनमेंट ( NCHSE) के डायरेक्‍टर जनरल डॉ. प्रदीप नंदी प्रशासन की कार्यशैली पर कटाक्ष करते हुए कहते हैं,

‘शहर के लगभग सभी जलाश्‍यों में माइक्रोप्‍लास्टिक की मौजूदगी बनी हुई है। प्रशासन द्वारा माइक्रोप्‍लास्टिक हटाने की कोई योजना दिखाई नहीं पड़ती है। इसलिए शहरवासियों को अपनी सेहत के‍ लिए खुद फिक्रमंद होना चाहिए।’

डॉ. नंदी ने आगे सुझाव देते हुए कहा, ”घरों में मेम्‍ब्रेन फिल्‍ट्रेशन तकनीक पर काम करने वाले RO और UF वॉटर फिल्‍टर लगाने चाहिए। यह छोटे माइक्रोप्‍लास्टिक को हटाने में सबसे प्रभावी है, लेकिन इसका रखरखाव मंहगा है।” 

हालांकि भारत में दिल्‍ली, मुंबई और चेन्‍नई जैसे महानगराें में इस तकनीक उपयोग घरेलू जलशोधकों ( केंट व एक्‍वागार्ड) के तौर पर हो रहा है। मेम्‍ब्रेन फिल्‍ट्रेशन (RO और UF) यह तकनीक पानी को 0.1-1 नैनोमीटर छिद्रों वाली झिल्‍ली से उच्‍च दबाव (10-30 बार) पर गुजारती है। जो 99.9 प्रतिशत माइक्रोप्‍लास्टिक हटाती है। 

वहीं पर्यावरण कार्यकर्ता और वैज्ञानिकों ने एकमत सुझाव देते हुए कहा हैं कि भारत के जलाश्‍य माइक्रोप्‍ल‍ास्टिक प्रदूषण से जूझ है। इसके समाधान प्रारंभिक चरणों में शोध का विषय है। परंतु सामुदायिक सहयोग, जन जागरूकता, प्‍लास्टिक प्रबंधन और नियमों का सख्‍ती से पालन किया जाए तो इस समस्‍या से काफी हद तक छुटकारा हासिल किया जा सकता है। 

अपर लेक पर अतिक्रमण और क्रूज-मोटर बोर्ड आदि मामलों पर एनजीटी में कई याचिका लगा चुके पर्यावरण कार्यकर्ता सुभाष सी पांडे्य सुझाते है

‘बीएमसी को तालाब के किनारे कचरा प्रबंधन और सीवेज डायवर्जन पर तुरंत काम करना होगा। सामुदायिक जागरूकता अभियान भी जरूरी हैं।’

निष्‍कर्ष 

भोपाल ने स्‍वच्‍छ सर्वेक्षण 2025 में भी दूसरा स्‍थान हासिल किया। लेकिन शहर के सभी जलाश्‍यों खासकर उसकी पहचान अपर लेक की स्थित‍ि चिंताजनक है। यह झील माइक्रोप्‍लास्टिक के जहर से जूझ रही है। जो शहरी कचरे और अनुपचारित सीवेज से बढ़ रहा है। 17 वॉटर ट्रीटमेंट प्‍लांट्स और 18 एसटीपी, जिनमें 8 बड़े तालाब के आसपास हैं। माइक्रोप्‍लास्टिक हटाने में नाकाम हैं। भोज वेटलैंड परियोजना, अमृत-2.0 योजना और प्‍लास्टिक प्रतिबंध जैसे कदम उठाए गए, लेकिन पर्यावरण कार्यकर्ता इसे अपर्याप्‍त मानते हैं। उन्‍नत तकनीकों, सख्‍त कचरा प्रबंधन और नागारिक जागरुकता के बिना यह समस्‍या हल नहीं होगी। अगर समय रहते कदम नहीं उठाए गए। तो भोपाल की यह धरोहर और उसकी लाइफलाइन से हाथ धोना पड़ सकता है। 

अंत में एक सवाल हर भोपालवासी से, क्‍या हम अपने बड़े तालाब को माइक्रोप्‍लास्टिक के इस जहर से बचा पाएंगे। बीएमसी, वैज्ञानिकों और भोपालवासियों को एकजुट होकर इस धरोहर को बचाना होगा।

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  • Based in Bhopal, this independent rural journalist traverses India, immersing himself in tribal and rural communities. His reporting spans the intersections of health, climate, agriculture, and gender in rural India, offering authentic perspectives on pressing issues affecting these often-overlooked regions.

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