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दवाओं की कमी, कुपोषण और ग़रीबी, क्या 2025 तक भारत हो पाएगा टीबी मुक्त?

दवाओं की कमी, कुपोषण और ग़रीबी, क्या 2025 तक भारत हो पाएगा टीबी मुक्त?
दवाओं की कमी, कुपोषण और ग़रीबी, क्या 2025 तक भारत हो पाएगा टीबी मुक्त?

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54 वर्षीय नारू डामोर अपने घर के पीछे वाले हिस्से में एक खाट पर लेटे हुए हैं. झाबुआ ज़िले के मऊड़ीपाड़ा गाँव में स्थित उनके घर के इस हिस्से में केवल टीन का एक शेड बस मौजूद है. भीषण गर्मी के बीच बीते 15 दिनों से वह घर के इसी हिस्से में रह रहे हैं. उनका शरीर और अधिक कमज़ोर और हाथ-पैर दुबले हो चुके हैं. डामोर टीबी के मरीज़ हैं. 15 दिन पहले ही उन्होंने क़रीब 25 किमी दूर स्थित थांदला के सरकारी अस्पताल में अपना एक्सरे करवाया था. इसके बाद उन्हे इस बिमारी का पता चला. 

अपनी परेशानी बताते हुए वह कहते हैं,

पूरे शरीर में बेहद दर्द होता है. मैं कुछ काम नही कर पाता. दिन भर बस खाँसते हुए जाता है.”

 मगर इन तमाम तकलीफ़ों के बाद भी गुज़रे 15 दिनों में उन्होंने केवल 3 बार ही दवा खाई है. इसका कारण पूछने पर वह कहते हैं,

“मुझे अस्पताल से केवल 3 गोलियाँ ही मिली थीं. मुझे कहा गया कि बाकी की गोलियाँ बाद में मिलेंगी मगर अब तक कोई भी गोली मुझे नहीं मिली है.”

वह कहते हैं कि जब उनके शरीर में दर्द बहुत अधिक बढ़ जाता था तब वह इनमे से एक दवा खा लेते थे. मगर अब तीनों दवा ख़त्म हो जाने के बाद बीते 2 दिनों से वह दर्द से कराहते हुए लेटे रहते हैं. हालाँकि नारू अकेले ऐसे मरीज़ नही हैं. दरअसल बीते महीने से ही देश के अधिकतर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र टीबी की दवाओं की कमी से जूझ रहे हैं. बीते 7 महीने में यह दूसरा मौका है जब यह कमी आई है.

 

भारत सरकार द्वारा साल 2025 तक देश भर से टीबी ख़त्म करने का लक्ष्य रखा गया है. मगर मध्यप्रदेश सहित देश के कई राज्य दवाओं की कमी से जूझ रहे हैं. इससे न सिर्फ मौजूदा मरीज़ दवाओं के उचित डोज़ लेने से चूक जा रहे हैं बल्कि इसका इलाज करना और भी कठिन होता जा रहा है.

medicine for TB
दवाओं की कमी के चलते झाबुआ के कई मरीज़ों का दवाओं का कोर्स प्रभावित हो रहा है

दवाओं की कमी से उपजता एमडीआर-टीबी

दरअसल जब कोई मरीज़ टीबी की दवा बीच में ही लेना बंद कर देता है तो यह बिमारी और भी घातक हो जाती है. ऐसे में यह बिमारी ड्रग रेसिस्टेंस टीबी (DR/MDR-TB) में बदल जाती है. इस दौरान मरीज़ का शरीर दवा के प्रति प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर लेता है. इससे उस पर दवा असर कर देना बंद कर देती है. हालाँकि किसी भी टीबी के इस रूप में बदल जाने के कई कारण हो सकते हैं. इनमें दवाओं की अनुपलब्धता सहित उनकी गुणवत्ता में कमी और भण्डारण में लापरवाही भी शामिल है. 

साल 2022 तक दुनिया भर में करीब 4 लाख 10 हज़ार एमडीआर-टीबी के मरीज़ हो गए थे. भारत की हालत इस मामले में बेहद ख़राब है. यहाँ दुनिया भर के क़रीब 27 प्रतिशत एमडीआर-टीबी के मरीज़ पाए जाते हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन के 2020 के एक आँकड़े के अनुसार इनकी संख्या क़रीब 1 लाख 35 हज़ार थी. हालाँकि भारत की टीबी रिपोर्ट 2023 के अनुसार साल 2022 में देश में एमडीआर-टीबी मरीजों की संख्या 63 हज़ार 801 थी. लेकिन 2022 में इन मरीजों की संख्या में 32 प्रतिशत तक बढ़ोत्तरी देखी गई थी. 

