...
Skip to content

Earth Day: कार्बन उत्सर्जन में गांव भी पीछे नहीं

Earth Day: कार्बन उत्सर्जन में गांव भी पीछे नहीं
Earth Day: कार्बन उत्सर्जन में गांव भी पीछे नहीं

डॉ. संतोष सारंग | मुजफ्फरपुर, बिहार | शिवचंद्र सिंह तीन भाई हैं और तीनों किसान हैं. ये तीनों चिलचिलाती धूप, कड़ाके की ठंड एवं मूसलाधार बारिश की मार झेलकर भी धरती का सीना चीर अनाज उपजाते हैं, तब बमुश्किल परिवार का भरण-पोषण हो पाता है. बिहार के वैशाली जिले का एक गांव है कालापहाड़. शिवचंद्र सिंह की तरह ही इस गांव में बिल्कुल अलग बसे एक टोले के करीब 30 परिवारों का पेशा भी किसानी ही है. शिवचंद्र कहते हैं कि भीषण गर्मी के कारण जलस्तर काफी नीचे चला गया है. इस कारण सिंचाई करना मुश्किल हो रहा है. डीजल महंगा है और इधर बिजली चालित मोटर पंप पानी खींच नहीं पा रहा है. मौसम की मार की वजह से खेती घाटे का सौदा साबित हो रही है. यह स्थिति बिहार के अधिकतर जिलों की है, जो इंगित करती हैं कि जलवायु परिवर्तन का असर खेती-बाड़ी पर पड़ रहा है और स्वास्थ्य पर भी.

सवाल उठता है कि ऐसे हालात क्या अचानक बने हैं या फिर प्रकृति के स्वभाव के विपरीत लंबे समय से चल रहे मानवीय क्रियाकलापों के कारण उत्पन्न हुए हैं? जब पड़ताल की गयी, तो इस गांव से कुछ चौंकाने वाले तथ्य सामने आए. 30 परिवारों के इस छोटे से टोले में किसानों के पास 25-26 बाइक हैं, तो पूरे गांव में कितने दोपहिया वाहन होंगे? कम-से-कम सौ तो होंगे ही. इस आंकड़े के आधार पर अनुमान लगाया जा सकता है कि सिर्फ एक जिले वैशाली के 291 ग्राम पंचायतों एवं 1638 गांवों में दोपहिया वाहनों की कितनी संख्या होगी और इन वाहनों से उत्सर्जित कार्बन मोनोक्साइड व अन्य विषैले पार्टीकुलेट पर्यावरण समेत मानव स्वास्थ्य पर क्या कुप्रभाव डालते होंगे? यह समझना मुश्किल नहीं है. उक्त गांव में दो दशक पहले एक भी बाइक नहीं थी. एक घर में तीन लड़कों की शादी होती है, तो दहेज में तीन महंगी-महंगी बाइकें तो मिलनी ही चाहिए और यदि घर की कोई बहू नौकरीपेशा है तो एक स्कूटी भी होगी. ये सब सामाजिक चलन, गलाकाट प्रतिद्वंद्विता एवं स्टेटस सिंबल के कारण ग्रामीण आबादी ने भी धरती व प्रकृति को बीमार करने में अपना कम योगदान नहीं दिया है. शहर तो पहले से ही बदनाम है.

गांवों में ये बदलाव एक-डेढ़ दशक में अधिक तेजी से देखने को मिले रहे हैं. यह सब गांव का शहरीकरण होते जाने का परिणाम नहीं तो और क्या है? हम अक्सर शहरों की चमचमाती सड़कों पर फर्राटा भरती व विषैले धुएं उगलती गाड़ियों को देखकर ही दूषित होती वायु एवं गर्म होती धरती का आकलन करते हैं. लेकिन ख़ामोशी से गांवों में हो रहे इन बदलावों की तरफ हमारी नज़र जाती ही नहीं है. बिहार में 38 जिले हैं, जिनके छोटे-छोटे ग्रामीण बाजारों व गांवों में सैकड़ों बाइक और तिपहिया वाहनों की एजेंसियां खुल गयी हैं. इसका मतलब है कि वाहनों का डिमांड ग्रामीण क्षेत्रों में भी बढ़ा है. फाडा की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, देश में दोपहिया वाहनों की खुदरा बिक्री मार्च महीने में 12 फीसदी से बढ़कर 14,45,867 इकाई हो गयी है. एक साल पहले इसी महीने में 12,86,109 दोपहिया वाहन बिके थे. रिपोर्ट के मुताबिक, यात्री वाहनों से लेकर तिपहिया व वाणिज्यिक वाहनों की बिक्री में भी काफी उछाल आया है. ये सब पेट्रोपदार्थो से चलनेवाले वाहन ही हैं, जो क्लाइमेट चेंज के बहुत बड़े कारक हैं. बिहार अभी सीएनजी के उपयोग के मामले में काफी पीछे है. बिहार राज्य परिवहन विभाग ने पहल करते हुए कुछ सीएनजी बसों को सड़क पर उतारा है. सड़कों पर इक्का-दुक्का ऑटो भी दिख जाते हैं, जो सीएनजी से चल रहे हैं. इधर बैट्रीचालित तिपहिया वाहनों की संख्या जरूर बढ़ी है.    

