मध्य प्रदेश के किसानों के लिए नीलगाय और काले हिरण फसलों का सबसे बड़ा दुश्मन बन चुके थे। लेकिन अब एक अफ्रीकी तकनीक ने इस समस्या का वैज्ञानिक और मानवीय समाधान निकाल लिया है। बोमा तकनीक के जरिए अब तक 800 से ज्यादा ब्लैकबक और करीब 70 नीलगायों को शाजापुर जैसे जिलों से पकड़कर गांधी सागर और कूनो नेशनल पार्क में सुरक्षित रूप से छोड़ा जा चुका है।
बोमा तकनीक क्या है?
अफ्रीका में दशकों से इस्तेमाल होने वाली यह तकनीक जंगली जानवरों को पकड़ने का सबसे सुरक्षित तरीका है। इसमें फनल या कीप के आकार का अस्थायी बाड़ा बनाया जाता है। बाड़े का चौड़ा हिस्सा जंगल की ओर और संकरा हिस्सा पकड़ने वाले क्षेत्र की ओर होता है।
हेलिकॉप्टर या वाहनों की मदद से जानवरों को धीरे-धीरे इस बाड़े की ओर दिशा दी जाती है। जानवर घबराते नहीं, बल्कि सहजता से अंदर चले जाते हैं। संकरे भाग में पहुंचने पर गेट बंद कर दिया जाता है और पशु चिकित्सक उनकी जांच करके ट्रक में स्थानांतरित करते हैं।
सबसे बड़ी खासियत: इसमें ट्रैंक्विलाइज़र या जाल की जरूरत नहीं होती और जानवरों को कोई शारीरिक या मानसिक नुकसान नहीं होता।
भारत में बोमा तकनीक का सफर
भारत में इस तकनीक का पहला प्रयोग मार्च 2022 में राजस्थान के केवलादेव नेशनल पार्क में हुआ था। वहां चित्तलों को मुकुंदरा हिल्स टाइगर रिजर्व में भेजा गया ताकि बाघों के लिए शिकार प्रजातियां बढ़ाई जा सकें। इस सफलता के बाद राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (NTCA) ने इसे देशभर में अपनाने की सिफारिश की।
मध्य प्रदेश ने 2025 में हेलिकॉप्टर-सहायता प्राप्त बोमा ऑपरेशन शुरू किए, जो भारत में अपनी तरह का पहला आधुनिक अभियान बन गया।
तीन लक्ष्य, एक समाधान
यह तकनीक तीन बड़े उद्देश्य पूरे करती है:
किसानों की फसलों की सुरक्षा
मानव-वन्यजीव संघर्ष में कमी
वन्यजीवों का संरक्षण
सीमाएं भी हैं
हर तकनीक की तरह बोमा की भी कुछ सीमाएं हैं। यह मुख्य रूप से मध्यम और बड़े आकार के झुंड में रहने वाले शाकाहारी जानवरों के लिए कारगर है। अकेले रहने वाले मांसाहारी जैसे शेर या चीता, या बड़े सींग वाले आक्रामक जानवरों के लिए अलग तरीके अपनाए जाते हैं।
बोमा तकनीक ने साबित कर दिया है कि विज्ञान और संवेदनशीलता के साथ किसान-वन्यजीव संघर्ष को हल किया जा सकता है।
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