झाबुआ ज़िला के टीबी उन्मूलन कार्यक्रम के प्रमुख डॉ. फैसल पटेल कहते हैं कि दवाओं का कोर्स बीच में छोड़ देने के बाद मरीज़ ‘हाइपर सेंसिटिव’ हो जाता है ऐसे में उसका इलाज अपेक्षाकृत मुश्किल हो जाता है.

“आम तौर पर टीबी के मरीज़ को 4 तरह की दवा दी जाती है. मगर एमडीआर-टीबी के दौरान इनमें से 2 दवा काम नहीं करती है. फिर उन्हें 9 से 11 महीने का या फिर 18 से 24 महीने का कोर्स करना होता है.”

डॉ. पटेल के अनुसार इन दवाओं के असर के चलते मरीज़ में धड़कन बढ़ने और अन्य लक्षण दिखाई देते हैं. ऐसे में मरीज़ के लिए इन दवाओं को झेलना अपेक्षाकृत कठिन होता है.

नारू को डर है कि उनकी टीबी भी एमडीआर-टीबी में बदल सकती है. वह ‘एमडीआर-टीबी’ शब्द नहीं जानते मगर वह यह ज़रुर कहते हैं कि दवा नहीं खाने से उनकी टीबी ला-इलाज हो जाएगी. वह गुस्से में कहते हैं,

“दवा रोज़ मिलेगी तब तो खाऊंगा.”

TB in adivasi in india
मिकला दित्ता मानते हैं कि दवाओं की कमी यहाँ बड़वाओं को बढ़ावा देगी

दवाओं की कमी के चलते तांत्रिक के पास जा रहे हैं लोग?

ज़िले के थांदला विकासखंड के अंतर्गत आने वाले पासखेरिया गाँव के मिकला दित्ता कटारा बीते 20 सालों से टीबी मरीज़ों के लिए काम कर रहे हैं. वह ज़िले में लोगों को टीबी का सही इलाज करवाने और सरकारी योजनाओं के बारे में भी जागरूक करते हैं. स्थानीय आदिवासियों में बड़वा यानि झाड़-फूंक करके बिमारी या भूत-प्रेत की बाधा को दूर करने का दावा करने वाले लोगों पर गहरी आस्था है.

पाँच महीने पहले जब तलई गाँव के पुनिया वागजी डामोर की तबियत बिगड़ी तो उन्होंने एक स्थानीय बड़वा का ही रुख किया. उसे 200 रूपए और 3 कड़कनाथ मुर्गियों का बलिदान भी दिया. ध्यान दीजिए कि यहाँ एक कड़कनाथ मुर्गी की कीमत 1200 से 1500 तक होती है. यह सब कुछ करीब 2 महीने तक चला. बाद में जब उनकी हालत और बिगड़ने लगी तो उन्होंने अस्पताल का रुख किया. 

मिकला कहते हैं कि दवाओं की कमी के चलते स्थानीय लोगों के बड़वा के पास जाने के मामले बढ़ सकते हैं. 

“यहाँ बड़वा (तांत्रिक) पर लोगों का विश्वास बहुत ज़्यादा है. दवा नहीं मिलेगी तो लोग राहत के लिए उनके पास जाएँगे. इससे सही इलाज करना मुश्किल हो जाएगा.”

डॉ. पटेल भी बताते हैं कि बहुत बार बड़वा द्वारा मरीज़ों को गुमराह कर दवा छुड़वा भी दी जाती है. यहाँ यह सोचने वाली बात है कि यदि उनका इन आदिवासियों पर इतना प्रभाव है तो दवाओं की कमी उन्हें और हावी होने का मौका ही देगी. 

बिमारी के चलते गहराता अकेलेपन का संकट

देश के सभी सरकारी अस्पतालों में टीबी का इलाज मुफ्त में होता है. अप्रैल 2018 से केंद्र सरकार द्वारा टीबी के मरीजों के लिए निःक्षय पोषण योजना (Nikshay Poshan Yojana) शुरू की गई थी. इस योजना के तहत केंद्र सरकार द्वारा टीबी के मरीजों को उचित पोषण देने के लिए प्रतिमाह 500 रूपए दिए जाते हैं. डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर के ज़रिए यह राशि टीबी के कोर्स की अवधि तक दी जाती है. 