वैशाली जिले के अरनिया गांव निवासी एमसीए का छात्र शुभम कुमार का कहना है कि मेरे गांव में कम-से-कम डेढ़ दर्जन घरों में एसी लगा है और कूलर तो अब कॉमन हो गया है. मोटरसाइकिल अधिकतर घरों में हैं. इसके अलावा कार-ट्रैक्टर-ऑटो आदि वाहन भी दर्जनों लोगों के पास हैं. मेरे गांव जैसे कई ऐसे गांव हैं, जिनको मिनी शहर भी कहा जा सकता है, जहां तमाम आधुनिक सुविधाएं मौजूद हैं, लेकिन इसके बावजूद आज भी गरीबों की समस्याएं अपनी जगह बरकरार हैं. इन तमाम विकृतियों के बाद भी सच्चे अर्थों में आज भी किसान और कामगार ही धरती के असली मित्र हैं. लेकिन अंधी दौड़ में वे भी भटकने को मजबूर हुए हैं. परंपरागत कुएं, तालाब-पोखर, पईन, नहर, नदियां, झील, चौर यानी वेटलैंड्स, बाग-बगीचे ये सब धरती को ठंडक पहुंचाते रहे हैं. इन तमाम प्राकृतिक जल स्रोतों व संसाधनों के संरक्षण-संवर्धन में किसानों व मेहनतकश लोगों ने ही अपने पसीने बहाए हैं. इक्का-दुक्का उदाहरण छोड़ दें, तो आज स्थिति इसकी उलट है.

जमीन की बढ़ती कीमतों, शहरी जीवनशैली, बेतहाशा बढ़ती आबादी और व्यक्तिवादी विकास के अंधानुकरण के कारण परंपरागत जलस्त्रोतों को बेमौत मरने को मजबूर किया है. भागलपुर शहर में लंबे समय से रह रहे कुमार राहुल ने बताया कि भागलपुर के नाथनगर व सबौर गौराडीह के इलाके के लगभग सभी निजी तालाबों को भर कर उसकी प्लॉटिंग कर बेच दिया गया है. कई जगह तो मकान भी खड़े हो गये हैं. सरकारी तालाबों को भी अतिक्रमित कर निजी उपयोग में लाया जा रहा है. शहर के जमुनिया धार इलाके में शहर का कचरा डंप कर उसे भी खत्म किया जा रहा है. अभी एक-डेढ़ साल पहले एक नदी की उड़ाही के नाम पर सिर्फ घास-फूस साफ कर मनरेगा के पैसे उठा लिये गये और रिपोर्ट में लिख दिया गया कि नदी में अविरल धारा बह रही है. जब एक स्थानीय अखबार ने इस मामले का खुलासा किया, तब जाकर कार्रवाई हुई. धरती बचाने के सरकारी प्रयासों का तो यही हाल है.

पहले किसान गेहूं की दौनी बैलों की मदद से करते थे, लेकिन अब डीजलचलित थ्रेसर से होता है. फसल का पटवन कुएं में ढेकुल लगाकर करते थे या फिर नदी-नालों से, लेकिन अब जगह-जगह समरसेबुल बोरिंग गाड़कर पंपिंग सेट से किया जा रहा है, जो भूगर्भ जल के दोहन का एक बड़ा कारण भी बन रहा है. पहले गांवों में अधिकतर मिट्टी या फिर घास-फूस के घर होते थे, लेकिन अब सिर्फ पक्के मकान ही दिखते हैं. ये तमाम परिवर्तन कार्बनजनित जीवन के रूप में तब्दील होने का कारण बन रहे हैं. नदी विशेषज्ञ व पर्यावरण की गहरी समझ रखने वाले रणजीव कहते हैं कि हमारा ग्रामीण जीवन भी कार्बन आधारित हो गया है. हमारी जीवनशैली अब जैविक नहीं रही. गांव के लोग स्थानीय संसाधनों को छोड़कर ग्रीनहाउस गैस बढ़ाने वाले संसाधनों के उपयोग में फंस गये हैं. गांव के लोग भी अब अपने घरों में एसी, कूलर, फ्रिज का उपयोग कर रहे हैं. वे कहते हैं कि हमने पानी संरक्षित करने की व्यवस्था खत्म कर दी है. नदियों, तालाबों व कुओं को जिंदा करने के बजाय बोरिंग व जलमीनार के निर्माण में लगे हैं. घर बनाने के तरीके, खेती करने के ढंग सब एनर्जी बेस्ड कर दिया है. नदी किनारे के गांवों में भी नल-जल योजना के तहत बोरिंग गाड़कर घर-घर जल पहुंचा रहे हैं. हम सामूहिकता की भावना त्याग कर व्यक्तिवादी विकास दृष्टि को अपना रहे हैं. हमने तमाम परंपरागत चीजों को आउटडेटेड समझ लिया है, तो अंजाम हमें भुगतना ही होगा.