मगर अगासिया पंचायत के टिट्या गोबरिया तक इस योजना का लाभ नहीं पहुंचा है. मई की दोपहर में वह अपने एक बीघा खेत से लौट रहे हैं. गोबरिया के 3 बेटे और एक बेटी है. उन्होंने इन सबकी शादी कर दी है. उनके बेटे अलग-अलग घरों में रहते हैं जिससे वह अकेले पड़ गए हैं. अपनी हालत समझाते हुए वह कहते हैं,

“खाने के लिए मैं बहुओं पर निर्भर हूँ. कभी-कभी जब वह खाना नहीं देतीं तो भूखे भी रहना पड़ता है.”  

गोबरिया को भी बीते 2 महीनों से दवा नहीं मिल रही है. इससे उनके सीने में दर्द और खाँसी बढ़ गई है. उनके लिए काम करना मुश्किल है. ऐसे में खुद का पेट भरने के लिए उन्हें काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है. वह कहते हैं,

“सरकार मुझे पैसा दे दे तो एक छोटी सी दुकान खोल लूँ. अब चलने-फिरने का काम मुझसे नहीं होता.”  

TB medicine shortage in India
टिट्या गोबरिया अकेलेपन और कुपोषण दोनों से जूझ रहे हैं

पोषण का पूर्ण न होना बड़ी समस्या

टिट्या गोबरिया ऐसे अकेले मरीज़ नहीं हैं जिन्हें पोषण के संकट से भी गुज़रना पड़ता है. कुपोषण भारत के 55 प्रतिशत टीबी मरीज़ों की समस्या है. सरकार के निर्देशों के अनुसार एक टीबी मरीज़ का वज़न कम से कम 40 किलो (kcal/kg) होना चाहिए. इसके अलावा उसे रोज़ाना 1.2 ग्राम प्रति किलो से लेकर 1.5 ग्राम प्रति किलो प्रोटीन ग्रहण करना चाहिए. सरकार इस निर्देशिका में समुदाय समर्थित पोषण टोकरी की वकालत करती है. इस टोकरी में वयस्कों के लिए कुल 1000 कैलोरी पोषण और 30 से 50 ग्राम तक प्रोटीन शामिल होना चाहिए.

सरकार के अनुसार इस टोकरी की व्यवस्था समुदाय को करनी चाहिए. मगर पिरामल स्वास्थ्य नामक स्वयंसेवी संस्था के जॉन मंडोरिया कहते हैं.

“झाबुआ जैसे आदिवासी बाहुल्य ज़िले जहाँ अधिकतर जनसँख्या आजीविका के लिए पलायन करती है, में ऐसी सामुदायिक पहल की अपेक्षा कम है. यदि स्वयंसेवी संस्थानों को छोड़ दें तो स्थानीय सरपंच या तड़वी भी आर्थिक रूप से इतने सक्षम नहीं होते हैं कि वह यह मदद कर पाएँ.”

खुद नारू डामोर के घर पर 2 दिन में एक दिन ही हरी सब्ज़ी बन पाती है. वहीँ फल खाने का मौका उन्हें महीने में एक या कभी-कभी दो बार ही मिल पाता है. हाल यह है कि नीरू महीने के वो दिन गिनकर बता सकते हैं जब उन्होंने पेट भर खाना खाया था.       

केंद्र सरकार ने 2022 में निःक्षय मित्र (Ni-kshay Mitra) योजना शुरू की थी. इसके तहत कोई भी सक्षम व्यक्ति या संस्थान किसी एक या उससे अधिक टीबी मरीजों को अतिरिक्त निदान सुविधा, पोषण अथवा कौशल के लिए सहायता प्रदान कर सकता है. 2023 में संसद में प्रस्तुत एक आँकड़े के अनुसार इस योजना के तहत 9.55 लाख मरीजों को गोद लिया जा चुका है. हमने झाबुआ के मेघनगर, रामा और थांदला ब्लॉक के कई मरीजों से इस बारे में बात की मगर ज़्यादातर लोगों को इस योजना का लाभ नहीं मिल रहा है.

ग़रीबी और पलायन का दुश्चक्र

2011 की जनगणना के अनुसार झाबुआ ज़िले में 10.25 लाख लोग निवास करते हैं. इनमें से 9.33 लाख लोग यहाँ के ग्रामीण इलाकों में निवास करते हैं. ज़िले की 70 प्रतिशत से भी अधिक जनसँख्या खेती पर निर्भर है. मगर केवल 27.15% ज़मीन ही सिंचित है. यही कारण है कि यहाँ की 50 प्रतिशत जनता ग़रीबी रेखा के नीचे निवास करती है. 