मौसम के जानकार बताते हैं कि बिहार में भारी बारिश को सहेजने के लिए वेटलैंड (नम भूमि) का अभाव है. पानी नदियों के जरिये बह जाता है. पिछले पांच सालों में राज्य में भारी बारिश की संख्या में दो गुनी तक इजाफा हुआ है. इसके बावजूद भूजल स्तर में बढ़ोतरी नहीं हो पायी है. इसका सीधा मतलब है कि सूबे में जल को संरक्षित करने वाले जल स्त्रोतों का अभाव है. हालांकि राज्य सरकार दावा करती है कि ‘जल-जीवन-हरियाली’ योजना के तहत सार्वजनिक तालाब-पोखर व कुएं का जीर्णोद्धार, सार्वजनिक चापाकलों के पास सोख्ता का निर्माण, सरकारी भवनों में रेन वाटर हार्वेस्टिंग का काम किया जा रहा है. इस अभियान में नगर विकास एवं आवास विभाग से लेकर शिक्षा विभाग तक ने आगे का लक्ष्य तय किया है. आइएमडी, पटना के क्षेत्रीय निदेशक विवेक सिन्हा कहते हैं कि भारी बारिश को भूजल और सतही जल के रूप में सहेजने में प्राकृतिक बाधाएं हैं. बहुत कम समय में ज्यादा मात्रा में बारिश बह कर निकल जाती है. जल संरक्षण की दिशा में अभी और काम करने की जरूरत है. उधर, बिहार में चलाए जा रहे पौधरोपण अभियान की हकीकत खुद मुख्य सचिव आमिर सुबहानी बयां करते हैं. उनका कहना है कि राज्य में जो पौधे लगाए जा रहे हैं, वे बच नहीं रहे हैं. इनका संरक्षण करना होगा.

बहरहाल, 43-44 डिग्री तापमान में झुलस रहे बिहार समेत देश के तमाम राज्यों की सरकारों, गैर सरकारी संगठनों के साथ-साथ एक-एक आम-अवाम को अपनी प्यारी धरती को बचाने के लिए आगे आना होगा. यह वैश्विक संकट तभी कम हो सकेगा, जब लोकल से लेकर ग्लोबल स्तर तक छोटी-छोटी पहल को भी बड़ा अभियान मानकर की जाएगी. पृथ्वी दिवस की सार्थकता तभी संभव है, जब एक-एक आदमी क्लाइमेट चेंज को इस सदी की सबसे बड़ी मानव-त्रासदी मानकर चलेगा और उसे बचाने की दिशा में अपना सर्वश्रेष्ठ योगदान देगा. (चरखा फीचर)

यह भी पढ़ें

Follow Ground Report for Climate Change and Under-Reported issues in India. Connect with us on FacebookTwitterKoo AppInstagramWhatsapp and YouTube. Write us on GReport2018@gmail.com.

Author

Support Ground Report to keep independent environmental journalism alive in India

We do deep on-ground reports on environmental, and related issues from the margins of India, with a particular focus on Madhya Pradesh, to inspire relevant interventions and solutions. 

We believe climate change should be the basis of current discourse, and our stories attempt to reflect the same.

Connect With Us

Send your feedback at greport2018@gmail.com

Newsletter

Subscribe our weekly free newsletter on Substack to get tailored content directly to your inbox.

When you pay, you ensure that we are able to produce on-ground underreported environmental stories and keep them free-to-read for those who can’t pay. In exchange, you get exclusive benefits.

Your support amplifies voices too often overlooked, thank you for being part of the movement.

EXPLORE MORE

LATEST

mORE GROUND REPORTS

Environment stories from the margins