मऊड़ीपाड़ा गाँव के धूलजी थावरिया भी इस आँकड़े में शामिल हैं. वह 60 हज़ार रूपए के क़र्ज़दार भी हैं. यह पैसा उन्होंने बीमार होने के बाद स्थानीय साहूकार से 10 प्रतिशत ब्याज़ पर उधार लिया है. इसे चुकाने के लिए उनके बड़े बेटे को पलायन कर गुजरात जाना पड़ता है. वह कहते हैं,

“बेटा 6 महीने में जो कमाकर लाता है उसका एक हिस्सा ब्याज़ और बचा हुआ हिस्सा 8 लोगों के परिवार को रोटी-दाल खिलाने में चला जाता है.”

उनका मानना है कि यदि उन्हें टीबी नहीं होती तो वह अपने 4 बीघा खेत में मानसून की फ़सल और अच्छे से उगा पाते. इससे उनकी आर्थिक हालत में सुधार होता और वह अपने परिवार का बेहतर पोषण सुनिश्चित कर पाते. थावरिया की ही तरह यहाँ के लगभग सभी टीबी मरीज़ों के घर क़र्ज़ से लदे हुए हैं. यह उनके परिवार के अधिकतर सदस्यों को पलायन करने पर मजबूर कर देता है. भारी ब्याज पर लिया गया क़र्ज़ कृषि के संकट के साथ मिलकर पलायन के एक ऐसे दुश्चक्र को पोषित करता है जो कभी ख़त्म नहीं होता.

भारत में कम होता टीबी

भारत में टीबी को एक समस्या के तौर पर पहली बार साल 1912 में चिन्हित किया गया था. वर्ल्ड बैंक के आँकड़ों के अनुसार बीते 22 सालों (2000-2022) में भारत में प्रति एक लाख जनसँख्या में टीबी मरीजों की संख्या कम हुई है. साल 2000 में यहाँ हर एक लाख लोगों में 322 टीबी मरीज़ थे. 2020 तक यह घटकर 197 हो गए. हालाँकि 2022 में यह संख्या 199 थी. झाबुआ के टीबी अभियान से सम्बंधित एक अधिकारी ने हमें बताया कि देश में प्रति एक लाख जनसँख्या में 3500 लोगों की जाँच करना स्वास्थ्य विभाग के लिए अनिवार्य है.

भारत सरकार द्वारा जारी टीबी रिपोर्ट 2023 में कहा गया कि देश में टीबी केस सूचना दर (case notification rate) में सुधार आया है. 2022 में देश भर में 24.2 लाख केस चिन्हित किए गए. यह 2021 की तुलना में 13 प्रतिशत अधिक है. केस के चिन्हांकन की दर बढ़ने का अर्थ है कि भारत में कोर्स पूरा करने वाले मरीज़ों की संख्या बढ़ी है.

 

झाबुआ में गहराता टीबी का संकट

मगर झाबुआ में मौसम इतना हरा नहीं है. ज़िला अस्पताल से प्राप्त आँकड़ों के अनुसार 2019 में इस ज़िले में कुल 2555 मरीज़ थे. 2023 में यह संख्या बढ़कर 2846 हो गई. हालाँकि डॉ. पटेल इसके पीछे का कारण टेस्टिंग का बढ़ना और आँकड़ों का और व्यवस्थित होना मानते हैं.

“अब सब कुछ ऑनलाइन हो गया है जिससे डाटा व्यवस्थित होकर आ रहा है.”

हालाँकि टीबी के आँकड़े एकत्रित करने के लिए निःक्षय (NIKSHAY) प्लेटफ़ॉर्म जून 2012 में लॉन्च किया गया था. मगर इन तमाम बातों के इतर इस ओर ध्यान देना ज़रूरी है कि टीबी के उपचार से कई बातें जुड़ी हुई हैं. ऐसे में ग़रीबी, पोषण, दवाओं की उपलब्धता और स्वास्थ्य सुविधाओं का सर्वसुलभ होना, सब कुछ एक साथ सुनिश्चित करना पड़ेगा.

नारू डामोर अपनी बिमारी के शुरूआती दिन में हैं. मगर दवाओं की अनुपलब्धता के चलते उनका परिवार आने वाले दिनों के लिए आशंकित है. उनकी पत्नी दिप्पा डामोर कहती हैं.

“दवा नहीं मिलेगी तो मरने का ख़तरा बढ़ जाएगा.”

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  • Shishir identifies himself as a young enthusiast passionate about telling tales of unheard. He covers the rural landscape with a socio-political angle. He loves reading books, watching theater, and having long conversations.

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